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शाहगंज में सपा का जलवा कायम रहेगा या नए नेता पर मोहर लगेगा
निखिल कुमार सिंह, स्वतंत्र पत्रकार
शाहगंज विधानसभा में 7 मार्च को चुनाव है। जैसे-जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आ रही है, वैसे-वैसे प्रत्याशियों की धड़कनें तेज होती जा रही है। समाजवादी पार्टी ने यहां से शैलेंद्र यादव ललई को अपना प्रत्याशी बनाया है जो कि शाहगंज विधानसभा से लगातार दो बार चुनाव जीत चुके हैं और इस बार जीत की हैट्रिक लगाने के इरादे से मैदान में है और वही लगातार पांचवीं बार विधायकी जीतने का भी उनका इरादा होगा। लेकिन शैलेंद्र यादव ललई के लिए इस बार जीत की डगर इतना आसान नहीं है जितना आसान उन्होंने सोच रखा होगा। आज कल क्षेत्र में उनके क्षेत्र भ्रमण की सूची पर गौर किया जाए तो वह अधिकांशतः पिछड़े बस्तियों में क्षेत्र भ्रमण तक सीमित है। जिससे लगता है जीत की नैया पार लगाने के लिए उन्होंने पिछड़ी जातियों को खेवैया बनाया है।
बसपा ने इस बार उन्हीं की बिरादरी के जमीनी नेता इंद्रदेव यादव को प्रत्याशी बनाया है। इंद्रदेव यादव बसपा के जमीनी कार्यकर्ता हैं जो 1989 से बसपा से जुड़े हुए है और वह सोंधी ब्लॉक से 1996, 2002 और 2011 में तीन बार ब्लॉक प्रमुख रह चुके हैं। ऐसे में शैलेंद्र यादव ललई के सामने यादव वोट बैंक को बनाए रखना इस बार बड़ा मुश्किल हो चला है। बसपा ने शाहगंज में इस बार जमीनी नेता को टिकट देकर एक नई कोशिश की है और पिछली गलती से सबका सिखा है। पिछले चुनाव में बहुजन समाजवादी पार्टी ने सुल्तानपुर के जयसिंहपुर से दो बार विधायक रहे दलबदलू नेता पूर्व मंत्री ओपी सिंह को टिकट देकर स्थानीय कार्यकर्ताओं के मन की आशा को निराशा में तब्दील करने का काम किया था इसीलिए बसपा इस बार वह गलती नहीं दोहराना चाहती थी। क्योंकि शाहगंज विधानसभा में चुनाव लड़ने आए बाहरी नेता कभी कामयाब नही रहे। दूसरी तरफ बसपा के इंद्रदेव यादव को जौनपुर जिले के सांसद श्याम सिंह यादव के सांसद होने का फायदा मिल सकता है। हालांकि बसपा ने यह सीट सपा के साथ गठबंधन में जीती थी। बहुजन समाजवादी पार्टी ने चुनाव परिणाम आने के तुरंत बाद समाजवादी पार्टी से गठबंधन तोड़ लिया था। अब दोनों की राहें जुदा हो चली है इस बार के विधानसभा चुनाव में दोनों के बीच कड़ी टक्कर देखने को मिलेगी। लेकिन श्याम सिंह यादव के जनाधार को देखा जाए तो श्याम सिंह यादव जौनपुर के सांसद होने के बावजूद भी शायद ही कोई अच्छी जनाधार बना सके हैं। कहा जाए तो वह महज नाम मात्र के सांसद है।
भाजपा को देखा जाए तो उन्होंने यह सीट घटक दल निषाद पार्टी को दे दी है। पिछली बार भाजपा ने यह सीट ओपी राजभर को दी थी। मगर राजभर इस बार उस पार्टी के साथ है, जिस पार्टी को वोट देने पर विश्वशघात होने का आरोप लगाया था। ओपी राजभर के पाला बदलने के बाद यहां से पिछला चुनाव लड़ चुके राणा अजीत ने भी पाला बदलकर निषाद पार्टी का दामन थाम लिया है। टिकट के लिए दिन-रात एक करने वाले राणा के हाथ मिली तो सिर्फ निराशा। उनको लेकर स्थानीय कार्यकर्ताओं के मन में यह पैठ बन चुकी थी यदि राणा को यहां से दोबारा टिकट मिलता है तो उनको करारी हार का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि पिछली बार राणा चुनाव लड़ने के बाद हार गए फिर दोबारा इस क्षेत्र में वह कभी नहीं दिखाई दिए। इसी को लेकर यहां के वो कार्यकर्ता राणा के खिलाफ हो चले थे जिन्होंने राणा को जिताने के लिए बहुत मेहनत की थी। राणा की कोशिशें बेकार न जाती यदि वो सांसद स्मृति ईरानी का रोडमैप अपनाते।
इसी का फायदा उठाया पूर्व सांसद पुत्र रमेश सिंह ने। निषाद पार्टी को शाहगंज विधानसभा से एक ऐसे नेता तलाश थी, जो शैलेंद्र यादव ललई की जीत की राह को रोक सके। इसके लिए निषाद पार्टी ने उनके कट्टर दुश्मन रमेश सिंह को टिकट दिया है। रमेश सिंह प्रतापगढ़ से पूर्व सांसद हरिवंश सिंह के पुत्र हैं। जो की 2014 में मोदी लहर में चुनाव जीते थे। रमेश सिंह और शैलेंद्र यादव ललई की दुश्मनी में धार ब्लॉक प्रमुख चुनाव के दौरान बढ़ी थी। 2017 में जब सपा की सरकार थी तब खुटहन ब्लॉक प्रमुख चुनाव में दो ही महिला उम्मीदवार थी। एक सपा की प्रत्याशी की सरयू देई और दूसरी तरफ रमेश सिंह की पत्नी नीलम सिंह प्रत्याशी थी। जैसा की इसमें बाहुबल और धनबल के बड़े पैमाने पर प्रयोग होता है। उस समय रमेश सिंह पत्नी नीलम सिंह का पर्चा रद्द होने के बाद सरयू देई निर्विरोध चुनाव जीत जाती है। तब रमेश सिंह ने सपा पर सत्ता का दुरुपयोग करने का आरोप लगाया था। तभी से रमेश सिंह की नजर खुटहन ब्लाक प्रमुख कुर्सी पर टिकी थी। वह एक अच्छे मौके की अदद तलाश में थे। 2017 के विधानसभा चुनाव में जब समाजवादी पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा और राज्य में भाजपा की सरकार बनी। तब रमेश सिंह ने खुटहन ब्लॉक प्रमुख की कुर्सी पर अपनी निगाहें तेज कर दी थी। इसके लिए उन्होंने रणनीतियों को धार देने के लिए लखनऊ तक अपनी बिसात बिछाने लगे थे। इसके लिए उन्होंने बदलापुर विधायक रमेश मिश्रा को अपने साथ मिला लिया। जिन पर भाजपा ने एक बार फिर टिकट देकर फिर दांव खेला है। भाजपा की सरकार बनने के कुछ समय बाद अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए 14 अक्टूबर 2017 को जिलाधिकारी के समक्ष नीलम सिंह ने दावा पेश किया। जिसकी अग्नि परीक्षा की तारीख 6 नवंबर को तय की गई थी। तब सपा प्रत्याशी की कुर्सी बचाने को लेकर ललई यादव के साथ बृजेश सिंह प्रिंशु और पूर्व सांसद धनंजय सिंह ने पूरी कोशिश की। लेकिन नीलम सिंह को 90 सदस्यों में से 66 सदस्यों के समर्थन प्राप्त होने के बाद विजेता होने की घोषणा जैसे हुई, तब वहां भारी बवाल हो गया था। दोनो पक्षों की तरफ से कई गाड़ियां जला दी गई। लेकिन समय का फेर देखिए बृजेश सिंह प्रिंशु अब अपनी एमएलसी कुर्सी बचाने के लिए भाजपा की शरण में आ गए है, जो कल तक भाजपा प्रत्याशी को हराने की जुगत में थे। प्रिंशू अब भाजपा के दावेदार बने रहने के लिए लगातार लखनऊ में अपनी पैठ बनाए हुए है। पिछले चुनावों भाजपा गठबंधन सीट के तहत चुनाव लड़ने वाले राणा अजीत सिंह की हार निषाद पार्टी की वजह से हुई थी। निषाद पार्टी के तब के प्रत्याशी रहे राष्ट्रीय महासचिव डॉ सूर्यभान यादव को कुल 21446 वोट मिले थे और उस चुनाव में राणा अजीत सिंह को 58656 वोट मिले थे दोनों को जोड़ने पर कुल 80102 वोट हो जाते हैं जो ललई यादव को 2017 में मिले कुल 67818 वोट में से 12284 वोट ज्यादा है। लेकिन उस चुनाव में भाजपा के साथी रहे राजभर इस बार सपा के साथी हैं। ऐसे में वोटों का ट्रांसफर होना निश्चित है।
यदि ललई यादव के 2012 के परिणामों को देखा जाए तो उस चुनाव में शैलेंद्र यादव ललई को कुल 74486 वोट मिले, बसपा के धर्मराज निषाद को 64253 मिले थे। तब उस चुनाव में सपा प्रत्याशी ने 10233 वोटों से जीत दर्ज की थी। उस समय भाजपा के प्रत्याशी को महज 36085 वोट मिले थे। अब 2017 के चुनाव परिणामों को अगर देखा जाए तो उस समय सपा को 67818 वोट मिले यानी 2012 के मुकाबले 5 साल में 6668 वोट कम हो गए। भाजपा ने 2017 में गठबंधन का प्रयोग किया तो नतीजा बेहतर रहा। भाजपा का वोट बैंक बढ़ा और सपा का वोट बैंक घटा। सपा आज की हालत देखे तो समाजवादी पार्टी अपने ही ब्लॉक में हार चुकी है। सोंधी ब्लॉक पर कब्जा जमाए रखने वाले वाले ललई यादव के हाथों से सोंधी ब्लॉक को छीनने का काम किया भाजपा के विजय सिंह विद्यार्थी ने, इसके बाद से विजय सिंह ने इसी को हथियार बनाकर टिकट पाने की पूरी कोशिश की, लेकिन उन्हें भी निराशा हाथ लगी। इस बार शाहगंज में सीधी लड़ाई सपा बनाम भाजपा गठबंधन है, जबकि बसपा शाहगंज में महज वोटकटवा का काम कर रही है। अब 10 मार्च को देखा जायेगा शाहगंज में सपा का जलवा कायम रहेगा या नए नेता पर मोहर लगेगा।
( यह लेखक के निजी विचार है )