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मुनव्वर राणा- जवाब दो, जवाब चाहिए

Shiv Kumar Mishra
17 Jan 2021 10:20 AM GMT
मुनव्वर राणा- जवाब दो, जवाब चाहिए
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यह तीनों शेर मुनव्वर राणा ने अपने ट्विटर हेडल पर शेयर किये थे। शेर किसान आन्दोलन को ध्यान में रखकर लिखे गये थे। शेरों में ऊपर से गरीब किसानों के प्रति हमदर्दी दिख रही है। बेबाकी भी। हिम्मत भी।

लेख- सोमदत्त शर्मा

कई दिनों से उर्दू के प्रसिद्ध शायर मुनव्वर राणा के कुछ 'शेर'

फिजां में तैर रहे हैं। 'शेर' इस तरह हैं-

"इस मुल्क के कुछ लोगों को रोटी तो मिलेगी

संसद को गिरा कर वहां कुछ खेत बना दो।

अब ऐसे ही बदलेगा किसानों का मुकद्दर

सेठों के बनाए हुए गोदाम जला दों।

मैं झूठ के दरबार में सच बोल रहा हूं

गर्दन को उड़ाओ, मुझे या जिंदा जला दो।"

यह तीनों शेर मुनव्वर राणा ने अपने ट्विटर हेडल पर शेयर किये थे। शेर किसान आन्दोलन को ध्यान में रखकर लिखे गये थे। शेरों में ऊपर से गरीब किसानों के प्रति हमदर्दी दिख रही है। बेबाकी भी। हिम्मत भी।

लेकिन, अचानक उनकी हिम्मत दम तोड देती है और जो मुनव्वर राणा–'मैं झूठ के दरबार में सच बोल रहा हूं, गर्दन को उड़ाओ, मुझे या जिंदा जला दो।'— कह कर अपने सत्य पर कायम रहने की बात कर रहे थे, अचानक ट्विटर से ये तीनों शेर हटा लेते हैं। उन्होंने शेर में जो कहा, उससे उनकी जहनियत सामने आ चुकी है। वे जो कुछ कहना चाहते थे कह चुके। जो पढ़वाना चाहते थे पढ़वा दिया। उनका उद्देश्य पूरा हो गया। लेकिन, जो मुनव्वर राणा हिंदी और उर्दू को सगी बहन मानते रहे, उन्होंने दोनों भाषाओँ को शर्मसार कर दिया। वे भूल गये कि जिस बेबाकी से उन्होंने अपनी बात रखी है, यह बेबाकी उन्हें उसी 'संसद' ने प्रदान की है, जिसे वे तोड़ने की बात कर रहे हैं। अपनी शायरी में मुनव्वर राणा खुद को भले ही धर्म निरपेक्ष दिखाने की कोशिश करते नज़र आते रहे हों, मगर व्यक्तिगत जीवन में वे कितने धर्म निरपेक्ष हैं, शोध का विषय हो सकता है। लेकिन, संसद को तोड़कर वे जाने अनजाने उन तमाम धर्मानुयाइयों की आत्मा को आघात दे गये, जिनकी आस्था मंदिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारा में रही है और एक निश्चित जीवन पद्धति के अनुरूप अपना जीवन यापन करते रहे हैं।

मुनव्वर राणा जाने अनजाने उन किसानों को भी आहत कर गये जो अबतक शांतिपूर्ण तरीके से दिल्ली आकर सरकार के सामने अपना विरोध प्रकट कर रहे हैं। धरने पर बैठे किसानों की इस बात के लिए भी तारीफ़ की जानी चाहिए कि जाडा, बरसात और ओलों के बीच भी वे बच्चों, बूढों और महिलाओं के साथ दिल्ली की सडकों पर शांति के साथ विरोध करते हुए रात गुजार रहे हैं। लेकिन, मुनव्वर राणा ने तीन शेर लिख कर उन्हें भड़काने का काम किया है।

मुनव्वर राणा शायद जाने अनजाने उन अराजक तत्वों का भी समर्थन कर रहे हैं, जिन्हें देश आतंकवादी, हिंसक और समाज विरोधी मानता रहा है। ये शेर ऐसे समय सामने आये हैं जब आन्दोलनकारी किसानों के बीच खालिस्तान समर्थकों के बैनर लगे हैं और संत लोंगोवाल के हत्यारे को किसानों का नेता बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है। जे.एन.यू. के छात्र किसानों के समर्थन के नाम पर ऐसे तत्वों का समर्थन करने आ गये हैं, जिन्हें देश टुकड़े -टुकड़े गेंग के नाम से जानता है। ये लोग महिलाओं को आगे लाकर देश के प्रधानमंत्री को –'हाय-हाय मोदी मर गया तू'– की रुदाली सी गा गा कर कोस रहे हैं, देश के प्रधानमंत्री को!

ये वही मुनव्वर राणा हैं जो साहित्य अकादमी पुरस्कार वापिस करने वालों में मंगलेश डबराल और अशोक बाजपेयी जैसे साहित्यकारों में सबसे आगे दिख रहे थे। टीवी स्क्रीन पर आकर आंसू बहा रहे थे।

साहित्य अकादमी ने इन्हें उर्दू का बड़ा कवि मानकर साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा था। ऐसे में साहित्य अकादमी और वैसे ही अन्य संस्थानों की कार्य पद्धति पर भी प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक है, क्योंकि ऐसी देश विरोधी मानसिकता वाले साहित्यकारों को ये संस्थाएं जाने अनजाने महिमा मंडित करती रहीं हैं। स्वाभाविक है देश की जनता ऐसे संस्थानों के चाल चरित्र की कुंडली खंगालने की मांग करे। जनता ऐसे लोगों के चाल चरित्र की पूरी कुंडली जांचने की मांग करे जिन्हें साहित्य अकादमी ने पूर्व काल में पुरस्कार दिए हैं। जनता को यह जानने का पूरा हक है कि वह जाने कि हाल के वर्षों में एक खास विचारधारा के ही साहित्यकारों को पुरस्कार क्यों मिले? क्या देश में वैसी योग्यता रखने वाले और साहित्यकार कम थे? क्यों डॉ रामदरश मिश्र जैसे विविध आयामी साहित्यकार को साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने के लिए तिरानवे साल की उम्र तक प्रतीक्षा करनी पड़ी? क्या ऐसे महत्वपूर्ण साहित्यिक संस्थान स्वायत्तता के नाम पर किसी खास विचारधारा को महिमामंडित करने के लिए स्वायत्त बनाए गये हैं? स्वायत्त हैं तो सरकार से पैसा क्यों लेते हैं?

वैचारिक स्वायत्तता का विरोध करने का अधिकार निश्चित रूप से लोकतांत्रिक देश का संविधान हम सबको प्रदान करता है। लेकिन, इस अधिकार का प्रयोग देश को तोड़ने वाली अराजक शक्तियों को समर्थन देने के लिए किया जाता है तो यह हर उस देशभक्त के लिए चिंता की बात होनी चाहिए जो देश के संविधान, संसद, न्याय प्रणाली, कार्यपालिका और विधाई संस्थाओं में अटूट विश्वास रखता है।

ये सब गंभीर प्रश्न हैं जिनपर गंभीरता से विचार करने की ज़रुरत है।

भारत ऐसा देश है जहां साहित्य समीक्षा के तमाम सिद्धांतों के बीच रचनाकार के व्यक्तिगत जीवन को भी उतना ही महत्वपूर्ण माना गया है जितना रचना कर्म को। लेकिन, विगत वर्षों में यह बात निरंतर कही गयी है कि हमारे पास साहित्यकार तक पहुंचने का साधन उसका साहित्य ही है। उसका व्यक्तिगत जीवन कैसा रहा है इससे कोई मतलब नहीं होना चाहिए। यह बात उन दिनों अधिक सुनने को मिलाती थी जब डॉ. कमल किशोर गोयानका जैसे आलोचक ने प्रेमचंद के लेखन, चिंतन और कार्य पद्धति की परतें उघारनी शुरू की। प्रेमचंद किसान मजदूरों के हिमायती थे। लेकिन उनके ज़माने में सरस्वती प्रेस में मजदूरों की हड़ताल ने उनके चिंतन, लेखन और कार्य पद्धति पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया। इसी तरह प्रेमचंद की मृत्यु के समय उनके खाते में जमा राशि, बेटी की शादी में उनके द्वारा खर्च की गयी राशि आदि बहुत सारे सवाल डॉ. गोयनका ने उठाये थे और तभी शायद यह नारा उछाला गया होगा कि व्यक्तिगत जीवन और रचनाकार की रचना दोनों को एक साथ रखना उचित नहीं है।

आज यह प्रश्न एक बार फिर सिर उठा रहा है कि रचनाकार का व्यक्तिगत जीवन, विचार और उसका रचनाकर्म तीनों के बीच यदि सामंजस्य नहीं है तो उस पर कैसे विचार किया जाय?

आज कोई भी बड़ा कवि, कवि सम्मेलनों में, मुशायरों में शिरकत करने के लिए लाखों में फीस वसूलता है। उन्हें यह राशि आयोजक जन सहयोग से ही प्रदान करते हैं। तो क्या जनता के पैसे पर जीवनयापन करने वाले साहित्यकारों व कवियों को जनता को बरगलाने, भ्रमित करने, क्रांति की भ्रांतिपूर्ण अवधारणा परोसने वाले साहित्यकार के रूप में ऐसे ही छोड़ देना चाहिए?...कदापि नहीं।

सोवियत रूस, जहां से 'दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ' का नारा बुलंद हुआ, क्या वह रूस देश तोड़क शक्तियों को अपने यहां उभरने की इजाज़त देगा…?.. कभी नहीं। क्या चीन ऐसा कर सकता है?.. कतई नहीं। तब भारत में ऐसी शक्तियों को उभरने की इजाज़त क्यों दी जानी चाहिए? सिर्फ इसलिए कि भारत का संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है? और यह स्वतंत्रता उन्हें उसी संसद ने प्रदान की है जिसे तोड़कर खेत बनाने की बात मुनव्वर राणा ने अपने 'शेर' में की है। हम सब को इन प्रश्नों पर इस विचार करना चाहिए और मुनव्वर ऱाणा जैसे लोगों से इसका जवाब मांगना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं और आकाशवाणी के पूर्व उप-निदेशक रहे हैं।)

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