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राजनीतिक शुचिता के पक्षधर थे डॉ. राम मनोहर लोहिया, पढ़िए- उनके जीवन की कई दिलचस्प बातें

Arun Mishra
12 Oct 2021 10:54 AM IST
राजनीतिक शुचिता के पक्षधर थे डॉ. राम मनोहर लोहिया, पढ़िए- उनके जीवन की कई दिलचस्प बातें
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'हिंदुस्तान की राजनीति में तब सफाई और भलाई आएगी जब किसी पार्टी के खराब काम की निंदा उसी पार्टी के लोग करें।'

आज महान स्वतंत्रता सेनानी, समाजवादी चिंतक और राजनेता डा. राममनोहर लोहिया की 54वीं पुण्यतिथि है।

आप किसी भी सरकार के खिलाफ जब विपक्ष की बुलंद आवाज सुनते होंगे तो एक लाइन आपकी कानों में जरूर जाती होगी, 'जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करतीं'।

ये मशहूर पंक्ति डॉ. राम मनोहर लोहिया ने तब कही थी, जब उन्होंने कांग्रेस सरकार को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया था। तब, जब कांग्रेस पार्टी सबसे मजबूत स्थिति में थी, उसे उखाड़ फेंकने की बात अगर कोई कर सकता था तो डॉ. लोहिया थे। महज चार साल में भारतीय संसद को अपने मौलिक राजनीतिक विचारों से झकझोर देने का करिश्मा डॉ राम मनोहर लोहिया ने कर दिखाया था।

भारत में गैर-कांग्रेसवाद की अलख जगाने वाले महान स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया ही थे। उनकी सोच थी कि दुनियाभर के समाजवादी विचारधारा वाले एकजुट होकर एक मंच पर आएं। लोहिया को भारतीय राजनीति में गैर कांग्रेसवाद का 'शिल्पी' कहा जाता है।

राजनीतिक शुचिता के पक्षधर

लोहिया ही थे जो राजनीति की गंदी गली में भी शुद्ध आचरण की बात करते थे। वे एकमात्र ऐसे राजनेता थे जिन्होंने अपनी पार्टी की सरकार से खुलेआम त्यागपत्र की मांग की, क्योंकि उस सरकार के शासन में आंदोलनकारियों पर गोली चलाई गई थी। ध्यान रहे स्वाधीन भारत में किसी भी राज्य में यह पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी– ''हिंदुस्तान की राजनीति में तब सफाई और भलाई आएगी जब किसी पार्टी के खराब काम की निंदा उसी पार्टी के लोग करें।....और मै यह याद दिला दूं कि मुझे यह कहने का हक है कि हम ही हिंदुस्तान में एक राजनीतिक पार्टी हैं जिन्होंने अपनी सरकार की भी निंदा की थी और सिर्फ निंदा ही नहीं की बल्कि एक मायने में उसको इतना तंग किया कि उसे हट जाना पडा़।

कर्मवीर

लोहिया जी केवल चिन्तक ही नहीं, एक कर्मवीर भी थे। उन्होने अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक आन्दोलनों का नेतृत्व किया। सन १९४२ में भारत छोड़ो आन्दोलन के समय उषा मेहता के साथ मिलकर उन्होने गुप्त रेडियो स्टेशन चलाया। १८ जून १९४६ को गोआ को पुर्तगालियों के आधिपत्य से मुक्ति दिलाने के लिये उन्होने आन्दोलन आरम्भ किया। अंग्रेजी को भारत से हटाने के लिये उन्होने अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन चलाया।

भारत-विभाजन पर लोहिया के विचार

उस समय की तमाम ऐसी घटनाओं और स्थितियों का जिनके प्रति एक आम भारतीय नागरिक के मन में बहुत स्पष्ट और तार्किक व्याख्या नहीं है, लोहिया ने अपनी पुस्तक 'गिल्टी मैन एंड इंडियाज पार्टीशन' (भारत विभाजन के गुनहगार) में परद दर परत रहस्यों को खोला है। लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि उस समय के पूरे आंखों देखे इतिहास को ही नहीं, बल्कि उसके एक सक्रिय, जीवंत पात्र रहे लोहिया की बातों को आजाद भारत में सत्तारूढ़ दल द्वारा एक विपक्षी नेता की 'खीझ' से ज्यादा नहीं समझने दिया गया, जबकि सच्चाई यह है कि सत्ता हस्तांतरण के खेल की असलियत संग्रहालयों में दफन दस्तावेजों से ज्यादा लोहिया जैसे नेताओं को भी मालूम थी जिसे होते हुए उन्होंने अपनी आंखों से देखा था।

महिलाओं को सती-सीता नहीं, द्रौपदी बनना चाहिए

डॉ. राम मनोहर लोहिया की पहचान उनकी सटीक बोली से थी। चाहे उनका पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रतिदिन 25 हजार रुपए खर्च करने की बात हो, या इंदिरा गांधी को 'गूंगी गुड़िया' कहने का साहस हो। या, फिर यह कहने की हिम्मत कि महिलाओं को सती-सीता नहीं बल्कि, द्रौपदी बनना चाहिए। उत्तर भारत के युवाओं के मन मस्तिष्क पर आज भी लोहियावाद का असर देखने को मिलता है। भले ही उन्होंने लोहिया को ठीक से पढ़ा नहीं हो। लेकिन उन्हें लोहिया की खरी-खरी बोली बेहद पसंद आती है। यही हाल 50 और 60 के दशक में भी था। तब युवा एक नारे का जिक्र बार-बार करते थे, 'जब जब लोहिया बोलता है, दिल्ली का तख्ता डोलता है।'

मुलायम-लालू-रामविलास सभी लोहिया से प्रभावित

समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव भी कई मौकों पर कहते रहे हैं कि लोहिया ही हमारे पार्टी के सबसे बड़े आदर्श हैं। 1967 में पहली बार उन्होंने ही 'नेताजी' को टिकट दिया था, जसवंतनगर विधानसभा सीट से। दरअसल, मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक क्षमता को सबसे पहले लोहिया ने ही देखा था। उस दौर के सभी युवा नेता जो लोहिया से प्रभावित थे । बाद के समय में राजनीति के शीर्ष तक गए चाहे वो मुलायम सिंह हों या लालू यादव या फिर रामविलास पासवान। इन सब पर लोहिया का असर दिखा। लेकिन यह भी सच है कि बाद के समय में इनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने इन्हें जातिवादी राजनीति के दायरे में बांधकर रख दिया, जिसका लोहिया आजीवन विरोध करते रहे।

निजी जीवन में दखल बर्दाश्त नहीं

डॉ. लोहिया की निजी जिंदगी भी कम दिलचस्प नहीं थी। उनके नजदीकी बताते हैं कि लोहिया अपनी जिंदगी में किसी का दखल बर्दाश्त नहीं करते थे। हालांकि महात्मा गांधी ने एक बार उनके निजी जीवन में ऐसी ही दखल देने की कोशिश की थी। गांधी ने लोहिया से सिगरेट पीना छोड़ने को कहा था। इस पर लोहिया ने बापू को कहा था कि 'सोच कर बताऊंगा।' कहते हैं, तीन महीने के बाद उन्होंने गांधी से कहा था कि मैंने सिगरेट छोड़ दी।

गैर-कांग्रेसवाद के शिल्पी

देश में गैर-कांग्रेसवाद की अलख जगाने वाले महान स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया चाहते थे कि दुनियाभर के सोशलिस्ट एकजुट होकर मजबूत मंच बनाए। लोहिया भारतीय राजनीति में गैर कांग्रेसवाद के शिल्पी थे और उनके अथक प्रयासों का फल था कि 1967 में कई राज्यों में कांग्रेस की पराजय हुई, हालांकि केंद्र में कांग्रेस जैसे-तैसे सत्ता पर काबिज हो पायी। हालांकि लोहिया 1967 में ही चल बसे लेकिन उन्होंने गैर कांग्रेसवाद की जो विचारधारा चलायी उसी की वजह से आगे चलकर 1977 में पहली बार केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकारी बनी। लोहिया मानते थे कि अधिक समय तक सत्ता में रहकर कांग्रेस अधिनायकवादी हो गयी थी और वह उसके खिलाफ संघर्ष करते रहे।

जैसी कथनी वैसी करनी

लोहिया के समाजवादी आंदोलन की संकल्पना के मूल में अनिवार्यत: विचार और कर्म की उभय उपस्थिति थी- जिसके मूर्तिमंत स्वरूप स्वयं डॉ॰ लोहिया थे और आजन्म उन्होंने 'कर्म और विचार' की इस संयुक्ति को अपने आचरण से जीवन्त उदाहरण भी प्रस्तत किया।

अंग्रेजों के खिलाफ भारत के स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने वाले तमाम व्यक्तित्वों की भांति लोहिया प्रभावित भी थे। वे जेल भी गए और ऐसी यातनाएं भी सहीं। आजादी से पूर्व ही कांग्रेस के भीतर उनका सोशलिस्ट ग्रुप था, लेकिन पंद्रह अगस्त सैंतालिस को अंग्रेजों से मुक्ति पाने पर वे उल्लसित तो थे लेकिन विभाजन की कीमत पर पाई गई इस स्वतंत्रता के कारण नेहरू और नेहरू की कांग्रेस से उनका रास्ता हमेशा के लिए अलग हो गया। स्वतंत्रता के नाम पर सत्ता की लिप्सा का यह खुला खेल लोहिया ने अपनी नंगी आंखों से देखा था और इसीलिए स्वतंत्रता के बाद की कांग्रेस पार्टी और कांग्रेसियों के प्रति उनमें इतना रोष और क्षोभ था कि उन्हें धुर दक्षिणपंथी और वामपंथियों दोनों को साथ लेना भी उन्हें बेहतर विकल्प ही प्रतीत हुआ।

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