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- शिशिर के सम्मान में...
शिशिर के सम्मान में काव्य- गोष्ठी, कवियों ने अपनी रचनाओं से किया मंत्रमुग्ध
रांची । प्रयागराज से रांची पधारे Shishir, Poetry, Composition of Poets, Environmentalist, Senior Poet Dr. Shishir Somvanshi, Environmentalist, Senior Poet, Dr. Shishir Somvanshi, Literature, Poetry, Literary Beauty, Ranchi, Prayagraj, जी के सम्मान में मिलन समारोह सह काव्य गोष्ठी का आयोजन कवि एवं लोक गायक सदानंद सिंह यादव के निवास स्थान अशोक नगर रांची में हुआ।
कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार डाॅo अशोक प्रियदर्शी ने की। कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि नेहाल हुसैन सरैयावी एवं मुख्य अतिथि सुनील सिंह बादल ने शिशिर सोमवंशी जी को पुष्पगुच्छ एवं शॉल देकर सम्मानित किया ।उसके बाद चंद्रिका ठाकुर "देशदीप" जी ने अपनी रचना पढ़ते हुए कहा कि-'यह शिशिर की शाम प्रिय और आपका शुभ आगमन/आज फिर सावन हुए हैं प्रेम पुलकित ये नयन'।इसके बाद
संध्या चौधरी ' उर्वशी ' ने- ' दिए से पूछा एक दिन क्या है हम दोनों का जीवन' तो प्रणव प्रियदर्शी ने अपनी कविता 'वासंतिक एहसास' सुनायी।तत्पश्चात नीरज नीर ने- 'बेटियाँ
अपने पिताओं की
कभी मित्र नहीं बनती .
गोद से उतरकर,
वे बन जाती हैं
अपने पिताओं की माँ ..।' रेनू त्रिवेदी मिश्रा ने-जेब अगर भारी है तो तुम भी ले लो
बोली लगती है अब तो सम्मान बिके।नेहाल हुसैन सरैयावी ने-'मोहब्बत से मुझे बादल बना देता तो अच्छा था,किसी की आँख का काजल बना देता तो अच्छा था';और 'कोई किसी की तरह है कोई किसी की तरह /मिला न आदमी कोई आदमी की तरह' सुनाकर वाहवाही बटोरी।
सुनील सिंह बादल ने मां को समर्पित एक कविता-'घर आलीशान हो या साधारण,बाहर नाम मालिक का लिखा रहता है/पर उसी घर के कोने में एक जीव एक मशीन भी है,उसे मां कहते हैं' सुनायी। साथ ही अपने प्रसिद्ध किरदार 'मंगरू' पर आधारित 'ऐ रिक्शा' कविता भी सुनायी।सदानंद सिंह यादव ने - शिशिर जी की पुस्तक आत्मा का अर्धांश से नदी और किनारे शीर्षक कविता-' नदी बहती रहती है वही उसका धर्म है' और आंचलिक भाषा में एक लोकगीत प्रस्तुत किया। सीमा चंद्रिका तिवारी ने-'सलीका इतना थोड़ा सा हमारे बीच रह जाए
जहां हम साथ पहूँचे हो , वहां से साथ जा पाए '। संगीता यादव की कविता- ' मेरी पूजा हो,मेरी अर्चन हो/दिखे अक्स जिसमें सच्चाई का,रचना समाज का दर्पण हो' को सभी ने सराहा तो डॉक्टर शिशिर सोमवंशी ने- 'ये गीत मिलन का अपना है,जिसे हम तुम गुपचुप सुनते हैं सुनाकर कार्यक्रम में चार चांद लगा दिए। अंत में कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे डॉ अशोक प्रियदर्शी ने कुछ संस्मरण सुनाये;साथ ही आज के साहित्यिक परिदृश्य पर भी विचार व्यक्त किए।