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Narendra Modi News: प्रधानसेवकजी! हकीकत से मुंह मत चुराइये
-प्रो0 दिग्विजय नाथ झा-
Narendra Modi Hindi News: क्या श्रद्धेय नरेन्द्र दामोदरदास मोदी (Narendra Modi) बिल्कुल ही इससे अनभिज्ञ है कि बीते 91 महीनों में किए गए 234 केन्द्रीय योजनाओं के एलान के बावजूद नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक भारत में औसतन प्रतिदिन 24 किसान, 25 छोटे व्यापारी, 38 बेरोजगार एवं 28 विद्यार्थी खुदकुशी कर रहे हैं ? क्या यह सच नहीं है कि भारत के नियोजनालयों में पंजीकृत सामान्य वर्ग के बेरोजगारों की तादाद तकरीबन 1 करोड़ 50 लाख 6 हजार 784, पिछड़ा वर्ग के बेरोजगारों की संख्या करीब 1 करोड़ 16 लाख 18 हजार 157, अनुसूचित जाति वर्ग के बेरोजगारों की संख्या करीब 71 लाख 12 हजार 105 एवं अनुसूचित जनजाति वर्ग के बेरोजगारों की संख्या लगभग 26 लाख 3 हजार 278 है, जबकि नियोजनालयों के बाहर इन चारों वर्ग के गैर पंजीकृत बेरोजगारों की तादाद तकरीबन 1 करोड़ 70 लाख के आसपास हैं ?
क्या इसे नजरंदाज किया जा सकता है कि आज की तारीख में भारत सरकार के अधीनस्थ शीर्ष 10 मंत्रलायों में अनुसूचित जाति कोटे के रिक्त पड़े पदों की संख्या 14 हजार 366, अनुसूचित जनजाति कोटे के रिक्त पड़े पदों की संख्या 12 हजार 612 एवं पिछड़ी जाति कोटे के रिक्त पड़े पदों की संख्या 15081 हैं ? क्या यह सच नहीं है कि लोकसभा के प्रश्न संख्या 29 एवं 3980 और राज्यसभा के प्रश्न संख्या 2903, 1166 एवं 2579 के संदर्भ में सरकार की ओर से संसद को उपलब्ध करायी गई जानकारी के मुताबिक वर्ष 2021 के दिसम्बर महीने में भारतीय रेलवे में 306227, थल सेना में 107505, वायूसेना में 8096, नौसेना में 12281, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में 200156, भारत के सरकारी अस्पतालों में 168480, आंगनबाड़ी में 176067, केन्द्रीय विद्यालयों में 18647, नवोदय विद्यालयों में 16329, केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में 20115, केन्द्र सरकार के अन्य शैक्षणिक संस्थानों में 1662, आईआईटी में 7412, एनआईटी में 4662, आईआईएम में 946, सीबीआई में 1342, रिसर्च एंड एनालिसिस विंग में 190, केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड में 1085, डिफेंस में अधिकारियों के 88, केन्द्रीय अप्रत्यक्ष कर व सीमा शुल्क बोर्ड में 2127, इंटेलिजेंस ब्यूरो में 123, भारत के नियंत्रक व महालेखा परीक्षक के दफ्तरों में 1403, इंडियन ऑडिट एंड एकांउट डिपार्टमेंट में 250 प्रवर्तन निदेशालय में 114, विदेश मंत्रालय में अधिकारियों के 190, केन्द्रीय सचिवालय में 7035, सुप्रीम कोर्ट में जजों के 4, उच्च न्यायालयों में जजों के 419, जिला न्यायालयों में जजों के 4929, 28 राज्यों एवं 8 केन्द्र शासित प्रदेशों के प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों के 837592 और 28 राज्यों के पुलिस थानों में 531737 स्वीकृत पद रिक्त पड़े हैं ? कुल मिलाकर केन्द्र व राज्य स्तरीय विभागों और उनमें रिक्तियों की फेहरिस्त लंबी है, पर क्या भारत के प्रधानसेवक इससे वाकिफ नहीं हैं कि हिन्दुस्तान के 28 राज्यों व 8 केन्द्र शासित प्रदेशों में 80 लाख 50 हजार 977 तथा केन्द्र सरकार के अधीनस्थ विभागों में 9 लाख 10 हजार 153 स्वीकृत पद इन दिनों रिक्त पड़े हैं ?
क्या यह शर्मनाक सच नहीं है कि शिक्षा व परीक्षा प्रणाली में डिजिटलाइजेशन को बढ़ावा देने के एनडीए हुक्मरानों के प्रयास के बाद बीते पांच सालों में रिक्त सरकारी पदों पर नियुक्ति के लिए आयोजित कर्मचारी चयन आयोग की संयुक्त स्नातक स्तरीय प्रतियोगिता परीक्षा, उत्तर प्रदेश अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड की प्रतियोगिता परीक्षा, शिक्षक पात्रता परीक्षा, उत्तर प्रदेश पुलिस भर्ती प्रतियोगिता परीक्षा, बिहार पुलिस कांस्टेबल भर्ती प्रतियोगिता परीक्षा, बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन की 66वीं प्रारंभिक प्रतियोगिता परीक्षा, असम पुलिस भर्ती प्रतियोगिता परीक्षा, हरियाणा पुलिस भर्ती प्रतियोगिता परीक्षा एवं मध्य प्रदेश प्रोफेशनल प्रतियोगिता परीक्षा समेत अन्य दर्जनों प्रतियोगिता परीक्षाओं के प्रश्नपत्र लीक हुए और इतना ही नहीं देश के प्रतिष्ठित आईआईटी, एनएलयू एवं मेडिकल में नामांकन के लिए आयोजित प्रतियोगिता परीक्षाओं में भी व्यापक धांधली के मामले लगातार उजागर हुए हैं और हजारों प्रतियोगियों के सपने चकनाचूर हुए हैं ? क्या यह हकीकत नहीं है कि 21 से 25 साल की आयुवर्ग के 63 फीसदी ग्रेजुएट भारत में बेरोजगार हैं, बावजूद इसके कि अमेरिका में एक लाख नागरिकों पर 668 सरकारी कर्मचारियों के मुकाबले भारत में एक लाख नागरिकों पर महज 139 सरकारी कर्मचारी हैं ?
क्या भारत के नीति-नियंता वर्ष 2021 की वर्ल्ड इनइक्वलिटी रिपोर्ट से सहमत नहीं हैं कि देश के राष्ट्रीय आय में भारत की एक फीसदी रईस आबादी की हिस्सेदारी 22 फीसदी है और समृद्ध दस फीसदी आबादी की हिस्सेदारी 57 फीसदी है, जबकि भारत की 50 फीसदी निम्न-मध्यम वर्गीय आबादी की हिस्सेदारी मात्र 13 फीसदी है ? क्या यह सच नहीं है कि रिजर्व बैंक की हालिया रिपोर्टके मुताबिक भारत की जीडीपी में असांगठनिक क्षेत्र की भागीदारी 2014-15 में 54 फीसदी के मुकाबले 2020-21 में घटकर 21 फीसदी हो गई है ? क्या यह हकीकत नहीं है कि प्रधानमंत्री की ओर से 2 करोड़ 90 लाख 2 हजार 545 भारतीय किसानों को पांच सौ रूपए प्रतिमाह की दी जा रही सहायता के ढोलवादन के बावजूद वर्ष 2014-15 के मुकाबले वर्ष 2020-21 में डीजल, बिजली व फर्टिलाइजर की आसमान छूती कीमतों की वजह से आम भारतीय किसानों की कमाई में 7 फीसदी की गिरावट आई है ? क्या यह सच नहीं है कि आज की तारीख में प्रधानमंत्री की सुरक्षा में तैनात स्पेशल प्रोटेक्सन ग्रुप पर प्रति मिनट भारत के खजाने से 8125 रूपए व्यय हो रहे हैं, जबकि देश में प्रतिव्यक्ति की औसतन मासिक आय 8307 रूपए हैं और सर्वाधिक पीड़ादायक तो यह कि प्रतिदिन 150 रूपए से कम की कमाई करनेवाले व्यस्क भारतीयों की तादाद 13 करोड़ 40 लाख के आसपास है ? क्या यह कटु सत्य नहीं है कि बीते 19 महीनों के कोविड काल में 80 करोड़ भारतीयों को मुफ्त दिए गए कुल 765 लाखटन अनाज के मद में सरकार ने तकरीबन 2 लाख 90 हजार करोड़ रूपए व्यय किए, जबकि वर्ष 2020-21 में केन्द्र समेत 28 भारतीय राज्यों में पदस्थापित मंत्रियों एवं मंत्रालयों के उच्चाधिकारियों के वेतन-भत्ता एवं सुविधाओं के मद में तकरीबन 8 लाख करोड़ रूपए व्यय हुए हैं ? क्या यह सच नहीं है कि बीते 91 महीनों में 150 करोड़ रूपए से ऊपर की लागत वाली इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़े 1673 प्रोजेक्ट का शिलान्यास एनडीए हुक्मरानों ने देश के विभिन्न हिस्सों में किया, पर इनमें से 557 प्रोजेक्ट की प्रगति की रफ्तार इस कदर सुस्त है कि आगामी दस सालों में भी इसे पूर्ण होने के आसार कम ही हैं, जबकि पूर्ण होने कि तय सीमा से काफी पीछे चल रहे 445 प्रोजेक्ट की लागत में 4 लाख 40 हजार 857 करोड़ रूपए का इजाफा वर्ष 2021 के दिसम्बर महीने तक में हो गया है, जो कि वास्तविक लागत से 19.82 फीसदी ज्यादा है।
यानि कि इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़े 60 फीसदी प्रोजेक्ट का भविष्य अधर में लटका पड़ा है ? क्या यह सच नहीं है कि वर्ष 2014 में भारत पर विदेशी कर्ज लगभग 33 लाख करोड़ रूपए था, जो कि वर्ष 2021 में बढ़कर 43 लाख 32 हजार करोड़ रूपए हो गया है और नतीजा यह हुआ है कि 2014 में प्रति भारतीय विदेशी कर्ज जहां 26 हजार रूपए था, वहीं 2021 में बढ़कर यह 32 हजार रूपए हो गया है ? क्या हकीकत नहीं है कि नोटबंदी के पीएम के बेतुके फैसले की वजह से न सिर्फ भारत की जीडीपी लुढ़क गई, अपितु बेरोजगारी बढ़ गई, आम आदमी की सेविंग घट गई, बैंकों का कर्ज बढ़ गया और सरकार के राजस्व में कोई उल्लेखनीय बढ़ोतरी भी नहीं हुई ? क्या इससे इंकार किया जा सकता है कि बेरोजगारी के प्रति केन्द्र की मौजूदा सरकार की निरंतर उदासीनता की वजह से ही तो रेलवे की 139050 रिक्त पदों के लिए तकरीबन 2 करोड़ 42 लाख, उत्तर प्रदेश सचिवालय में चपरासी के 368 रिक्त पदों के लिए लगभग 23 लाख, पश्चिम बंगाल सरकार में ग्रुप डी के 6 हजार रिक्त पदों के लिए करीब 25 लाख, मुंबई पुलिस कांस्टेबल के 1137 रिक्त पदों के लिए लगभग 2 लाख, हरियाणा में पुलिस कांस्टेबल के 5500 रिक्त पदों के लिए करीब 8 लाख 40 हजार, गुजरात उच्च न्यायालय में चपरासी के 149 रिक्त पदों के लिए लगभग 1 लाख 60 हजार एवं बिहार विधानसभा में चपरासी के 186 रिक्त पदों के लिए तकरीबन 15 लाख बेरोजगार भारतीयों ने आवेदन दाखिल किए ?
बहरहाल, सरकारी नाकामियों के प्रतिरक्षा कवच के तौर पर कोविड काल को इस्तेमाल करने की इजाजत लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित किसी भी सरकार को कतई भी नहीं दी जा सकती है। यह समझ से परे है कि व्यापक रोजगार सृजन के सशक्त संभावनाओं से लैस कृषि एवं एमएसएमई सेक्टर को 2022-23 के आमबजट में भी कोई बड़ी राहत केन्द्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने पूर्व की भांति ही नहीं दी है। बात केवल सरकारी विभागों में नियुक्तियों तक सीमित नहीं है। इस देश में बेरोजगारी ऐसा वायरस बन चुका है, जिसकी वैक्सीन इजाद करने में सरकारें निकम्मी साबित हुई हैं। इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन (आईएलओ) ने 2020 का जो डाटा पिछले साल जारी किया था, उसमें पूरे विश्व के स्तर पर बेरोजगारी दर 6.47 था और भारत में 7.11 प्रतिशत। 2022 के आरंभ में ही भारत में इसका ग्राफ 8 प्रतिशत को पार कर चुका है। दुनिया को छोड़िए, पिछले साल की अवधि में बेरोजगारी की स्थिति की तुलना हम केवल दक्षिण एशियाई देशों से कर लेते हैं। बेरोजगारी की दर बांग्लादेश में 5.3 फीसदी, पाकिस्तान में 4.65 फीसदी, श्रीलंका में 4.43 फीसदी, नेपाल में 4.44 फीसदी, भूटान में 3.74 फीसदी, जबकि भारत में 7.90 फीसदी वर्ष 2021 के दिसम्बर महीने में आईएलओ ने बताया था। टीवी पर बेरोजगारी बहस का प्रमुख विषय नहीं है। जीडीपी पर शायद ही कभी चर्चा होती हो। अयोध्या में कितने लाख दीये जलाए गये, राम मंदिर निर्माण पर कितने हजार करोड़ खर्च करने हैं, मथुरा-काशी, जनरल रावत से जिन्ना तक बहस का विषय है। गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई व जीडीपी जैसे विषय मेन स्ट्रीम मीडिया के लिए अछूत से हो गए हैं। प्रधानसेवकजी! अपनी किस उपलब्धि के लिए फुलकर कुप्पा होते हो ? रोजगार देने में विफल रहने के वास्ते बहाना बनाएंगे कोविड महामारी का, तो मित्रों इससे पूरी दुनिया जूझ रही है। अमेरीका में भी बेरोजगारी दर पिछले साल जनवरी में 6.3 प्रतिशत को छू रही थी, जिसे 2021 के आखिर में 3.9 फीसदी पर ले आया गया।
मगर, इसके उलट भारत का बेरोजगारी ग्राफ ऊंचाई छूता ही चला गया। भारत में निजी खपत 8 साल के न्यूनतम स्तर पर है, बावजूद इसके जीडीपी की विकास दर आय बढ़ने के बजाय महंगाई बढ़ने के कारण आई है और सरकार का टैक्स संग्रह बढ़ा है, पर हकीकत यह भी है कि सितम्बर 2021 तक जीएसटी के संग्रह के आंकड़े बताते हैं कि बीते दो साल की रिकवरी के दौरान टैक्स संग्रह में भागीदारी में छोटे उद्योग बहुत पीछे रह गए हैं, जबकि 2017 में यह लगभग एक समान थे। यह तस्वीर सबूत हैं कि बड़ी कंपनियां कोविड के दुष्प्रभाव से उबर गई हैं, लेकिन व्यापक रोजगार सृजन के संभावनाओं से लैस छोटी कंपनियों की हालत अबतक दयनीय है और यही वजह है कि नए रोजगारों की बात तो दूर सीएमआईई के अनुसार अभी तक कोविड वाली बेरोजगारी की भरपाई भी नहीं हुई है, जबकि चुनावी नशे में डुबी देश की सत्ता ने कोविड के बहाने भारत में खरबपतियों की संख्या बढ़ाई है। चंद दिनों पहले ही दावोस ऑक्सफैम रिपोर्ट - 2022 आई है। देश में जितने खरबपति थे, उसमें 40 और नए चेहरे जुड़ गए। लोक कल्याण मार्ग वाले हमारे 'अलीबाबा' बताएंगे नहीं, जब देश में अर्थव्यवस्था पटरी से उतरी हुई है, बेरोजगारी विकराल रूप धारण कर चुकी है, पिछले वित्त वर्ष में 102 खरबपति भारत में थे, फिर उनमें 40 और कैसे जुड़े ? यानि इस भारतवर्ष में एक क्लास है, जिसके कल्याण के वास्ते प्रधानसेवक योजनाएं बनाते रहे और चुनावी मंच पर सदैव नारे दोहराते रहे कि ''सबका साथ-सबका विकास।'' यद्यपि, भारतीय मध्यवर्ग के आकार में जारी सिकुड़न भारतीय अर्थव्यवस्था के सशक्त होने के बिल्कुल भी संकेतक नहीं हैं और नई दिल्ली स्थित लोक कल्याण मार्ग में विराजमान बाबा इससे अनजान भी नहीं हैं कि सिर्फ 98 भारतीय रईसों की सम्पत्ति इन दिनों 55 करोड़ 50 लाख भारतीयों की सम्पत्ति के बराबर है, जबकि बीते एक साल में मध्यवर्ग के 3 करोड़ 50 लाख भारतीय गरीबी की सीमा रेखा से नीचे पहुंच गए।
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में किसी गरीब परिवार को मिडिल क्लास तक पहुंचने में सात पीढ़ियों का समय लग जाता है। अरस्तु कहते हैं मध्यवर्ग के आकार का बगैर आकलन किए किसी भी अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य का आकलन कतई भी नहीं कर सकते हैं। यद्यपि, भारतीय मध्यवर्ग की जिंदगी में सरकार कोई गुणात्मक बढ़ोतरी नहीं करती दिख रही है। वह शिक्षा और सेहत के लिए सरकार को टैक्स देता है और सेवाएं निजी क्षेत्र से खरीदता है। बेशर्मी की हद तो यह कि रोजगार तक उसे निजी क्षेत्र से मिलते है और रिश्वतें सरकार वसूलती है। इस मध्यवर्ग के टैक्स और बचत पर पलनेवाले वीआईपी कमाई तो छोड़िए महंगाई तक को लेकर संवेदनशील नहीं हैं। मसलन, बीते 2737 दिनों में तो अच्छे दिन आने से रहे और फिर कमजोर कृषि, बेदम एमएसएमई सेक्टर एवं बदहाल मध्यवर्ग के बूते अमृतकाल के सपने दिखाए जा रहे हैं।
''समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ है, समय लिखेगा उनका भी अपराध।''
- प्रो0 दिग्विजय नाथ झा