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- प्रभु अगला जनम पुलिस...
संजीव शुक्ला
इधर कई दशकों से पुलिस व्यवस्था पर गहन गंभीर अध्ययन किया गया और नतीजे के तौर पर जो निकल कर आया वह इस गरिमामयी व्यवस्था का चरित्र हनन जैसा कुछ था, पर वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है। यह शानदार व्यवस्था है,एक झन्नाटेदार जॉब है। जो कुछ है वह सब मीडिया की करतूत है। वैसे, इसमें कुछ योगदान उन चलताऊ किस्म के निकम्मे,निंदा-प्रिय लेखकों का भी है जो विषयवस्तु के अभाव में पुलिस पर तमाम तरह की उल्टी सीधी बातें लिखते रहते हैं। कुल मिलाकर मीडिया ने जो भारतीय पुलिस व्यवस्था की ललित ललाम छवि पेश की है उसके चलते कई दशकों तक कई बापों ने अपनी होनहार औलादों को पुलिस व्यवस्था का अंग बनने से रोके रखा जैसे वह पुलिस सेवा में न जाकरके मानो चोरों की जमात में शामिल होने जा रहें हों।
समय सबका बदलता है सो इसका भी बदला। सारी दुरभिसंधियों के बावजूद ट्रेंड बदला और स्वर्णयुग फिर से लौट आया। जो लोग पहले इस नौकरी के प्रति गलत रवैया अख्तियार किए हुए थे, वही अब अपने होनहारों को इस व्यवस्था में डालने के लिए जुगाड़ तलाशने में जुट गए।
पुलिस भर्ती के अपने आकर्षण हैं। जो लड़के अपने बाप-दादाओं और स्कूली मास्टरों की रोज-रोज की नसीहतों के चलते अपने सामने वाले को कभी जी भर के गरिया,लतिया नहीं सके अथवा कई-कई डिब्बे च्यवनप्रास हजम करने के बावजूद लाइलाज शारीरिक कमजोरी के कारण अपने 'दुश्मन को देख लेने' की धमकी तक न दे सकें; ऐसे लोगों के लिए यह नौकरी वरदान जैसी दिखाई पड़ी। कहने का मतलब जो लोग यह सोचने लगे थे कि अब तो यह हसरतें इस पार्थिव शरीर के साथ ही दफन हो जाएगी, उनके लिए यह योजना संजीवनी समान हुई । इसमें सभी हसरतों को पूरा करने के लिए सारी सुविधाएं सहज ही मुहैया है।किसी को भी "कूटने के संवैधानिक अधिकार" की सहज उपलब्धता इस सेवा की एक अन्य विशिष्टता है जो अन्य किसी भी सेवा में नही है।
अभ्यर्थी इसे हीन भावना से उबरने के सुनहरे मौके के रूप में देखते हैं ।
इसके अलावा अमितजी और मिथुन दा के पुलिसिये रुतबे ने भी नए लड़कों के दिलो-दिमाग पर गहराई से असर डाला है,जिससे वह ताउम्र निकलना नहीं चाहते ।
हालाँकि इस बात को लेकर बड़ा हो-हल्ला होता है कि पुलिस सब कुछ निपटने के बाद पहुंचती है। यह बहुत ही घटिया किस्म का आरोप है। अरे भाई घटना होने के पहले कोई कैसे पहुँच सकता है? पुलिस है, कोई अंतर्यामी तो है नही। अगर गलती से पहूँच भी जाय तो क्या गारन्टी है कि लोग यह नही कहेंगे कि पुलिस को तो सब पहले से ही पता था,वह उधर से मिली हुई है।
पुलिस के लेट पहुंचने की तथ्यात्मक वजहें है जिसे लोग नजरअंदाज कर देते हैं। भाई पुलिस तभी तो पहुंचेगी जब उसे सूचना होगी और सूचना तभी होगी जब कोई आदमी पिट-पिटाकर सामने वाले को कानूनी ललकार लगाते हुए तथा लड़ाई को पोतों-परपोतों तक घसीटने की ग़रज से पुलिस से बाकी की कार्यवाही निपटाने के लिए प्रार्थना करेगा। पुलिस की सक्रियता यहीं से शुरू हो जाती है। पुलिस शुरू से ही समानता के सिद्धांत को लेकरके चलती है; सबसे पहले तो वह उसको ठोंकती है जिसके खिलाफ शिकायत आई है। उसके बाद अगला नंबर पीड़ित,कुचलित शिकायतकर्ता का आता है। यह पिटाई शिकायत को थाने में लाने के एवज़ में मिलती है। बात भी सही है जब आपमें लड़ाई को अंजाम तक पहुँचाने की कूबत नही है तो आप लड़ते ही क्यों हैं? अब अगर कोई यह चाहे कि लड़ाई का शेष भाग पुलिस निपटाए तो यह तो सरासर गलत बात है। यह तो अपनी जिम्मेदारी दूसरे पर थोपने जैसा है,जिसकी क़ानून कतई इजाज़त नही देता इसलिए दोनों ही पूजे जाते हैं। यह पिटाई सिद्धांततः लड़ाई-झगड़े को हतोत्साहित करने के लिए की जाती है ताकि लड़ाई मुक्त-समाज का निर्माण हो सके। यह पिटाई उन लोगों के लिए चेतावनी है जो हल्की-फुल्की लड़ाई की इच्छाशक्ति रखने के बावजूद बड़ी लड़ाई मोल लेने की तमन्ना रखते हैं।
एक और आरोप जो आजादी के बाद से लगातार इस व्यवस्था पर लगता आ रहा है वह यह कि पुलिस अपराधियों को पकड़ती नहीं है उलटे उन्हें भागने का मौका देती है; ऐसा कहने वाले शायद पुलिस के आत्म बल से परिचित नहीं हैं। यह हमारी सनातन परंपरा रही है कि हम भागने वालों पर वार नहीं करते। सो इसी सनातन धर्म का पालन करते हुए हमारी पुलिस भागने वालों की पीठ पर फायर नहीं करती। रही बात पकड़ने की तो अगर ठिकाने पता है तो जब चाहे तब पकड़ लेंगे।
छिद्रान्वेषी लोगों की तो आदत होती है कमी ढूंढने की उन्हें नहीं पता कि पुलिस वाले किन-किन परिस्थितियों में काम करते हैं। आखिर वह भी इंसान ही है। चोर-उचक्कों को पकड़ने के साथ ही अब तो नेताओं के जीवन की सुरक्षा का दायित्व भी इन्ही के कंधों पर आ टिका है। अभी हाल ही में पूर्व सरकार के एक मंत्री लापता हो गए थे,जिन्हें महिला-जाति के शील-संरक्षण के एक विशेष मामले मे और कुछ अन्य ग़ैरकानूनी कार्यों को तल्लीनता से अंजाम देने के मामले में पुलिस बहुत शिद्दत से तलाश कर रही थी। नाम से तो प्रजापति थे पर तबियत से बहुत रंगीन मिज़ाज के थे, पर समस्या यह नहीं थी कि मंत्री जी लापता हो गए थे; उनको तो लापता होना ही था और जैसा उन्होंने किया था उस हिसाब से उनका लापता होना बनता भी था। पर समस्या कुछ और ही थी। बात दरअसल यह थी कि मंत्री महोदय की सुरक्षा में लगे कुछ पुलिसकर्मी भी साथ में ही लापता हो लिए। मीडिया में बड़ी हाय-तौबा मची। मगर इस मीडियाटिक कोलाहल में पुलिस का दर्द पढ़ने की कोशिश किसी ने नहीं की। पुलिस की बात में दम था । उनका यह कहना कि जब हम खुद ही लापता है तो किसी को कैसे ढूंढे?
एक और घातक आरोप जो भारतीय पुलिस व्यवस्था के हृदय को चीरता रहा है, वह यह कि पुलिस अपराधियों का संरक्षण करती है। यह आरोप तो प्रथमदृष्टया खारिज होने के लायक है । भाई यह कौन नहीं जानता कि नेताओं की तरह अपराधियों में भी गुटबाजी होती है। अब जो गुट पकड़ में आ गया उसको फाइव-स्टार होटल में तो ठहराएंगे नहीं, उनको जेल में ही डालेंगे जब उनको जेल में रखेंगे तो उनकी रक्षा की जिम्मेदारी भी निभानी पड़ेगी । अगर रक्षा नहीं करेंगे तो बाहर छुट्टा घूम रहा दूसरा गुट तो इनको टपका के चला जाएगा। यही वह जगह है, जहां पुलिस का मानवीय चेहरा अपने पूरे सौंदर्य-बोध के साथ उभर कर सामने आता है। 'कर्म ही पूजा है' में अखण्ड विश्वास रखते हुए पुलिसवाले निर्लिप्त भाव से अपने काम में लिप्त रहते हैं। छोटी-मोटी दिक्कतों कोअगर ज्यादा तूल न दे तो यह सेवा आदिकाल से ही अपने आंतरिक सौंदर्य-बोध के कारण लोगों को लुभाती रही है। "सैंया भए कोतवाल अब डर काहे का" जैसी निर्भीकतावाली उक्ति ऐसे ही नहीं प्रचलन में आ गयी। तमाम कुवांरी लड़कियो की दिली तमन्ना रहती है कि उन्हें पति के रूप में कोतवाल मिले और फेरे कोतवाली में हो।
कुल मिलाकर इस सेवा के सुनहरे अतीत का सम्मोहन आज भी बरकरार है । लड़कों की भी तमन्ना रहती है कि प्रभु अगला जन्म मोहे पुलिस का दीजो.......
..संजीवशुक्ल