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Stock Market: शेयर बाजार का एक किस्सा, जरूर पढ़ें यदि आप शेयर बाजार में निवेश करते है तो
Sachidanand Singh
अडानी समूह अभी करीब छः हजार करोड़ रुपये की इक्विटी उगाहने में लगा है. उसके ठीक पहले हिंडेनबर्ग ने अपनी रिसर्च रिपोर्ट प्रकाशित कर शेयर बाज़ार को हिला दिया. लोग इसमें भारत द्वेष भी देख रहे हैं. लेकिन ऎसी बातें होती रहती हैं.
धीरूभाई अम्बानी के साथ कभी ऐसा ही हुआ था. अभी रिलायंस इंडस्ट्री एक महाकाय तेल-गैस कम्पनी के रूप में जाना जाता है. लेकिन इसकी शुरुआत वस्त्र उद्योग से हुई थी. कह सकते हैं कि धीरूभाई ने पॉलीस्टर धागे के आयात से अपने धंधे की शुरुआत की.
आयात करते करते वे उसके उत्पादन की सोचने लगे. उन दिनों भारत में वाडिया परिवार पॉलीस्टर किंग माना जाता था. बॉम्बे डाईंग बस पॉलीस्टर कपडे नहीं बनाता था, वह पॉलीस्टर धागे और धागों का कच्चा माल (डीएमटी नाम का एक रसायन) भी बनाता था. धीरूभाई ने पॉलीस्टर बनाने के लिए एक दूसरा रास्ता चुना जिसमे धागों का कच्चा माल पीटीए नाम का रसायन था.
नस्ली वाडिया बस छब्बीस की उम्र में बॉम्बे डाईंग के प्रबंध निदेशक बने थे. दो तीन वर्षों के अंदर उन्हें धीरूभाई की प्रगति से अपनी कंपनी के वर्चस्व पर ख़तरा नजर आने लगा था. पर धीरूभाई के पास पूंजी नहीं थी, वहीँ मुहम्मद अली जिन्ना के नाती और सर नेस वडिआ के पोते नस्ली वडिआ का परिवार मुम्बई के सबसे पुराने धनिकों में एक था. जब धीरूभाई ने 1977 में शेयर बाजार से पहली बार पूंजी उगाही उस समय भी शायद ही कोई ऐसा सोच सकते थे कि कुछ ही दशकों में रिलायंस कहाँ पंहुच जाएगा.
पहली बार शेयर बाज़ार का खून चख लेने के बाद धीरूभाई ने 'पार्शियली कन्वर्टिबल डिबेंचर' के रास्ते से पूंजी उगाहना शुरु किया. इस तरीके में निवेशकों को उनकी पूंजी के बदले ऋणपत्र दिए जाते हैं - जो 'डिबेंचर' कहलाते हैं. उनके एक अंश पर, जो अवधि पूरी होने पर उन्हें नकद लौटा दिया जाएगा, निवेशकों को ब्याज मिलता है. दूसरे, कन्वर्टिबल अंश के बदले कंपनी अपने शेयर दे देती है.
इस रास्ते कंपनी के प्रवर्तक (यहाँ धीरूभाई) जितने पैसे उठाते हैं उसके मुकाबले कम शेयर देते हैं और इस तरह कम्पनी पर उनका नियंत्रण कमजोर नहीं पड़ता.
1982 में धीरूभाई अपनी कंपनी के पार्शियली कन्वर्टिबल डिबेंचर लेकर बाजार में आये. उनके शेयरों के दाम बाजार में बढे हुए थे. बाज़ार में अफवाह गर्म थी कि धीरूभाई ने अपने आदमियों के मार्फ़त शेयरों की खरीद-बिक्री कर उनके दाम बढ़ा दिए हैं जिससे अपने पार्शियली कन्वर्टिबल डिबेंचर में शेयरों को अधिक मूल्य पर 'कन्वर्ट' कर सकें जिससे मोटी राशि बिना ब्याज के उनके हाथ लगे.
इस अफ़वाह पर खेलते हुए, कुछ मंदोड़ियों ने (बेर, जो बाज़ार में मंदी लाकर पैसे कमाते हैं) रिलायंस के शेयरों को 'शार्ट' करना शुरु किया. शार्ट करने का अर्थ है वैसे शेयर को बेचना जो उनके पास न हों. यह इस उम्मीद में करते हैं कि जब बहुत लोग शार्ट करेंगे तब शेयरों के दाम गिरेंगे तब ये मंदी के खिलाड़ी गिरे दाम पर शेयर खरीद कर जिन्हे उन्होंने शार्ट किये थे उन्हें उन शेयरों को सौंप सकेंगे.
आज कल शेयरों की खरीद बिक्री का हिसाब जिस दिन खरीद बिक्री होती है उसके दो दिनों बाद होटा है. 1982 में यह दो सप्ताह बाद होता था. मंदीबाजों की उम्मीद थी कि इन दो हफ़्तों में शेयर गिर जाएंगे और वे चांदी काट सकेंगे. लेकिन धीरूभाई उस्तादों के उस्ताद निकले. उनके ब्रोकरों / निवेशकों ने मंदीबाजों से शेयर खरीदने शुरू किये और दो सप्ताह बाद अपने शेयर मांगे.
शेयर तो मंदीबाजों के पास थे नहीं. उन दिनों नियम था कि यदि मंदीबाज शेयर सौंपने में असमर्थ रहे तो उन्हें कुछ जुर्माना देना पड़ता था जिसे अंधा बदला कहते थे. अंधा बदला देने पर दो सप्ताह की और मोहलत मिलती थी. अंधा बदला कितना होगा इस पर खरीददारों की चलती थी, जो अपने शेयरों के बदले अंधा बदला मांग रहे हैं. धीरूभाई के समर्थित खरीददारों ने पचीस रूपये प्रति शेयर अंधा बदला माँगा जब शेयरों के दाम करीब 110 रूपये थे!
अब मंदीबाजों ने शेयर खरीदने शुरू किये. मांग बढ़ी तब रिलायंस के शेयरों के दाम बढ़ने लगे. बाज़ार में शेयर थे नहीं. और तब कहा जाता है कि धीरूभाई ने अपने कुछ शेयर उन्हें 200 के दर पर बेच कर इस पूरे प्रकरण से 1982 में चार हजार करोड़ कमा लिए!
यह भी कहा जाता है कि मंदीबाजों ने यह वाडिया की शह पर किया था जो पॉलीस्टर में धीरूभाई के बढ़ते क़दमों को लेकर चिंतित हो गए थे. इसके पहले धीरूभाई के खिलाफ इंडियन एक्सप्रेस के रामनाथ गोयनका और बॉम्बे डाईंग के नस्ली वाडिया ने मुहीम छेड़ रखी थी. एक रात नस्ली को दिल्ली में, नागरिकता के मामले में, गिरफ्तार भी किया गया था. (वे तब तक यू के के नागरिक होते थे.)
कल से इस प्रकरण की बहुत याद आ रही है.
लेखक