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राष्ट्रवाद की जड़ों तक, मैडम भीकाजी रुस्तम कामा : पुण्यतिथि
2 दिन बाद हम सब अपना स्वतंत्रता दिवस मना रहे होंगे और इसके मद्देनजर हमारे शहीद और वीर भूमि के वीर रणबीर स्वर्ग लोक से इसे महसूस करेंगे। स्वाधीनता आंदोलन हो अथवा राष्ट्रवाद। भीकाजी रुस्तम कामा की भूमिका अग्रणी रही है।मैडम भीकाजी रुस्तम कामा पारसी समुदाय से संबंध रखती थीं। लगभग आधा जीवन विदेशों में निर्वासितों की तरह व्यतीत करने के बावजूद वे कभी भी अपने धर्म या मान्यताओं को नहीं भूलीं। धर्म की मान्यताओं व सिद्धांतों का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव रहा।
आज भीकाजी कामा की पुण्यतिथि है आइए पढ़ते हैं उनसे जुड़ा एक किस्सा -
जब भीकाजी कामा का विवाह हुआ, उसके बाद..
भीकाजी का विवाह बंबई के ही धनी व प्रतिष्ठित पारसी परिवार में तय हुआ। प्रसिद्ध प्राच्यवेत्ता प्रोफेसर खुरशेदजी रुस्तम कामा उनके भावी श्वसुर थे। कामा अपने श्वसुर पर विशेष श्रद्धा रखती थीं और उनकी विद्वता के आगे नतमस्तक थीं। उनके मंगेतर का नाम था 'रुस्तम कामा'। एक सुशिक्षित, सुसंपन्न व सुदर्शन युवक, जो कि प्रख्यात परिवार का सुपुत्र था। भीकाजी के लिए ऐसा पति पाना सौभाग्य की बात थी,से वकील थे। कोई भी लड़की उनकी धर्मपत्नी बनकर स्वयं को धन्य मानती, क्योंकि उस समय महिलाओं की सोच का दायरा ही विवाह, संतान व गृहस्थी तक सीमित था। 3 अगस्त, 1885 को मैडम भीकाजी परिणय सूत्र में बँधीं। निःसंदेह यह उनके जीवन की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना थी, किंतु उसी वर्ष दिसंबर में इंडियन नेशनल कांग्रेस का पहला अधिवेशन भी उनके लिए कम महत्त्वपूर्ण नहीं था। नवविवाहिता कामा ने मानो इस वर्ष दो विपरीत राहें एक साथ चुन ली थीं। एक रास्ता, पतिगृह के कर्तव्यों से निभाते हुए गृहस्थ जीवन की ओर जाता था तो दूसरा रास्ता काँटों से भरे पथ की ओर जाता था। जहाँ गुमनामी, अकेलेपन, प्रताड़ना व अपमान के सिवा कुछ न था। भीकाजी ने कांग्रेस की काररवाई देखी व सुनी तथा जान लिया कि आनेवाले वर्षों में कांग्रेस न केवल भारत को आजादी दिलाने में हाथ बँटाएगी, बल्कि नारी मुक्ति के लिए भी प्रयत्नशील होगी। देश-सेवा का व्रत मैडम कामा के पति सार्वजनिक जीवन में कोई रुचि नहीं रखते थे। ब्रिटिश शासकों की 'कृपा' को ही सर्वस्व माननेवाले रुस्तमजी काफी अनुदार विचारों के स्वामी निकले। इस तरह शुरू से ही पति-पत्नी में वैचारिक मतभेद होने लगे। धीरे-धीरे यह मानसिक दूरी बढ़ती चली गई।
यद्यपि मैडम कामा मानती थीं कि उनका विवाह एक आदर्श युवक से हुआ था, पर साथ ही उनका यह भी कहना था कि अपने देशवासियों की सामाजिक व राजनीतिक दृष्टि से भी उनका गठबंधन हुआ था। उन्हें देश पुकार रहा था। वे कब तक देश की और अपने हृदय की पुकार को अनसुना करतीं। यदि चाहतीं तो वे पति के घर के ऐशो-आराम के बीच शान से रहतीं, महँगी पोशाकों व गहनों से सज-धजकर दावतों का हिस्सा बनतीं, किंतु उन्होंने तो देश-सेवा का व्रत ले लिया था और देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा रखनेवालों को और कुछ नहीं सुहाता। पति से कलह रुस्तमजी उन लोगों में से थे, जो भारत में अंग्रेजी राज के समर्थक थे। उनका मानना था कि ऐसा होना ही देश के हित में था। यद्यपि शुरुआत में उन्होंने अपनी पत्नी के समाज सुधार के कार्यों में सहयोग भी दिया था। मैडम कामा सामाजिक सुधार की एक पत्रिका निकालती थीं, जिसके संपादन में वे सहयोग देते थे। यहाँ तक तो ठीक था, किंतु घर की बहू समाज सेवा के लिए सड़कों व झोंपड़पट्टी तक पहुँच जाए, यह उन्हें गवारा न था। 1896 में बंबई में महामारी फैली। मैडम कामा अपने संपन्न परिवार की सुख-सुविधाएँ छोड़कर रोगियों की परिचर्या में जुट गईं। सफेद एप्रन पहने भीकाजी फ्लोरेंस नाइटिंगेल से कम नहीं दिखती थीं।
रुस्तमजी के परिवारजन यही सोचते रहे कि बहू बचपना कर रही है। शौक पूरा होगा तो अपने-आप सँभल जाएगी, पर भीकाजी तो पहले ही सँभल चुकी थीं। इधर ससुराल पक्ष अंग्रेजी सभ्यता व शासन का पोषक था तो उधर वे ब्रिटिश विरोधी काररवाइयों में जुटी थीं। पति को उनके इस सामाजिक व राजनीतिक जीवन से चिढ़ होने लगी थी। रुस्तमजी के मना करने के बावजूद वे प्लेग पीड़ितों की सेवा करती रहीं। उनका जीवट तो देखिए, उस समय प्लेग के टीके का भी आविष्कार नहीं हुआ था, पर वे अपनी जान पर खेलकर सेवा कार्यों में लगी रहीं। ससुराल व मायके पक्ष के लोगों के लिए यह बात किसी बड़े अपमान से कम नहीं थी कि उनकी बहू-बेटी सार्वजनिक अस्पतालों व निर्धन बस्तियों में मारी-मारी फिर रही थी। जिस मैडम कामा को बड़े-बड़े लोगों की दावतों में शामिल होकर प्रतिष्ठा का प्रतीक बनना था, जो रुस्तमजी के परिवार की शान थीं, उसे इस रूप में देखकर वे आपा खो बैठे और पति-पत्नी में प्रतिदिन कलह होने लगी।
संदर्भ :
पुस्तक - मैडम भीकाजी कामा
लेखिका - रचना भोला "यामिनी"