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- 14 वर्ष की उम्र में...
14 वर्ष की उम्र में तिरंगा फहराते हुए शहीद हुए थे सतीश झा
पटना। 11 अगस्त 1942 को पटना सचिवालय के नजदीक जो सात लोग शहीद हुए थे उन शहीदों में से एक थे सतीश झा। जिसने भी बिहार की राजधानी पटना में कदम रखा होगा, उसकी नजर सचिवालय के सामने गिरते-पड़ते , हाथों में तिरंगा लेकर आगे बढ़ते हुए सात नौजवानों की पत्थर की मूर्तियों से बने विशाल शहीद स्मारक पर जरूर पड़ी होगी। यह स्मारक भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास का जिंदा दस्तावेज है। इन सात प्रतिमाओं में से तीसरे नंबर वाली मूर्ति शहीद सतीश झा की है
शहीद सतीश का परिवार आज तंगहाली में है। परिवार के पास जीविका चलाने कोई साधन नहीं है। मगर इन शहीदों की बदौलत आज सत्तासीन होकर आजादी का मजा लेने वालों नेताओं को इससे कोई मतलब भी नहीं है। 11 अगस्त को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पटना के शहीद स्मारक पर फूल अर्पित किए। ये सातों नौजवान छात्र थे और हिम्मत के साथ पटना सचिवालय पर झंडा फहराने निकले थे।
उस वक्त पटना के जिलाधिकारी डब्ल्यू जी आर्थर थे। इन्हीं के आदेश पर इन सातों को पुलिस ने गोलियों से भून डाला था। इनमें उमाकांत प्रसाद सिंह, रामानंद सिंह, सतीश प्रसाद झा, जगपति कुमार, देवीपद चौधरी, राजेन्द्र सिंह और राम गोविंद सिंह थे। जिसका नेतृत्व देवीपद चौधरी ने किया था। इनकी उम्र केवल 14 साल थी। बाकी सातों भी कम उम्र के ही थे।तिरंगा झंडा फहराने की ललक में गोरी सरकार की पुलिस के डंडों से घायल छोटे भाई गोपी कांत झा को यूं ही छोड़ पुलिस घेरे को तोड़ते हुए सतीश झा आगे कतार में जाकर खड़े हो गए थे और देश पर कुर्बान हो गए। उस वक्त सतीश केवल 17 साल के थे। पटना कॉलेजिएट स्कूल के ग्याहरवीं कक्षा के इस छात्र ने हंसते-हंसते देश की खातिर सीने पर गोली खा ली। मगर देश की शान तिरंगा झंडे को गिरने नहीं दिया। इसी दिन से इनके ग़ांव खड़हरा के लोग इन्हें हमेशा याद करते हैं। आज भी ग्रामीणों से उनका घर पूछने पर बड़े फक्र से वो बोलते है " अमर शहीद का मकान उस तरफ सकरी गली में है।"
गांव में रहने वाले पुरुषोत्तम मिश्र बताते है कि शहीद के ग़ांव को सभी ने ठगा है। कोई सुविधा नहीं है। हरेक घर-जल-नल योजना धोखा है। पानी आपूर्ति के लिए दो टंकी बनी है। मगर एक बूंद पानी नहीं आता। पावर ग्रिड के लिए ग़ांव वालों की सौ बीघा उपजाऊ जमीन ले ली। मगर उचित मुआवजा के लिए संघर्ष अभी भी जारी है। मुफ्त बिजली का वायदा पूरा नहीं हुआ। शहीद के घर जाने पर उनके अपने भतीजे महेश्वरी झा उर्फ बबलू ने बताया कि वो बेरोजगारी और गरीबी भी किसी तरह अपनी जिंदगी बसर कर रहे हैं।
शहीद सतीश द्वार ग़ांव में प्रवेश करने के मुहाने पर सालों पहले बनाया गया था। एक कन्या उच्च विद्यालय ग़ांव में इनके नाम पर चल रहा है। स्वतंत्रता मिलने के बाद अगस्त क्रांति के सातों शहीदों की याद में सचिवालय भवन के पूर्वी द्वार पर बने शहीद स्मारक का उदघाटन करने 24 अक्तूबर 1956 को तत्कालीन राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद आए थे। उन्होंने इस मौके पर सातों शहीदों के माता-पिता को बुलाया था। सतीश के पिता जगदीश प्रसाद झा भी गए थे।
1942 में वे पटना साइंस कालेज में कैशियर की नौकरी में थे। राजेन्द्र बाबू ने उनसे पूछा था कि किसी तरह की सहायता चाहिए तो बताइए? मगर जगदीश जी ने कुछ नहीं मांगा। यहां तक कि उन्होंने पटना जाने-आने का किराया तक नहीं लिया। इसके पहले राज्य के मुख्यमंत्री डा. श्रीकृष्ण सिंह ने दस हजार रुपए और चार कट्ठा जमीन शहीद परिवार को देने की पेशकश की थी। लेकिन शहीद के पिता को देश सेवा के बदले में कुछ भी लेना मंजूर नहीं था। शायद ये समझते थे कि देश के लिए उनके बेटे ने बलिदान दिया है। शहीद के पिता का निधन 1968 में हुआ। इसके बाद परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर होती चली गई। घर चलाने के लिए उपजाऊ जमीन बेचनी पड़ी। अब तो जमीन भी नहीं है। यह उनके परिवार के लोग बताते है।
अमर शहीद सतीश की शहादत को करीब आठ दशक बीतने को हैं, लेकिन आज तक इनके परिवार को सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिल रही है। इनके परिवार में इनके भाई स्व. गोपी नाथ झा के छोटे पुत्र महेश्वरी झा ने बताया कि राष्ट्रीय पर्व हो या शहादत दिवस शहीद के स्मारक पर प्रशासन की ओर से माल्यापर्ण कार्यक्रम में स्वजनों को शामिल नहीं किया जाता है।
भागलपुर-हंसडीहा एनएच पर ढाकामोड़ चौक पर अमर शहीद सतीश के सम्मान में 1983 में तत्कालीन केंद्रीय ऊर्जा राज्य मंत्री चंद्रशेखर सिंह ने इनकी प्रतिमा का अनावरण किया था। मूर्ति की हालत भी अब काफी खराब है। गोलंबर की ग्रिल तक उखड़ी पड़ी है। इसके अलावा खड़हारा गांव में शहीद सतीश द्वार बनाया गया। यहीं एक बालिका प्रोजेक्ट स्कूल भी खोले गए हैं। इसके अलावा स्थानीय लोगों ने कई बार बाराहाट जंक्शन का नाम शहीद सतीश रखने की मांग की। पर इसको लेकर सरकार उदासीन बनी हुई है।
(कुमार कृष्णन)