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- धर्म, हिंसा, राजनीति...
पुष्य मित्र (Pushya Mitra)
अभी हम अपने धर्म के सबसे बड़े त्योहारों में से एक दशहरे के कर्मकांड, आनंद और उत्सव से उबर नहीं पाये थे कि यह दिल को दहला देने वाली खबर आयी। खबर उस सिंघु बार्डर से थी, जहां किसान एक साल से अधिक वक्त से अपनी मांगों को लेकर डटे हैं। वहां एक और मजहब सिख संप्रदाय के निहंगों ने एक व्यक्ति को बहुत क्रूर तरीके से इसलिए मार डाला, क्योंकि उसने उनके धर्म ग्रंथ गुरुग्रंथ साहब की बेअदबी की थी। इस खबर के बारे में जानकर पूरा देश सन्न है। ऐसा लग रहा है कि हम किसी मध्ययुगीन बर्बरता के दौर में चले गये हैं। हत्या का आरोपी कह रहा है कि उसे कोई अफसोस नहीं है, कोई भी उसके धर्मग्रंथ का अपमान करेगा, उसे वह ऐसी ही सजा देगा। हत्यारोपी को सम्मानित भी किया जा रहा है।
यह घटना एक तरफ तो धर्मों में फैले कट्टरपंथ की असली तसवीर पेश कर समाज को सचेत कर रहा है, तो वहीं अंदर ही अंदर तमाम धर्मों में मौजूद ऐसे तत्वों को प्रोत्साहित भी करता नजर आ रहा है कि ऐसे ही करना चाहिए। यह घटना न पहली है, न आखिरी। यह वह क्रूर सच्चाई है, जो प्रेम और शांति को बढ़ावा देने के लिए बने धर्मों का सबसे स्याह पक्ष है। सबसे पुरातन काल से लेकर आज तक बने सभी धर्मों के साथ यह दिक्कत रही है, लगभग हर धर्म किसी न किसी मुद्दे पर आहत हो जाता है और वह हिंसा पर उतारू हो जाता है। चाहे वह धर्म अहिंसा के नाम पर ही क्यों न बना हो, अपने संप्रदाय की कथित प्रतिष्ठा बचाने के लिए वह तलवार उठा ही लेता है। और धीरे-धीरे धर्म ऐसे कट्टर समूह में बदल जाते हैं, जहां सवाल पूछना अपराध मान लिया जाता है, जहां हर सिद्धांत को फ्रीज कर दिया जाता है और बदलाव की किसी गुंजाइश को सख्ती से रोक दिया जाता है।
संभवतः सभी धर्मों की यही कमजोरी है, जिस वजह से नास्तिकों ने धर्मों को गलत बता दिया है, अभी भी बता रहे हैं। मगर क्या इन वजहों के आधार पर हम धर्म को खारिज कर सकते हैं और क्या नास्तिक परंपराएं इस दोष से मुक्त हैं? क्या दुनिया में हुए तमाम कत्लेआम सिर्फ धार्मिक वजहों से हुए हैं, क्या नास्तिक विचारों पर आधारित सत्ता ने ठीक उसी तरह खूनखराबा नहीं किया है, जैसे धार्मिक कट्टरपंथियों ने किये हैं। किसी भी नतीजे पर पहुंचने के लिए इस सवाल से होकर गुजरना बहुत जरूरी है। इन सवालों से गुजरते हुए हम स्तालिन और दूसरे ऐसे तमाम तानाशाहों के विवरणों से होकर गुजरते हैं, जिन्होंने नास्तिक होते हुए भी लाखों लोगों को सिर्फ इसलिए मरवा दिये, क्योंकि वे उनसे सहमत नहीं थे। इसलिए मसला सिर्फ धर्म का नहीं है। दोष विचारों के फ्रीज हो जाने का है, हम किसी सत्य को जब आखिरी सत्य मान लेते हैं और बदलाव के तमाम रास्ते बंद कर देते हैं तो बहुत जल्द हमारे ईर्द-गिर्द ऐसे धार्मिक समूह बन जाते हैं, जो किसी भी बात पर किसी की हत्या करने के लिए तैयार हो जाते हैं। यह धर्म भी हो सकता है, सिद्धांत भी, मगर सच पूछिये तो आखिर में यह एक सत्ता, एक राजनीतिक उपक्रम ही होती है, जो किसी विचार, धर्म, सिद्धांत, नीति के आधार पर हत्याओं, हिंसाओं और क्रूरताओं को जायज ठहरा देती है। इसलिए हर चीज का जिम्मेदार धर्म को करार दे देना ठीक नहीं।
मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि मैंने कम से कम एक उदाहरण ऐसा जरूर देखा है, जो धर्मों के बेहतरीन इस्तेमाल के जरिये शांति लाने का प्रयास करता काफी हद तक सफल हुआ था। वह उदाहरण है गांधी के आखिरी अभियान का, जो नोआखली से शुरू होकर, बिहार, बंगाल और दिल्ली तक चला और आखिर में उनकी हत्या के बाद खत्म हुआ। उस पूरे अभियान में प्रेम, अहिंसा, सद्भाव, उपवास के साथ जो सबसे महत्वपूर्ण उपकरण था वह थी, उनकी सर्वधर्म प्रार्थना।
बंटवारे की पृष्ठभूमि में इसी तरह मुस्लिम लीग ने धर्म को संगठित हिंसा का उपकरण बनाकर पूरे भारत को नफरत की आग में झोंक दिया था। मगर जब उस आग को बुझाने के लिए महात्मा गांधी मैदान में उतरे तब उन्होंने धर्म को ही अपना हथियार बनाया। नोआखली से लेकर दिल्ली तक हर रोज उन्होंने सर्वधर्म प्रार्थना की और लोगों को संदेश दिये। इन प्रार्थनाओं में हमेशा बहुसंख्य-अल्पसंख्यक समेत हर धर्म के स्थानीय लोग जुटे और वहां हर धर्म की प्रार्थना की गयी। ये प्रार्थनाएं सिर्फ रिचुअल नहीं थीं, गांधी इनके जरिये लोगों के दिलों को छूने की कोशिश कर रहे थे। उन्हें बता रहे थे कि धर्म का असल मर्म क्या है, क्यों सभी धर्म प्रेम और शांति की ही बात करते हैं। धर्म के नाम पर एक दूसरे से नफरत और मारकाट करना, खून-खराबा करना क्यों गलत है। उसी दौर में ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम की पंक्तियां पापुलर हुईं।
महात्मा गांधी की राजनीति पर नजर रखने वाले लोग जानते हैं कि उन्होंने कभी धर्म से परहेज नहीं किया और कट्टरपंथ का मुकाबला करने के लिए नास्तिकता की तरफ नहीं गये। क्योंकि उन्हें मालूम था कि धर्म ही वह तत्व जिसके सहारे भारत के आम लोगों की आत्मा तक पहुंचा जा सकता है, आप जैसे नास्तिकता के खेमे में जाते हैं, इस देश की बड़ी आबादी से कट जाते हैं। वे जानते थे कि सिर्फ अंधविश्वास और कट्टरता के दोष की वजह से धर्मों को खारिज नहीं किया जा सकता। जरूरत इस बात की है कि हम धर्मों के सकारात्मक तत्वों की तलाश करें और उसके सहारे आम लोगों को बेहतर बनाने की कोशिश करें। हालांकि ऐसा करने वाले वे अकेले व्यक्ति नहीं थे, अशोक से लेकर अकबर तक भारत के प्रसिद्ध शासकों ने ऐसे ही प्रयोग किये थे।
ये उदाहरण बताते हैं कि दिक्कत धर्म में नहीं, धर्मों में बढ़ते कट्टरपंथ की वजह से हैं। उसके राजनीतिक इस्तेमाल की वजह से हैं, उसके न बदलने की जिद की वजह से हैं। अगर धर्म इन सवालों पर बात नहीं करना चाहता तो जाहिर है वह सत्ता को अपने दायरे में हस्तक्षेप करने की इजाजत दे रहा है। साथ ही ये उदाहरण हमें यह संकेत भी देते हैं कि धर्म के कट्टरपंथ और उसकी जड़ता को खत्म करने के लिए अंदर से प्रयास होने चाहिए, उसे छोड़ देना, खारिज कर देना कोई समाधान नहीं है। तार्किक और प्रगतिशील तत्वों को कभी धर्म को अकेला नहीं छोड़ना चाहिए। उन्हें लगातार धर्म की कुरीतियों के सवाल पर सक्रिय रहना चाहिए। चाहे वह सिख धर्म की बात हो, ईस्लाम की या हिंदू धर्म की। अगर आप समय के साथ बदलने के लिए तैयार नहीं हैं, अगर आपका आधार प्रेम नहीं, नफरत है, शांति नहीं हिंसा है तो एक दिन आप किसी बर्बर समूह में बदलकर मर जायेंगे। खत्म हो जायेंगे।
आज अगर सिख धर्म कहीं थोड़ा सा कलंकित हुआ है, तो उस व्यक्ति की वजह से नहीं जिसने गलत तरीके से गुरुग्रंथ साहिब को छुआ, वह उस व्यक्ति की वजह से कलंकित हुआ है, जिसने बर्बर हत्या की। उस निहंग की बर्बरता ने उन तमाम खालसा सिखों के वर्षों की मेहनत पर पानी फेर दिये जो हर आपदा और हर संकट में लोगों की मदद के लिए दुनिया के हर इलाके में दौड़ जाते हैं। जिनके गुरुद्वारों के दरवाजे हर भूखे के लिए हमेशा खुले रहते हैं। इस बात को हम सबको सोचना पड़ेगा, चाहे वह धर्म को मानने वाले हो या नास्तिक।