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जानें कहां पर नेता जी ने दिया था ये नारा, "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा"

जानें कहां पर नेता जी ने दिया था ये नारा, तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा
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कुमार कृष्णन

नेताजी का "जय हिन्द" और "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा" का नारा आज भी आज़ादी के बलिदानों की याद दिलाता है।1941 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस भागलपुर के लाजपत पार्क में सभा को संबोधित करते हुए तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा का नारा दिया था। उस दौरान भागलपुर के सैकड़ो युवा उनकी विचारधारा से जुड़कर आजादी की लड़ाई में भाग लेने को सक्रिय हुए थे। स्व.बंकिमचंद्र बनर्जी बताते थे कि उस सभा की अध्यक्षता बाबू शिवधारी सिंह ने की थी। उस सभा में नेताजी ने पूर्ण स्वराज की मांग की बात कही थी।

फारवर्ड ब्लाक की स्थापना की तैयारी में जुटे सुभाष चंद्र बोस न केवल भागलपुर आये थे बल्कि अपने सहयोगियों से विचार-विमर्श भी किया था। 24 घंटे के भागलपुर प्रवास के दौरान उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ यहां आगे की रणनीति तैयार की थी।इस दौरान उन्होंने भागलपुर में जनसभा कर लोगों को स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में तन-मन-धन से भाग लेने का आह्वान किया था। यहां अपने भाई के ससुराल में ठहरे और फिर लाजपत पार्क में सभा को संबोधित किया था।भागलपुर आने के क्रम में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के कट्टर समर्थक अरविंद मुखर्जी उर्फ बुलु दा के साथ बैठ कर देश की आजादी की लड़ाई को लेकर रणनीति तैयार की थी. आज भी यहां पर रहे संबंधी उनके हरेक चिन्ह संजोये रखे हैं।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बड़े भाई सुरेशचंद्र बोस का ससुराल खरमनचक के ढेबर गेट के सामने प्रभाष मंदिर में था। नेताजी के बड़े भाई की पत्नी अरुणप्रभा बोस थी। स्वर्गीय ईश्वर माधव चंद्र पाल का ढेबर गेट के पास प्रभाष मंदिर नामक घर था।उनकी दो बेटी ऊषाप्रभा एवं अरुणप्रभा थी, जबकि एक लड़का आभाषचंद्र पॉल था। अरुणप्रभा की शादी नेताजी के बड़े भाई सुरेशचंद्र बोस से हुई थी। लाजपत पार्क में बोस पार्क एवं झरना लगाया गया था। साथ ही माधवानंद पुरी की पहल पर तात्कालीन जिला पदाधिकारी मनोज कुमार मंडल ने नेताजी की प्रतिमा स्थापित करने की सहमति प्रदान की थी। आज से करीब 48 साल पहले नेताजी की स्मृति में सबसे पहले स्वामी माधवानंदपुरी ने कार्यक्रम शुरू किया था। कार्यक्रम हर साल लाजपत पार्क में होता था। वहां नेताजी की जयंती मनाई जाती थी। उनके निधन के बाद नारायण दास मुखर्जी ने काम शुरू किया।

संयुक्त से एकल परिवार की वजह से धीरे-धीरे ज्यादातर सदस्य कोलकाता जाकर बस गए। करीब दस साल पहले उस मकान को बेच दिया।

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