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ग्रेटा थनबर्ग के 'टूल किट' के मायने

suresh jangir
18 Feb 2021 2:33 AM GMT
ग्रेटा थनबर्ग के टूल किट के मायने
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ग्रेटा थनबर्ग के 'टूल किट' में भारतीय किसान आंदोलन के पक्ष में खड़े होने की अंतर्राष्ट्रीय अपील के अनेक विवरण हैं। उस पर ऐसी हायतौबा वस्तुतः किसान आंदोलन को कमज़ोर करने की कोशिश से इतर कुछ भी नहीं।

दिशा रवि की गिरफ़्तारी को लेकर उठने वाला लोगों का गुस्सा अभी शांत होने वाला नहीं। युवाओं की सामाजिक चेतने की धार को कुंद करने की जो अंतर्राष्ट्रीय घृणित कार्रवाई चल रही है वह न सिर्फ भविष्य की पीढ़ियों को पंगु बनाने की कोशिश है बल्कि दुनिया भर के देशों को नरक द्वार तक पहुँचाने का सुनियोजित षड्यंत्र भी है।

जलवायु में तेजी से होने वाले जानलेवा बदलाव को लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चिंता का होना स्वाभाविक था। इस कारण सन 2014 'यूनेस्को' ने 'सतत विकास हेतु शिक्षा' (ईएसडी) के तहत 'ग्लोबल एक्शन प्लान' की शुरुआत की। इस 'एक्शन प्लान' का उद्देश्य युवाओं को जलवायु परिवर्तन के उन खतरों के प्रति जागरूक करना था जिससे अंततः आने वाले दिनों में उनका ही जीवन नष्ट होने वाला है। 'संयुक्त राष्ट्र संघ' की 13 एजेंसियों के साथ मिलकर जिस गंभीरता से 'यूनेस्को' का यह अभियान 'लॉन्च' किया गया था, आने वाले दिनों में उसके नतीजे सारी दुनिया में देखने को मिले। 'क्लाइमेट चेंज इन द क्लास रूम' और 'कोर्स फॉर सेकेंडरी टीचर्स फॉर क्लाइमेट चेंज' जैसे अभियानों ने शिक्षकों और छात्रों-दोनों के ज़मीर को झकझोर कर रख दिया। अमेरिका, कनाडा और पूरे यूरोप के स्कूलों में 'शुक्रवार की हडताल' का नारा गूँज उठा। 'यूएनओ' के मुख्यालय के बाहर हज़ारों की तादाद में कॉलेज और स्कूलों के छात्र प्रत्येक शुक्रवार को जुटने लगे।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भारत में भी जलवायु परिवर्तन का सवाल स्कूलों और विश्वविद्यालयों के शैक्षिक पाठ्यक्रम का आवश्यक अंग बना। दुनिया के अलग-अलग देशों में हज़ारों की तादाद में जो युवा और बाल नेतृत्व उभरा उनमें स्वीडन की 17 वर्षीय ग्रेटा थनबर्ग से लेकर बेंगलुरु की 22 साल की दिशा रवि भी शामिल है जिसे आज भारतीय मीडिया में 'खलनायिका आतंकवादी' के रूप में पेश करने की कोशिश हो रही है। दुनिया भर में स्कूलों और कॉलेज परिसरों की चैतन्यता का बच्चों और युवाओं पर होने वाले असर और 'पर्यावरण एक्टिविस्ट' में उनके परिवर्तित हो जाने की हर जगह तारीफ होने लग गई। भारत की 8 साल की लिस्प्रिया कँगुजम और जैसे लाखों युवाओं और बच्चों के इतिहास नायक बन जाने की दास्ताँ के पीछे यही सच है।

किशोरों और युवाओं के बीच लगातार कई साल तक चले इन अभियानों का नतीजा यह हुआ कि बेशक 'समझदार' अभिवावक न ही समझे हों लेकिन 'अबोध' समझी जाने वाली यह पीढ़ी समझ गई की ज़हरीली हवा उनके भविष्य को किस प्रकार से नष्ट करने का षड्यंत्र रच रही है। जब उनके ज्ञान चक्षु खुले तो वे यह भी जान सके कि मौसम के ये बदलाव उनकी रोटी को विषाक्त तो करेंगे ही उसे इतना महनगा कर देंगे कि न तो उनके अभिभावक उसे खरीद पाएंगे और न आने वाले समय में तब, जबकि वे अभिभावक बनेंगे तो अपनी संतानों का पेट भर पाएंगे। यही वे क्षण थे जब उन्होंने किसानों को अपना स्वाभाविक 'दोस्त' माना और इस तरह सारी दुनिया के युवा किसान आंदोलनों के हमदर्द बन गए। शासकों को उनकी यही चेतना खल गयी।

इन्हीं युवाओं ने लेकिन अपने-अपने देशों में जलवायु परिवर्तन से होने वाली ज़हरीली हवा के लिए जब लड़ाई छेड़ी और इनके ज़िम्मेदार तत्वों (ज़ाहिर है जो उनके यहाँ का कॉरपोरेट संसार था) को चिन्हित किया तो इस लड़ाई में अपने हमसफ़र के रूप में देश के किसानों को पाया। इन बच्चों की इस चेतना के उदय होने से उन देशों के कॉरपोरेट समूहों और सरकारों की चिंताएं बढ़ गई। 'यूनेस्को' का 'एक्शन प्लान' कॉरपोरेट और सरकारों के लिए भयानक सिरदर्दी साबित होने लगा। इसके चलते 'अभियानों' की रोकथाम की कोशिशें शुरू हो गईं। इस रोकथाम की इब्तिदा अमेरिका और कनाडा सहित विकसित देशों में हुई। अब नंबर भारत का आया है।

विकसित देशों में लोकतान्त्रिक चेतना और आंदोलनों की मज़बूती के चलते युवाओं कुचला नहीं जा। भारत में लेकिन यह मुमकिन हो गया। बेंगलुरु की दिशा रवि की गिरफ़्तारी के पीछे की यही सच्चाई है। उसकी गिरफ़्तारी के समय दिल्ली हाई कोर्ट की सभी 'गाइड लाइनों' को भी धता बताई गयी।

अपने विरोध में होने वाली प्रत्येक कार्रवाई को 'विदेशी हाथ' बता देने के 1970 के दशक के क्रमवार सिलसिले की अंतिम परिणति 'आपातकाल' में हुई थी। लोग उसे अभी तक भूले नहीं हैं। किसान आंदोलन प्रारम्भ होने के साथ ही उसके प्रत्येक 'लिंक' को एन-केन प्रकारेण 'विदेशी षड्यंत्रों' से जोड़ने की सरकारी कोशिशें 1970 के दशक की पुनरावृत्ति की दिशा में बढ़ती प्रतीत होती हैं। भारत जैसे कम्प्यूटर के अल्प शिक्षित देश के समक्ष 'टूल किट' की भयावहता का राग छेड़ा जा रहा है। यह 'टूल किट' कोई एटम बम' नहीं, गूगल की 'डायरी' सरीका है जिसका उपयोग प्रत्येक कार्यक्रमों की तैयारी के ब्यौरों की 'आधुनिक डायरी' के रूप में किया जाता रहा है। यह कोई 'गुपचुप डायरी' भी नहीं बल्कि 'पब्लिक डोमेन' में रहने वाला डॉक्यूमेंट होता है जिसे कोई भी 'बांच' सकता है। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी के अमेरिका में होने वाले स्वागत समारोह 'हावडी मोदी' जैसे कार्यक्रमों की तैयारी भी 'टूल किट' की मदद से ही की गयी थी।

ग्रेटा थनबर्ग के 'टूल किट' में भारतीय किसान आंदोलन के पक्ष में खड़े होने की अंतर्राष्ट्रीय अपील के अनेक विवरण हैं। उस पर ऐसी हायतौबा वस्तुतः किसान आंदोलन को कमज़ोर करने की कोशिश से इतर कुछ भी नहीं।

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