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- गुमशुदा ब्राह्मण की...
उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव की चर्चा और गहमागहमी बड़े जोरों शोरों से शुरु हो गई है. वैसे तो उत्तर प्रदेश के साथ-साथ अन्य चार राज्यों में भी विधानसभा चुनाव होने हैं लेकिन चर्चा का विषय उत्तर प्रदेश ही बना हुआ है इसका कारण यह है कि केंद्र में सत्ता का रास्ता यूपी से होकर जाता है. जिसका यूपी में वर्चस्व होगा केंद्र में भी उसका प्रभाव जरूर होगा, इसलिए तमाम मीडिया चैनलों, राजनीतिक पार्टियों, रणनीतिकारों के बीच सबसे बड़ी चर्चा उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव हैं.
कमाल की बात यह है कि इस बार चुनाव में ब्राह्मण समाज को लेकर सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है. इससे पहले चुनावों में अक्सर मुसलमान चर्चा का विषय हुआ करते थे कि वे कहां जाएंगे, कहां नहीं जाएंगे, किसके साथ रहेंगे किसके खिलाफ रहेंगे सभी दल इसी गणित में व्यस्त रहा करते थे. लेकिन यह पहली बार हो रहा है जब ब्राह्मण समुदाय भी उसी तरह चर्चा का विषय बने हुए हैं. सही मायनों में ब्राह्मण समाज इसे अपनी अहमियत बता रहा है लेकिन जो समाज सदा दूसरों को राजनीतिक दशा और दिशा दिया करता करता था वह आज अपने दशा और दिशा तय नहीं कर पा रहा है. जिसकी वजह से राजनीतिक पार्टियां उनकी दिशाहीनता को मद्देनजर रखते हुए उन्हें तरह-तरह के प्रलोभन देने पर मजबूर हैं और उनका समर्थन हासिल करना चाहती हैं.
90 के दशक से पहले ब्राह्मण समुदाय खासतौर से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के साथ हुआ करता था लेकिन हिंदुत्व की लहर के चलते उन्होंने भारतीय जनता पार्टी का साथ देना स्वीकार किया. लेकिन भारतीय जनता पार्टी में उसे वह मुकाम हासिल नहीं हुआ जो मकाम उसे कांग्रेस में हासिल था. उत्तर प्रदेश में 27 साल तक सपा बसपा के रूप में दलित और पिछड़ों ने शासन किया, मुसलमान सपा बसपा का समर्थन करते रहे और सरकारें बनवाते रहे लेकिन ब्राह्मण भाजपा से चिपके रहे और धीरे-धीरे खुद राजनीतिक हाशिए पर पहुंच गए. आखिर सबसे बड़ा सवाल यह है कि वह ब्राह्मण कहां चला गया जो दूसरों को राजनीतिक रास्ता बताया करता था.
इसका जवाब जिला हरदोई के गांव मोल्हन के पूर्व प्रधान शिव कुमार मिश्रा कुछ इस तरह देते हैं कि जब तक ब्राह्मण ने कांग्रेस को पकड़े रखा तब तक उनके सम्मान में कोई कमी नहीं हुई लेकिन जब उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के सांप्रदायिक नीतियों का समर्थन किया और भाजपा में शामिल हो गए तब से ब्राह्मणों का भी पतन शुरू हो गया. पूर्व प्रधान शिव कुमार मिश्रा बताते हैं कि कांग्रेस ब्राह्मणों का अपना घर हुआ करता था लेकिन उन्होंने पता नहीं क्यों अपने घर को छोड़कर दूसरे घरों में किराएदारी स्वीकार कर ली. आज राजनीतिक दलों द्वारा ब्राह्मणों की चर्चा पर ब्राह्मण समाज फुले नहीं समा रहा है और वह सोच रहा है कि यह इसकी अहमियत है बल्कि राजनीति के जानकार इस चर्चा को उसकी राजनीतिक दिशाहीनता समझ रहे हैं.
उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण की जनसंख्या का प्रतिशत 13% बताया जाता है और हिंदू समुदाय की किसी भी जाति में यह सब ज्यादा प्रतिशत बैठता है, इससे ज्यादा सिर्फ मुस्लिम का प्रतिशत है. ब्राह्मण समाज की इस दिशाहीनता के पीछे जो सबसे बड़ा कारण रहा है वह यही है कि ब्राह्मण समाज ने भारतीय जनता पार्टी की सांप्रदायिक नीतियों का समर्थन किया और अपने उदारवादी हिंदू धर्म को आरएसएस के सांप्रदायिक हिंदुत्व के सामने पीठ के पीछे डाल दिया. इस वजह से ब्राह्मणों का जो प्रभाव दूसरे समाज और संप्रदायों पर हुआ करता था वह भी खत्म हो गया यहां तक की मुस्लिम समुदाय पर भी ब्राह्मणों का प्रभाव होता था लेकिन मुसलमान ब्राह्मणों की सांप्रदायिक नीति के चलते उनसे अलग हो गए 1989 के बाद उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य को जांच से पहले आजादी से लेकर 1989 तक कई बार ब्राह्मण मुख्यमंत्री बने हो किसी ब्राह्मण मुख्यमंत्री की चर्चा नहीं हुई इसके लिए खुद ब्राह्मण समाज जिम्मेदार है.
ब्राह्मण समाज के विचारक खुद उस ब्राह्मण को गुमशुदा मानकर तलाश कर रहे हैं जो देश में राजनीति का चाणक्य माना जाता था अब देखना यह है कि राजनीतिक दल गुमशुदा ब्राह्मण को तलाश कर पाते हैं या नहीं. ब्राह्मण समाज के लिए भी यह समय बहुत नाजुक समय है जब पिछड़ी जातियों और दलितों में समाज सुधार आंदोलन व्यापक स्तर पर चल रहे हों और पिछड़े व दलित अपनी कमजोरी का कारण ब्राह्मणों को मानते हों तो उस समय ब्राह्मण समाज को अपनी एकता बनाकर सही दिशा में बढ़ने की आवश्यकता है. ब्राह्मण समाज को यह समझ लेना चाहिए कि सांप्रदायिकता उसकी उदारवादी छवि को नुकसान पहुंचाती है और दूसरों के लिए उसे मार्गदर्शक बनने से रोकती है. इसलिए उसे अपनी उदारवादी छवि को बरकरार रखते हुए सांप्रदायिकता से लड़ना होगा और देश को सांप्रदायिकता के ज़हर से बचाना होगा.