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मंदिरों में VIP कल्चर को लेकर अक्सर उठते हैं प्रश्न: गर्भ गृह में जाने के लिए मानव देह और मानस की शुचिता से संबंधित कड़े है नियम
श्री काशी विश्वनाथ मंदिर प्रशासन के हवाले से एक खबर आई है कि मंदिर प्रशासन गर्भगृह में किसी भी समय दर्शन और स्पर्श की सुविधा देगा। इसके लिए पांच सौ से हजार रूपया शुल्क वसूला जाएगा। खबर में यह भी बताया गया कि मंदिर प्रशासन इसका ट्रायल भी कर चुका है, अब लागू करने की तैयारी है। यह खबर छपी तो सोशल मीडिया पर बहुत तगड़ी प्रतिक्रिया हुई। आनन फानन में मीडिया के सामने आकर वाराणसी के कमिश्नर कौशल राज शर्मा ने सफाई दी कि फिलहाल ऐसा कोई निर्णय नहीं लिया गया है। जब लिया जाएगा तो सूचित किया जाएगा।
इस विवाद से परे जाकर सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि भारतीय परंपरा में मन्दिर होते क्या हैं और मंदिर का गर्भगृह किसे कहते हैं। मन्दिर कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहां घूम आने से आपके जीवन में सबकुछ अपने आप ठीक होने लगेगा। न ही वह कोई ऐसा भवन है जहां गर्भगृह में रखी विग्रह मूर्ति तक पहुंचना ही आपका उद्देश्य हो। मंदिर अन्य साम्प्रदायिक भवनों की भांति सामूहिक प्रार्थना घर भी नहीं है।
मंदिर एक ऊर्जा केंद्र है, जहां व्यक्ति आधि - आत्मिक ऊर्जा प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर कई स्तर पर भिन्न प्रकार की ऊर्जा कार्य कर रही है। यह सामान्य भाषा में समझा पाना थोड़ा जटिल हो सकता है। अतः हम सामान्य अर्थ में इतना ही समझ लें कि प्रत्येक पदार्थ अपने सूक्ष्मतम् स्वरूप में ऊर्जा ही है, जो ब्रह्मांड की चुंबकीय ऊर्जा के प्रभाव में है। मन्दिर उसी ब्रह्माण्ड की दैवीय ऊर्जाओं को इकट्ठा कर विशिष्ट विधि से संग्रहित करने का स्थान है।
भारतीय भाषा में दैवीय ऊर्जा का तात्पर्य, देवता की ऊर्जा से है। यह दिव् धातु से बना है। दिव् का अर्थ प्रकाश के बंडल से है, जिसे आधुनिक साइंस फोटॉन नाम से पुकारता है। क्वांटम साइंस कहता है फोटॉन पैकेट्स में चलते हैं। आज जिसे साइंस फोटॉन एनर्जी कहता है उसी को शास्त्रीय दर्शन में अक्षय उर्जा कहा गया है। इसी अक्षय उर्जा को मंदिर के गर्भ गृह में स्थापित अर्चा विग्रह (मूर्ति) में मंत्र विज्ञान द्वारा स्थापित किया जाता है। ये ऊर्जा भिन्न प्रकार की हैं। इनकी फ्रीक्वेंसी भी अलग है। इसी कारण हमारे मंदिरों में भी विविधता है। हमें जैसी शक्ति को पुष्ट करना होता है उसके लिए उस ऊर्जा के रंग और उससे संबंधित कार्य को उनकी प्रतिमाओं में प्रदर्शित किया जाता है।
स्विट्जरलैंड में एक 'ब्ल्यू ब्रेन प्रोजेक्ट' हुआ। प्रयोग में, मानव मस्तिष्क को मापने और उसकी क्षमता को समझने का प्रयास किया गया। उसमें जो पता लगाया गया है वह बिल्कुल वही है जो हमारे देश में सदियों से से होता आ रहा है। ऐसे ही 'मानव मस्तिष्क में कॉक्लिआ की ऊर्जा संरचना है, वैसी ही हूबहू संरचना ब्रह्माण्ड में जब वैज्ञानिकों ने देखी तो वे इसे अद्भुत मान कर हतप्रभ रह गए।
ब्रह्माण्ड और मानव शरीर की संरचना में विभिन्न समानताओं पर आज स्टडी की जा रही है। भारतीय मनीषा ने हजारों वर्ष पूर्व ही 'यद् पिण्डे तद् ब्रह्मांडे' में इसका उद्घोष कर दिया था। भारत में मन्दिर जाने वाले भक्तों में असाधारण क्षमता देखी गई हैं। गणित के अद्भुत सूत्रों की प्रेरणा का श्रेय जब महान गणितज्ञ रामानुजन ने अपनी कुलदेवी को दिया तो पश्चिम के एकेडमिया ने उनकी पीएचडी उपाधि रोक दी थी। वे पूछते रहे कि सच बताओ। अंततः उनके साथ काम कर रहे ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज के प्रोफेसर जी. एच. हार्डी ने यह स्वयं ऑब्जर्व किया और माना कि अद्भुत रूप से रामानुजन के आँखें बंद करने पर उनके मस्तिष्क में ये सूत्र स्वतः उभर जाते हैं। जिसे वे तत्काल उठकर लिख देते हैं। जबकि इस बारे में उसके पहले चल रहे डिस्कसन में इसका अंदाजा भी नहीं लग पाता कि अचानक से कोई ऐसा सूत्र दिमाग में आ सकता है। या मस्तिष्क इस तरह के समाधान की दिशा में सोच रहा हो।
अंततः उन्हें उनके इस अद्वितीय योगदान के लिए उपाधि से सम्मानित किया गया। वास्तविक जीवन में ऐसे अनेकों उदाहरण देखे जा सकते हैं। जहाँ दैवीय शक्ति की अनुकंपा का अनुभव होता है। मन्दिर के आसपास बसाए गए शहरों की सभ्यता एक सांस्कृतिक वातावरण का सृजन और अनुपालन करते हैं, जिसमें सृष्टि के रहस्यों को जानने, समझने की विलक्षण क्षमता प्रकृति खुद दे देती है।
मंदिर विधान एक ऐसा ही विज्ञान है। जहाँ हमारे "आगम शास्त्र" की विधि अनुसार मन्दिर निर्माण किया जाता है। यह समझने में एक जटिल एनर्जी इन्जीनियरिंग है। किन्तु यह पत्थर और धातु में जागृत ऊर्जा को स्थिर रखने में सक्षम है। जहाँ शुचिता पवित्रता का विशेष ध्यान रखकर ही इसकी निरंतरता बना रखी जा सकती है। मन्दिर में आने वाले अनगिनत देहों के द्वारा भिन्न प्रकार की असंख्य ऊर्जाओं का शोधन करने में यह समर्थ तभी हो सकेगा जब वह निर्बाध रूप से निःसृत होता रहे।
यही कारण है कि मंदिर स्थापत्य का एक निश्चित स्वरूप है। जहाँ अन्दर एक गर्भगृह होता है जिसमें मुख्य देवता की मूर्ति स्थापित होती है।गर्भगृह के ऊपर ऊंचाई तक जाती हुई संरचना शिखर होती है।मन्दिर के गर्भगृह के चारों ओरपरिक्रमा के लिये अन्तराल होता है।इसके अलावा मंदिर में लोगों के बैठने के लिये मंडप होता है। इस स्थापत्य में मंदिर के नियम निहित हैं। गर्भ गृह में जाने के लिए मानव देह और मानस की शुचिता से संबंधित कड़े नियम हैं। साथ ही मंदिर की धारा का साधक ही मन्दिर गर्भ गृह में प्रवेश कर सकता है। यह उस धारा की ऊर्जा के साथ तारतम्यता का विषय है।
शैव मंदिर, वैष्णव मंदिर, मातृका मंदिर आदि मेंउस धारा के साधक पुजारी ही गर्भ गृह में प्रवेश करते हैंl जो उस साधनाओं मार्ग में सिद्ध होते हुए दैवीय ऊर्जा प्रवाह के सुचालक बने रहें। अन्य दूसरा व्यक्ति ऊर्जा का अवशोषक हो जाएगा। कई मंदिरों में यह भी देखा जा सकता है कि वे पूजा के समय गीले वस्त्र धारण किए रहते हैं। यह भी ऊर्जा के सुचारू रूप से चैनलाइज होने का विज्ञान है। सामान्य रूप से भी स्नान कर तुरंत ही पूजा करने का नियम है जिस समय शरीर में नमी बनी हुई रहती है। साथ ही महिलाओं को सोने चांदी के आभूषण से अलंकृत होकर मंदिर जाने का नियम है। यह भी हमारी ग्रंथियों के क्षेत्र में ऊर्जा अवशोषण में सहयोगी होता है।
(स्वर्ण और रजत धातु की विशेषता और लाभ का विश्लेषण पुनः कभी करेंगे।)
यह भारतीय साँस्कृतिक की वह आंतरिक शक्ति है जिसमें सृष्टि का विज्ञान सन्निहित है। आज वैश्विक साइंस से मांग की जा रही है कि वह जनकल्याणकारी बने। जबकि हमारी उन्नत संस्कृति का मूल ही सर्वे भवन्तु सुखिनः का है। और हम उसे भूल कर मन्दिर को भी भौतिकतावाद की छाया में ले जाने का उपाय जाने-अनजाने कर रहे हैं। विद्वानों ने एक अत्यंत गूढ़ विज्ञान को लोक संस्कृति को सौंप दिया गया। पर लोक ने क्या किया?
उसका सामान्यीकरण कर दिया और यह भी भूल गए कि कोई भी क्रिया या नियम के पीछे का विज्ञान क्या है? आधुनिक शब्दावली में कहें तो यह एक टेक्नोलॉजी है। यदि इसका ठीक से अनुपालन करेंगे तो ही लाभान्वित होंगे।
लेखक डॉ अभिलाषा द्विवेदी