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Prashant Kishor: प्रशांत किशोर दलगत लोकतंत्र के पतन का व्यापारी है!
रामा शंकर सिंह
जब राजनीतिक दल एक नेता के आगे पीछे केंद्रित हो जायें , विचार और संगठन दोनों नदारद हो जाये तो कथित कार्यकर्ताओं की हज़ार पाँच सौ की भीड नेता के आगे पीछे जयजयकार करने में लगी रहे जो अदृश्य राजनीतिक अहित ज़्यादा करें और ज़मीनी काम शून्य।
जब चुनाव में जाति का मज़हब का रोल बहुत बढ़ जाये तो किसी भी पार्टी उम्मीदवार को एक निश्चित वोट मिलना तय हो जाता है । फिर मज़बूत उम्मीदवार को हराने के लिये छुटपुट जाति वर्ग संगठन इकट्ठे हो सकते हैं और किनारे पर बैठे मतदाताओं को झुकाने के लिये मीडिया व बड़ी रक़म की भूमिका भी काम करती है। बडी रक़म हर चुनाव में और बड़ी होती जा रही है। यह सफ़ेद चंदे का धन नहीं है , स्याह काला धन है । दस साल पहले तक रामदेव की दाड़ी जैसा काला। पिछले दिनों एक उपचुनाव में प्रति वोट दस हज़ार रूपया तक दिये जाने के सुबूत मिले हैं। इतनी बड़ी रक़में हज़ारों लाखों करोड़ों के घोटालों और बड़ी कॉरपोरेट रिश्वतों से ही मिल सकती हैं।
आज विश्व की सबसे बड़ी पार्टी सबसे धनाढ्य भी है। सफ़ेद आँकड़ों में और काले में भी। चुनावों में धन की भूमिका चालीस पचास साल पहले तक बेहद कम थी , एकदम नगण्य। मतदाता प्रत्याशी और पार्टी की नीतियों को देखकर वोट देते थे लेकिन सत्ताधारी जो भी करते थे पर निजी आर्थिक स्वार्थ पर काम आमतौर पर नहीं करते थे।
चुनावों में बड़े धन की शुरुआत इंदिरागांधी ने की और यह कह कर कि " इतना महँगा कर दूँगी कि विपक्ष चुनाव ही नहीं लड़ सके" । यह सब एक असुरक्षित मानसिकता का राजनेता ही कर सकता है। अब सब राजनेता असुरक्षित भविष्य के लिये भयाक्रांत रहते हैं इसलिये सत्ता में आते ही साम दाम दंड भेद से सत्ता सुरक्षित रखना चाहते हैं। सारा दिन और पूरे पॉंच साल सिर्फ़ इसी पर विचार व काम होता रहता है कि कैसे जीत का जुगाड़ बन सके।
भाजपा में भी अब यह मात्र जुमला है - ' देवतुल्य कार्यकर्ता ' । न देवतुल्य माना जाता है और उसके काम इस लायक रह गये हैं कि देवतुल्य कहा भी जाये । कांग्रेस में कार्यकर्ता बनाना कब का बंद हो चुका । सिर्फ चापलूस और दलाल रखे जाते हैं। इसकी देखादेखी बाकी सभी दलों में भी। संगठन है ही नहीं , फ़र्ज़ी चुनाव घोषित होते हैं। वोटर लिस्ट से नक़ल कर पार्टी सदस्यता होती है। पर साधारण राजनीतिक व्यक्ति की मजबूरी है कि कोई पूछे न पूछे और न ही कोई पूछता है इन्हें पर गॉंव मोहल्ले की मजबूरी है कि वो कैसे और किस नेता के नज़दीक का देखा जाता है। पटवारी थानेदार ब्लॉक में नमस्कार और कुर्सी नहीं मिली तो दो कौड़ी की ज़िंदगी हो जायेगी।
अब नेता इतना घिरा हुआ है कि वो कभी भी ठंडे दिमाग़ से संगंठन , कार्यकर्ता, समाज, जाति , धर्म का जुगाड़ खुद करने का समय नहीं निकाल पाता।
यहॉं प्रशांत किशोर की एंट्री होती है जो मामूली चुनावी अंकगणित के हिसाब से रणनीति बनाता है और बडी रक़म लेकर अपनी दैनिक वेतनभोगी टीम को मैदान में लगा देता है। अध्ययन के बाद व्यवस्थित चुनावी मुख्यालय में यदि २-४% वोट का भी संतुलन यदि कर लिया तो बाज़ी पलट जाती है और प्रशांत किशोर का मार्केट भाव ऊपर।
प्रशांत किशोर भारत में दलों के संगठनों के अवसान का प्रतीक है और ज़मीनी कार्यकर्ता के जीवन भर का अवसाद भी।
गाली प्रशांतकि़शोर को मत दो उस राजनीतिक व्यवस्था को दो जहॉं उसका अभ्युदय हो सका।
भविष्य में एक और काम प्रशांत किशोर करेंगें जिसका कुछ इशारा मुझसे हुई बातचीत में एक दिन पटना में उसने किया था । चुनाव में फंड का इंतज़ाम करने से लेकर जिताने और सरकार चलाने तक का ठेका! यह जल्दी होगा पर नेता और दल का चुनाव प्रशांतकिशोर हर राज्य में अपने अध्ययन सर्वे के आधार पर करेगा कि जीत हो ही जाये।
भूलियेगा नहीं कि प्रशांत किशोर का उदय कॉरपोरेट सहयोग से २०१४ में मोदी जी के लिये हुआ था , वो कभी भी वापिस जा सकता है।
प्रशांत किशोर एक व्यक्ति नहीं राजनीतिक व्यवस्था के पतन का ही नाम है !