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देर से ही सही! कैसे मायावती कमजोर कर रहीं अखिलेश की रणनीति
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देश के सबसे बड़े राज्य UP में चुनाव चल रहे हैं, लेकिन मायावती चुप हैं। चुनाव से महज आठ दिन पहले बुधवार को उन्होंने अपनी पहली रैली आगरा में की। ये वही मायावती हैं, जो चार बार UP की CM रह चुकी हैं। तीन दशकों से भी ज्यादा समय से UP की राजनीति में बड़ा चेहरा रही हैं और खुद को दलितों-पिछड़ों का सबसे बड़ा नेता मानती हैं।
हालांकि बसपा सुप्रीमो देर से ही सही, लेकिन प्रचार के लिए निकल पड़ी हैं। आगरा में 2 फरवरी को पहली रैली के बाद से अब वह लगातार मिशन पर हैं। 3 फरवरी को मायावती गाजियाबाद में थीं तो शुक्रवार को अमरोहा में रैली को संबोधित किया। इस दौरान मायावती ने यूं तो सभी दलों पर हमला बोला, लेकिन जिस तरह से वह सपा पर अटैक करती दिखी हैं, उससे संदेश साफ है कि वह दलितों और अति-पिछड़ों को उसके पाले में नहीं जाने देना चाहतीं। खासतौर पर अति पिछड़े वर्ग के मतदाताओं को लेकर यह संभावना जताई जा रही थी कि यह सपा के पाले में जा सकता है। लेकिन मायावती के रवैये ने अखिलेश यादव की मुश्किलें बढ़ा दी हैं।
1989 के दंगों का जिक्र हो या फिर 2012 में अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के आरक्षण के बिल को फाड़ने की बात हो। मायावती इन घटनाओं का जिक्र कर सीधे तौर पर सपा पर हमला बोल रही हैं। वह जोर देकर कह रही हैं कि सपा के कार्यकाल में दलितों और अति-पिछड़ों के साथ सौतेला व्यहार किया गया था। यही नहीं बिजनौर से अपने सांसद रहने के दौरान का जिक्र करते हुए मायावती ने कहा कि उस दौरान दंगे हुए थे और वह बिजनौर नहीं जा सकी थीं। तब कलेक्टर यादव समाज का था और उसने उन्हें रास्ते में ही रोक दिया था। कलेक्टर की जाति का जिक्र, बिल को फाड़ने का लगातार प्रचार करके मायावती ने साफ किया है कि वह अपने मतदाताओं को किस तरह बांधने की कोशिश में जुटी हैं।
मायावती यूं तो भाजपा पर भी हमला बोल रही हैं, लेकिन जिस प्रकार सपा पर समुदाय विशेष के लिए काम करने का आरोप लगा रही हैं, उससे साफ है कि वे सपा के सामाजिक समीकरण साधने की कोशिश को कमजोर कर रही हैं। दरअसल इस चुनाव में अखिलेश यादव कई बार लोहियावादी और अंबेडकरवादियों के साथ आने की बात करते रहे हैं। उनकी रणनीति इसके पीछे यह रही है कि जिन दलित वर्ग के लोगों को लग रहा हो कि मायावती और बीएसपी कमजोर हैं तो वे सपा को वोट दें। लेकिन मायावती ने देर से ही सही, जिस तरह से कैंपेन शुरू किया है, उसने अखिलेश की रणनीति को कमजोर करने का काम किया है।
खासतौर पर मायावती उन इलाकों में अब तक प्रचार करने पहुंची हैं, जहां मुस्लिम और दलित की अच्छी खासी आबादी है। एक तरफ उन्होंने बड़ी संख्या में मुस्लिमों को टिकट दिए हैं और दूसरी तरफ दलितों के सपा राज में उत्पीड़न का जिक्र कर रही हैं। इस तरह दोतरफा हमला उन्होंने बोला है और यदि दलित मुस्लिम समीकरण उनके पक्ष में बनता है तो यह सीधे तौर पर सपा के लिए घाटा होगा, जो रालोद संग बड़े वोट पर नजर रख रही है। एक वजह यह भी है कि रालोद का मुख्य आधार जाटों में है और दलित मतदाता इससे गठबंधन के साथ जाने की बजाय मायावती या फिर भाजपा का ही रुख कर सकता है।
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