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माइनस राहुल कांग्रेस निल: कांग्रेसियों अब राहुल को माइनस करके देखो? पढिए एक रिपोर्ट
शकील अख्तर
कांग्रेसियों अब राहुल को माइनस करके देखो? कहीं दिखेगी कांग्रेस? आठ साल से वे यह नहीं समझ सके कि उनकी असली ताकत कौन है। हर क्षत्रप खुद को कांग्रेस समझने लगा। 2014 में हार उन्हीं की वजह से हुई थी। सोनिया ने तो पूरी सरकार उन्हीं लोगों को सौंप रखी थी। मगर वे खाने कमाने में ऐसे मस्त हुए कि उन्हें कांग्रेस की चिन्ता ही नहीं रही। सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बार बार कहती थीं कि जनता के बीच जाओ, कार्यकर्ताओं से मिलो मगर कोई नहीं सुनता था। या अपनी मनचाही काल्पनिक आवाज सुन लेते थे। प्रणव मुखर्जी ने सुना नागपुर जाओ। और वे संघ के मुख्यालय में पहुंच गए।
2004, 2009 दोनों बार सोनिया गांधी सरकार लाईं। दोनों बार इनको सौंपी। मगर इन्होंने न सोनिया की कद्र की और न ही सरकार ठीक से चलाने की चिन्ता। अगर सोनिया मनरेगा, किसान कर्ज माफी नहीं लातीं तो 2009 में भी वापसी संभव नहीं थी। और यह कोई ज्यादा छुपी हुई बात नहीं है कि मनरेगा और किसान कर्ज माफी का कांग्रेस के सारे बड़े नेताओं ने विरोध किया। ज्यादातर कांग्रेसी नेता गरीब के वोट तो पाना चाहते हैं, मगर उनके हित में कुछ भी करना नहीं चाहते। वे सोच के स्तर पर यथास्थितिवादी हैं। भाजपा की तरह गरीब के शोषण को उसकी नियति मानने वाले। बस फर्क यह है कि भाजपा पार्टी के स्तर पर यह बात मानती है और कांग्रेस पार्टी स्तर पर नहीं। मगर उसके अधिकांश नेता गरीब विरोधी हैं।
कांग्रेस पार्टी स्तर पर जो भाजपा से भिन्न है उसका सबसे बड़ा कारण यह गांधी नेहरू परिवार ही है। जो विचार के स्तर पर बहुत ही दृढ़ है। गरीब, मेहनतकश, कमजोर समर्थक। उसे सहारा देकर, मदद करके आगे बढ़ाने का ज्ज्बा रखने वाला। इसीलिए कांग्रेस के नेताओं की जो कुंठा होती है वह अपने इसी गांधी नेहरू परिवार के नेतृत्व के खिलाफ। मगर वोट वही लाते हैं। जनता उन्हीं के साथ जुड़ती है। अभी राहुल की यात्रा में सब हैरानी से देख ही रहे हैं। कुछ सुखद आश्चर्य से कुछ दुखद आश्चर्य से या सदमे में।
इसलिए जब कांग्रेस सत्ता में होती है तो सब कांग्रेसी चुप रहते हैं। मगर जैसे ही वक्त पलटता है। वे सारा दोष परिवार पर रखने लगते हैं। अगर मौका मिलता है तो खिसकने भी लगते हैं। डिपेंड करता है कि सामने वाले से क्या आफर मिलता है या बचाने के लिए, जो ज्यादा कमाया होता है उसे बचाने के लिए चले जाते हैं। गुलाम नबी आजाद, कैप्टन अमरिन्द्र सिंह ताजा उदाहरण हैं। दोनों कुछ पाने की उम्मीद और जो है उसे बचाने के लिए कांग्रेस छोड़ गए। और भी बहुत हैं जो जाने को तैयार बैठे हैं। मगर अभी बुलावा नहीं आ रहा। कांग्रेसियों का यह पुराना चरित्र है। 1977 में हारने के बाद जगजीवन राम और हेमवती नंदन बहुगुणा भाग गए। मजेदार यह है कि उसके बाद भी कांग्रेस नेतृत्व ने इनकी लड़कियों, लड़के को आगे बढ़ाया। मगर इन्होंने भी धोखा दिया। जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार ने भी कांग्रेस छोड़ी थी और बहुगुणा के बेटी रीता और बेटा विजय बहुगुणा तो अभी भी कांग्रेस के खिलाफ हैं।
तो ये सब कांग्रेसी जो सोनिया को डरा कर अपनी कुर्सी मजबूत करते रहे आखिरकार राहुल को नहीं डरा पाए। सोनिया को तो हमेशा इन्होंने यह कहकर रोका कि अगर आपने यह किया तो वे यह कर देंगे। सोनिया राजनीतिक रुप से बहुत बुद्धिमान हैं मगर ऊंचे आदर्शत्माक स्तर पर। दांव पेंच भी थोड़ा समझती हैं। मगर चाल फरेब की राजनीति बिल्कुल नहीं। सच तो यह है कि इसे कांग्रेसियों के अलावा और कोई इतनी बारीकी से समझ ही नहीं सकता। न खेल सकता है। मगर यह सब करते हैं वे आपस में। एक कांग्रेसी दूसरे के खिलाफ या गुट बनाकर सोनिया, राहुल के खिलाफ। मोदी के खिलाफ आपने कोई कांग्रेसी पहल करते नहीं देखा होगा। उल्टे उनकी तारीफ करने वालों की संख्या बहुत है। 2004 से ही यह सेल्फ डिफेंस की प्रक्रिया शुरू हो गई थी। मोदी जी की तारीफ और इस अंदाज में कि वह आटोमेटिकली सोनिया के खिलाफ जाए। जैसे मोदी भारतीयता के प्रतीक हैं। मतलब सोनिया का भारतीयता से कोई नाता नहीं था। सोनिया जी सहम जाती थीं। यही उनका उद्देश्य होता था। मगर राहुल इस दबाव में नहीं आए।
इसलिए उनका अंदर ही अंदर विरोध करने का तरीका निकाला गया। अंदर से ही काटने का। कांग्रेस के एक बड़े नेता ने जो अब फिर राहुल के नजदीक आए हैं कहा था कि शेर से डर नहीं लगता। मगर ये चुहे अंदर ही अंदर जो काटते हैं वे बहुत खतरनाक हैं। राहुल को इन्होंने अंदर ही अंदर काटा। 2019 में कांग्रेस अध्यक्ष से इस्तीफा भी दिलवा दिया। मगर राहुल दुःखी हुए, गुस्सा हुए लेकिन निराश नहीं हुए, डरे नहीं। इस्तीफा देने के बाद पिछले तीन साल में और ज्यादा मेहनत की। कोरोना के ढाई साल में तो राहुल के मुकाबले क्या उनके दसवें हिस्से के बराबर भी सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष के किसी नेता ने जनता से संपर्क नहीं किया। हर जगह गए। लोगों से मिले। पचासों प्रेस कान्फ्रेंस करके सरकार पर दबाव डाला और ज्यादातर मामलों में चाहे कोरोना के टीके मुफ्त में लगाने की बात हो या किसान बिल वापस लेने की सरकार को उनकी बात मानना पड़ी।
राहुल की इसी हिम्मत और जज्बे से कांग्रेसी डरते हैं। वे चाहते हैं चाहे कोई बन जाए राहुल को अध्यक्ष नहीं बनना चाहिए। भाजपा भी यही चाहती है। मोदी जी ने खुले आम कहा ही है कि कांग्रेस मुक्त भारत। जिसका सीधा मतलब है नेहरू गांधी परिवार मुक्त भारत। एक बार परिवार हट गया तो फिर आजाद को वापस भेजकर उन्हें अध्यक्ष बनवा देंगे। कैप्टन अमरिन्द्र सिंह को। आनंद शर्मा, ज्योतिराज सिंधिया किसी को भी।
यात्रा बहुत अच्छी चल रही है। सारा माहौल बदल दिया। लंबे अरसे बाद कांग्रेस के हाथ में अजेंडा आया है। भाजपा रिएक्शन कर रही है। यात्रा की एक एक चीज पर। जिस कंटेनर में 18- 18 लोग रात को सोते हों, जहां निकलने की, चलने की भी जगह नहीं होती हो। ट्रेन के साधारण डिब्बों की तरह एक के उपर एक संकरी बर्थ होती हो। दिन भर धुप में तपा कंटेनर का एसी रात को इतने लोगों के लिए ठंडा करने में असमर्थ हो जाता हो उसे आलीशान व्यवस्था बता रही है।
इन्दिरा गांधी कहती थी यह रिएक्शन अच्छा है। भाजपा को वे हमेशा प्रतिक्रियावादी पार्टी ही कहती थी। इन्दिरा जी की राजनीतिक सफलता का सबसे बड़ा कारण यह था कि वे अजेंडा हमेशा अपने हाथ में रखती थीं। भाजपा और दूसरा विपक्ष केवल रिएक्शन करता रहता था।
आज राहुल ने वह दिन वापस लाए हैं। देश के, जनता के फायदे तो बाद की बात है। फिलहाल यह कांग्रेस की वापसी का राह है। कांग्रेसियों की वापसी। उनके चेहरे खिले खिले हैं।
इसलिए हमने इस कॉलम के शुरु में सवाल पूछा कि अब बताओ कांग्रेसियों बिना राहुल के तुम क्या हो? बात थोड़ी तल्ख हो जाती है। मगर इन कांग्रेसियों ने जो किया है उसके मुकाबले इनसे इतनी स्पष्ट बात पूछना जनता का हक है। जनता की तरफ से, आम कांग्रेसी कार्यकर्ता की तरफ से यह सीधा सवाल बनता है कि तुम में कोई मुख्यमंत्री बनकर यह सोचता है कि यह उसने हासिल किया है। जनता ने उसे वोट दिया है। तो उनमें से कोई भी मुख्यमंत्री अब तो दो ही हैं, या बड़े मंत्री रहे लोग या संगठन में पदाधिकारी रहे नेता कोई भी ऐसी एक यात्रा अपने प्रदेश या जिले में ही निकालकर दिखा दें!
इस परिवार ने देश के लिए कुर्बानियां दी हैं। जनता का प्यार उन्हें हासिल है। समय आता है जनता नफरत और विभाजन के जाल में फंसती है। मगर कोई भी नकारात्मक मुद्दा लंबा नहीं चल सकता। इसलिए जब राहुल ने भारत जोडो की बात की तो लोग उनके साथ चल निकले।
यह परिवर्तन की यात्रा है। कांग्रेसियों की समझ में तो आ गई। मगर राहुल की समझ में आई कि नहीं कि यात्रा तो यात्रा है। कोई मंजिल नहीं। मंजिल तो जनता की खुशहाली, देश की मजबूती ही है। और उसके लिए सत्ता के दो केन्द्रों से बचना होगा।
2011- 12 में अन्ना के आंदोलन का मुकाबला नहीं कर पाने का सबसे बड़ा कारण यही था। उसी नेता ने कहा था, जिसने कहा शेर का डर नहीं चुहों का डर कि सत्ता के दो केन्द्र नुकसान पहुंचा रहे हैं। अब फिर उस गलती को दोहराने से राहुल को बचना होगा।