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तो इस बड़ी वजह से कांग्रेस और पीके मिलते मिलते अलग हुए
शकील अख्तर
तो मुकाबला बराबरी का छूटा। न कांग्रेस हारी ने पीके जीते। कांग्रेस ने कहा आइए, संभालिए! पीके ने कहा नौ थैंक्यू वैरी मच !
दोनों के समझ में आ गया कि वे एक दूसरे के लिए नहीं बने हैं। कांग्रेस को ज्यादा अच्छी तरह कि इतनी बड़ी पार्टी किसी को ठेके पर नहीं दी जा सकती। और पीके को यह कि कांग्रेस किसी के चलाए चलने वाली पार्टी नहीं है। जैसी चलेगी अपने आप ही चलेगी।
कांग्रेस के यह कहने से कि हमने प्रशांत किशोर को पार्टी में आने का और एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप 2024 को हेड करने का आफर दिया था यह साबित हो गया कि कांग्रेस को उनकी जरूरत थी। नहीं होती तो सर्वोच्च स्तर पर इतने दिनों तक बातचीत, प्रजन्टेशन का सिलसिला नहीं चलता। कांग्रेस की हालत चाहे जितनी बुरी हो। मगर सोनिया गांधी, सोनिया गांधी हैं। उनसे मिलने के लिए अभी भी बड़े बड़े लोगों की रिक्वेस्ट हफ्तों पेंडिग पड़ी रहती है। तो जरूरत कांग्रेस को थी। मगर पीके से गलती यह हो गई कि उन्होंने समझा कि कांग्रेस बिल्कुल खत्म हो गई है और उसको संजीवनी वे ही सुंघाएंगे। इसी चक्कर में वे राहुल गांधी को साइड लाइन करने की बात करने लगे। उन्हें लगा कि कांग्रेस में सबसे ताकतवर राहुल गांधी ही हैं। अगर पार्टी में आना है और अपनी जगह बनाना है तो इन्हें हटाना होगा। यहीं वे धोखा खा गए। राहुल को कांग्रेस अध्यक्ष पद से अलग हटाने की बात करके। वहां कौन बैठ सकता है, किसको बिठाया जा सकता है यह बता कर।
राहुल आज चाहे खुद अध्यक्ष बनने से मना करें। लेकिन अगर कोई और यह बात करे तो कांग्रेस इसे अपनो तौहीन समझती है। राहुल आज भी उनके लिए सबसे मूल्यवान हैं। वे बने या न बनें। मगर कोई दूसरा कहे कि अध्यक्ष वे नहीं होना चाहिए तो कांग्रेस के लिए यह स्वीकार करने योग्य बात नहीं है।
पार्टी में यह सब मानते हैं कि राहुल ने अपनी तरफ से पार्टी को फिर से खड़ी करने की पूरी कोशिश की। यह अलग बात है कि इसका चुनावी नतीजों पर कोई असर नहीं पड़ा। मगर राहुल की कोशिशों में कोई कमी नहीं थी।
इससे आगे क्या होना चाहिए पार्टी में कोई जोश, जज्बा कैसे जगे इसके लिए कांग्रेस पीके से बात कर रही थी। मगर पीके राहुल को ही हटाकर कांग्रेस खड़ी करने की बात करने लगे। सोनिया से कहने लगे कि सब ठीक हो जाएगा। निशंक रहिए। आपको कुछ नहीं करना होगा। सब मेरी जिम्मेदारी। मैं करूंगा। इस आश्वासन में, भरोसे में अच्छे अच्छे आ जाते हैं। और आएं भी क्यों ना। बाकी लोगों से तो कुछ हो नहीं रहा। पुराने मुख्तार, मुनीम सब फेल हो चुके थे। नया बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन कोई नहीं सीखा था। पीके नए बिजनेस की भाषा में बात कर रहे थे। एमबीए वाले मैनेजरों की तरह आकर्षक स्टाइल में। मगर कांग्रेस कोई कंपनी नहीं थी। देश का सबसे पुराना राजनीतिक दल था। जो आजादी के आंदोलन के इतिहास की गौरवशाली विरासत लिए हुए था। यह अलग बात है कि वक्त ने उसकी बुलंद इमारत को जर्जर कर दिया। मगर उसक अंदर रहने वालों के स्वाभिमान को वक्त खत्म नहीं कर सका। डूबने में भी, हाथ पांव मारने में भी वह देख रही थी कि किसका सहारा लेना है किसका नहीं।
पीके के सहारे की बात आई। मगर पीके उससे आगे बढ़कर जब खुद को ही कर्णधार समझने लगे तो कांग्रेस के आत्मसम्मान को यह गवारा नहीं हुआ। लास्ट बात बिगड़ी तेलंगाना में जहां कांग्रेस का मुकाबला टीआरएस से है वहां उससे समझौता या ठेका लेने पर। कांग्रेस को अभी वहां चुनाव लड़ना है। टीआरएस के खिलाफ। और वहीं वह आदमी टीआरएस को चुनाव लड़ाए जो देश भर में उसे चुनाव लड़वाने वाला हो! पीके की ओवर स्मार्टनेस उन्हें महंगी पड़ गई। नहीं तो उन्हें जीवन का सबसे बड़ा मौका मिलने जा रहा था। कांग्रेस ने आज तक किसे खुद इस तरह सार्वजनिक रुप से पार्टी ज्वाइन करने का निमंत्रण दिया है? कांग्रेस ने आज तक इससे पहले कब इतना अधिकार सम्पन्न एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप बनाकर उसे हेड करने के लिए किस को आमंत्रित किया है? बहुत बड़ा सम्मान था। बहुत बड़ा मौका। मगर शायद पीके समझ नहीं सके। वे अपने बिजनेस मोड में अटके रह गए। इधर भी ले लूं। उधर भी ले लूं के लालच में।
कांग्रेस में एक स्थिति ऐसी आ गई थी कि बड़े बड़े नेता यह समझने लगे थे कि पीके अपरिहार्य हैं। एक एडमिनिस्ट्रेटर की तरह जिन्हें कांग्रेस पर बैठना ही है। वैसे तो एडमिनिस्ट्रेटर ( प्रशासक) सरकार बिठाती है। उन संस्थाओं में जहां कामकाज ठीक से नहीं हो पा रहा हो। मगर यह राजनीतिक दल है। डायरेक्ट तो नहीं बिठा सकते। बसपा में यह काम सतीश चन्द्र मिश्रा के जरिए किया था। यहां जी 23 के जरिए करने की कोशिश की गई। मगर वे उतने काबिल नहीं निकले। सफल नहीं हो पाए। कुछ दिए जाने वाले ओहदे, पुरस्कार भी क्लियर नहीं किए गए थे तो वे यहीं समझौते की कोशिशों में लग गए। और वहां से विश्वास खो दिया। कांग्रेस के उदयपुर में होने वाले चिंतन शिविर में चर्चा के लिए बनाई गई कमेटियों में कपिल सिब्ब्ल को छोड़कर बाकी सब जी 23 वाले एडजस्ट हो गए।
चिंतन शिविर में पीके की बड़ी भूमिका होने वाली थी। मगर उससे पहले ही तलाक के कागज पर दस्तखत हो गए। यह अच्छा हुआ कि दोनों की रजामंदी से। हालांकि गोदी मीडिया को बड़ा मुद्दा मिल गया। वह चिल्लाने लगा कि पीके ने कांग्रेस का प्रस्ताव ठुकराया। लेकिन सही है कि मीडिया को यह मौका कांग्रेस ने ही दिया।
यही उसका ढीला ढाला काम करने का तरीका है। पीके आ रहे हैं, पीके आए। पीके सब संभालेंगे। कांग्रेस अध्यक्ष परिवार का बनेगा या बाहर का यह भी वहीं बताएंगे। बाहर का होगा तो कौन होगा यह भी वह तय करेंगे। मतलब सर्वोसर्वा वे ही होंगे।
ये ही कांग्रेस है! देसी भाषा में कहते हैं कि ये तो ऐसे ही चालेगी! जो भी हो। मगर कांग्रेस को एक ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी और अभी भी है जो सबकी सुन सके। जो सबसे मिल सके। कभी कांग्रेस में वी जार्ज हुआ करते थे। सोनिया को राजनीति में लाने और 2004 तक सत्ता में लाने तक उनकी केन्द्रीय भूमिका थी। राजीव गांधी के बाद जब सोनिया किसी से मिलती नहीं थीं। जार्ज लोगों को सोनिया से मिलवाते थे। सोनिया को लोगों से मिलने के लिए प्रेरित करते थे। आज ऐसा कोई नेता या मैनेजर नहीं है जो सोनिया या राहुल से लोगों को मिलवा सकता हो।
पीके का जो समर्थन कांग्रेस नेता कर रहे थे वह इसी वजह से था। एक ऐसे व्यक्ति की तलाश जो कांग्रेस नेतृत्व और बाकी पार्टी के बीच कड़ी का काम कर सके।