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- स्मरण : गणेश शंकर...
गणेशशंकर विद्यार्थी ( 26 अक्टूबर 1890 - 25 मार्च 1931 )का नाम बीसवीं शताब्दी के सर्वाधिक सक्रिय, निर्भीक और जनप्रिय पत्रकारों में शुमार होता है। वे स्वाधीनता आंदोलन के सच्चे सेनानी थे और पत्रकारिता उनके लिए एक मिशन थी। उन्होंने 9 नवंबर, 1913 को कानपुर से हिंदी साप्ताहिक 'प्रताप' का प्रकाशन आरंभ किया था ।अपने प्रवेशांक से ही 'प्रताप' ने जिस उच्च स्तर पर राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति की थी वह उसके पूरे प्रकाशन काल में निरंतर सृदृढ़ और मुखर होती गई।
विद्यार्थी जी के लिए पत्रकारिता सामाजिक राजनीतिक सरोकारों की सकर्मक अभिव्यक्ति का सार्थक माध्यम बनी और निष्काम कर्म के रूप में हमेशा नैतिक और मानवीय पक्षधरता के आदर्शों का प्रतिरूप रही। हालांकि जिस मिशनवादी पत्रकारिता का उन्होंने नेतृत्व किया था, उसमें आई कमजोरी के प्रति भी वे जागरूक थे। 1930 में प्रकाशित विष्णुदत्त शुक्ल की पुस्तक 'पत्रकार कला' की भूमिका में उन्होंने लिखा था, 'अब बहुत से समाचार पत्र सर्व साधारण के कल्याण के लिए नहीं रहे, सर्वसाधारण उनके प्रयोग की वस्तु बनते जा रहे हैं। इसके दो मुख्य कारणों को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा कि अधिकांश बड़े समाचार-पत्र धनी मानी लोगों द्वारा संचालित होते हैं, दूसरे, पत्रकार का दुर्बल व्यक्तित्व, उसकी दायित्व विमुखता और धन लिप्सा।' एक सजग और कर्तव्यनिष्ठ पत्रकार के रूप में उन्होंने कामना की थी कि पैसे का मोह और बल की तृष्णा भारतवर्ष के किसी भी नए पत्रकार को ऊंचे आचरण के पवित्र आदर्श से बहकने न दे।
विद्यार्थी जी स्वाधीन भारत के स्वप्न के साकार होने में सांप्रदायिकता और जातीयता की समस्या को सबसे बड़ी बाधा के रूप में देखते थे। उनका मानना था कि कुछ लोग निहित स्वार्थों के लिए देश की साधारण जनता को धर्म और ईमान के नाम पर विभाजित कर रहे हैं। 27 अक्तूबर 1924 को प्रकाशित आलेख 'धर्म की आड़' में उन्होंने लिखा, 'धर्म के नाम पर, कुछ इने-गिने आदमी अपने हीन स्वार्थों की सिद्धि के लिए, करोड़ों आदमियों की शक्ति का दुरुपयोग किया करते हैं।…' अपने मत को और अधिक स्पष्ट करते हुए 1925 के कौंसिल चुनाव के समय बनारसीदास चतुर्वेदी को प्रेषित पत्र में लिखा, 'मैं हिंदू-मुसलमानों के झगडे़ का मूल कारण इलेक्शन आदि को समझता हूं और कौंसिल में जाने के बाद आदमी देश और जनता के काम का नहीं रहता।'
विद्यार्थीजी के बहुआयामी व्यक्तित्व का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह भी था कि उन्होंने सामाजिक-राजनीतिक जीवन में अत्यधिक सक्रियता के बावजूद साहित्य और संस्कृति की परंपरा को राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़ा। उन्होंने भाषा की आजादी को देश की आजादी से अधिक अहम माना था। उनका लेखन केवल राजनीतिक विषयों तक सीमित नहीं था, बल्कि समय मिलने पर वे वैचारिक और रचनात्मक लेखन भी करते रहे ।
विद्यार्थी जी आजीवन सभी प्रकार के सत्ता प्रतिष्ठानों के विरुद्ध संघर्षरत रहे और अंतत: सांप्रदायिक ताक़तों से मोर्चा लेते समय हुई उनकी शहादत ने सामाजिक सद्भाव की अनूठी मिसाल कायम की। महात्मा गांधी ने विद्यार्थीजी की शहादत पर कहा था,' गणेशशंकर विद्यार्थी एक मूर्तिमान संस्था थे। उन्हें ऐसी मृत्यु मिली, जिस पर हम सबको स्पर्धा हो।'
आज हम देख रहे हैं कि नव उपनिवेशवाद और वैश्विक पूँजीवाद की कुत्सित ताक़तें, अवसरवादी व विभाजनकारी राजनीति, धार्मिक कट्टरता एवं सांप्रदायिकता, उग्र क्षेत्रवाद और जातीयता, बाजारवादी अपसंस्कृति हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने को नष्ट करने का काम बड़े पैमाने पर कर रही है। अगर आज की पीढ़ी विद्यार्थीजी के सोद्देश्य जीवन एवं निष्काम कर्मठता, प्रगतिशील एवं मानवीय चिंतन दृष्टि और त्याग-साहस-बलिदान की पराकाष्ठा को अंतर्मन से जानने, समझने और आत्मसात करने का प्रयास करती है तो न केवल वर्तमान दौर की चुनौतियों का डटकर मुकाबला करने में सफल होगी बल्कि एक स्वस्थ जनतांत्रिक व्यवस्था, समतामूलक समाज और विकसित राष्ट्र के निर्माण में सार्थक पहल कर सकेगी।
(आनंद शुक्ला जी की फेसबुक वॉल से)