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इतिहास की याद दिलाते हैं, वो भारत-तुर्की के गहरे रिश्ते
हिंदुस्तान और तुर्की के रिश्ते आज भले ही खराब हो लेकिन कभी ये रिश्ते बहुत गहरे थे। कभी ख़िलाफत-ए-उस्मानिया की शहज़ादियां निज़ाम हैदराबाद बहू थीं।
पहली जंगे-अज़ीम/ प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1919) में उस्मानी सल्तनत यानी आज का तुर्की जर्मनी के साथ मिलकर मित्र राष्ट्रों के खिलाफ लड़ा था। इस जंग में तुर्की हार गया और तब आधुनिक तुर्की का उदय हुआ जो असल मे पतन की शुरूआत थी। जंग के बाद तुर्कों ने मुस्तफा कमाल अतातुर्क को अपना सेनापति चुना।
अतातुर्क ने पहले तो खलीफा अब्दुल मजीद सानी को ख़िलाफ़त से दस्तबरदार किया और फिर ख़िलाफ़त-ए-उस्मानिया के खातमे का ऐलान कर दिया। खलीफा को जिलावतन कर फ्रांस भेज दिया गया। अतातुर्क कमाल पाशा के इस ज़ालिमाना कदम का सबसे बड़ा विरोध तत्कालीन अविभाजित भारत से हुआ था।
1919 में उस्मानी ख़लीफा की हिफ़ाज़त और ख़िलाफ़त की बक़ा के लिए हिंदोस्तान भर में आंदोलन शुरू हो गया था, जिसे हम ख़िलाफ़त मूवमेंट या ख़िलाफ़त आंदोलन के नाम से जानते हैं। हैदराबाद के निज़ाम ने जिलावतनी में फ्रांस में रह रहे ख़लीफा को पैसे भेजना शुरू किये। दुनिया भर में विरोध को देखते हुए ब्रिटिश और कमाल अतातुर्क ने 3 मार्च, 1924 को ख़िलाफ़त के खात्मे का ऐलान कर दिया। इसके साथ ही भारत में खिलाफत आंदोलन भी खत्म हो गया।
लेकिन रिश्तों को बनाए रखने के लिए हैदराबाद के निज़ाम ने अपने बेटे प्रिंस आज़म जाह के लिए ख़लीफा की बेटी शहज़ादी दुर्रे शेवर ( Dürrüşehvar Sultan ) को निकाह का पैग़ाम भेजा और ये पैग़ाम लेकर गए थे 'अल्लामा इकबाल'।
शहज़ादी दुर्रे शेवर और शहज़ादा आज़म जाह का निकाह 1932 में फ्रांस में हुआ और साथ ही दूसरी शहज़ादी नीलोफ़र का निकाह शहज़ादा मोअज़्ज़म जाह से हुआ, इस तरह तुर्की की शहज़ादियां हैदराबाद निज़ाम के घर बहू बनकर आई।
- उसामा इब्राहिम क़ासिमी