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धर्मसंसद की भाषा हिदुत्व नहीं, तो निन्दा से परहेज क्यों है भागवतजी?
प्रेम कुमार
हरिद्वार और रायपुर में में बीते वर्ष दिसंबर महीने में हुई धर्मसंसद में नफ़रत भरे भाषणों पर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की प्रतिक्रिया फरवरी के दूसरे हफ्ते में आखिरकार आ गयी। जहां मोहन भागवत ने 'अपमानजनक बयान' कहकर धर्मगुरुओं के बयानों को खारिज किया है, वहीं उन्होंने यह भी कहा है कि ये बयान हिंदू विचारधारा को परिभाषित नहीं करते। आखिर मोहन भागवत को यह बयान देने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या इसलिए कि तीन दिन बाद ही पश्चिमी यूपी में वोट डाले जाने हैं और उग्र हिन्दुत्व या नफरती बयान का उल्टा असर बीजेपी की सियासी सेहत पर पड़ने वाला है?
अगर मोहन भागवत के बयान को अगर पांच राज्यों और खासकर उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले नफरती बयानों के दुष्प्रभावों से बीजेपी को बचाने की कोशिश माना जाए तो सवाल यह है कि मोहन भागवत खुलकर धर्मसंसद के नफरती भाषण की निन्दा क्यों नहीं करते? क्यों नहीं वे ऐसे कथित धर्मगुरुओं की गिरफ्तारी की मांग कर रहे हैं?
डैमेज कंट्रोल कर रहे हैं भागवत?
अगर धर्मसंसद से उठीं नफरती सियासत का मकसद यूपी चुनाव को प्रभावित करना था, तो मतदान से ठीक पहले मोहन भागवत का उसी नफरती सियासत पर बयान भी सियासी नफा-नुकसान को देखकर है। खून ठंडा कर देने, शिमाल बना देने जैसे बयानों के बीच असदुद्दीन ओवैसी पर हमले जैसी घटनाओं के बावजूद यूपी में बीजेपी पर हार का खतरा मंडरा रहा है। ऐसा ही बाकी चार राज्यों में भी होता दिख रहा है। तो क्या मोहन भागवत का बयान डैमेज कंट्रोल है?
नागपुर में एक अखबार के स्वर्ण जयंती समारोह के अवसर पर आयोजित "हिंदू धर्म और राष्ट्रीय एकता" विषय पर बोलते हुए मोहन भागवत ने कहा, "संघ लोगों को बांटने में नहीं, बल्कि उनके बीच पैदा हुए मतभेदों को दूर करने में विश्वास करता है। इससे पैदा होने वाली एकता ज्यादा मजबूत होगी। यह कार्य हम हिंदुत्व के जरिए करना चाहते हैं।"
रायपुर की धर्मसंसद में कालीचरण महाराज के भाषण पर आपत्ति जताते हुए एक संत ने तो धर्मसंसद तक छोड़ दी थी। ऐसे में प्रश्न यह है कि धर्मगुरुओं के बयानों से जिस तरह समाज बंटा है उसे देखते हुए कभी मोहन भागवत ने या फिर आरएसएस ने उन मतभेदों को दूर करने की कोशिश क्यों नहीं की? पूरे ढाई महीने के दौरान धर्मसंसद में नफरती भाषण के विरोध में कोई टिप्पणी आरएसएस की नहीं आयी। न ही मतभेद दूर करने की कोई कोशिश ही दिखी।
धर्मसंसद की निन्दा क्यों नहीं कर पा रहे हैं संघ प्रमुख?
मोहन भागवत की यह बात बहुत मनमोहिनी लगती है कि व्यक्तिगत लाभ या दुश्मनी को देखते हुए गुस्से में कही गयी बात हिन्दुत्व नहीं हो सकती। फिर ऐसी बातें धर्मसंसद में कैसे बोली जा सकती हैं- इस पर मोहन भागवत पूरी तरह मौन हैं। मोहन भागवत इस बात पर भी मौन हैं कि धर्म संसद में कहा गया है कि धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र उठाना जरूरी है, कि किसी भी सूरत में मुस्लिम प्रधानमंत्री नहीं बनने देंगे, कि मुस्लिम आबादी भी बढ़ने नहीं देंगे। अगर ये बातें गलत हैं तो संघ प्रमुख को इसकी निन्दा करने के लिए सामने आना चाहिए था।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को धर्मसंसद में गाली दिए जाने पर भी मोहन भागवत ने मुंह नहीं खोली। निन्दा के एक शब्द नहीं कहे। यति नरसिंहानन्द ने बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में भारतीय संविधान और सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ आपत्तिजनक बयान दिया था। इस पर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना की कार्यवाही शुरू की गयी है। मगर, क्या मजाल कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की जुबां खुल जाती।
भारत को 'हिन्दू राष्ट्र' मानते हैं मोहन भागवत!
कार्यक्रम में संघ प्रमुख से पूछा गया कि क्या भारत हिंदू राष्ट्र बनने की राह पर है? जवाब में मोहन भागवत ने कहा,"भले ही कोई इसे स्वीकार करे या न करे, लेकिन यहां (हिंदू राष्ट्र) है। हमारे संविधान की प्रकृति हिंदुत्ववादी है। यह वैसी ही है जैसी कि देश की अखण्डता की भावना। राष्ट्रीय अखण्डता के लिए सामाजिक समानता जरूरी नहीं है।"
धर्मसंसद में भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की मांग की जा रही थी। इसके लिए हथियार उठाने के लिए उकसाया जा रहा था। मगर, मोहन भागवत तो धर्मसंसद से भी दो कदम आगे हैं। उनके मुताबिक भारत हिंदू राष्ट्र है। सबूत के तौर पर वे संविधान की प्रकृति को ही हिंदुत्ववादी बताते हैं। जहां धर्मसंसद ताकत के दम पर भारत को 'हिंदू राष्ट्र' बनाने की बात करती है वहीं मोहन भागवत यह बात थोपने की कोशिश करते दिखते हैं कि भारत हिंदू राष्ट्र है।