Top Stories

लोहिया को समझने की कोशिश( भाग 1)

Shiv Kumar Mishra
25 Oct 2021 12:05 PM IST
लोहिया को समझने की कोशिश( भाग 1)
x

कनक तिवारी

(1) बीसवीं सदी के भारत का इतिहास सबसे ज्यादा घटना प्रधान हुआ है। इसी सदी में नवोदय या नवजागरण काल परवान चढ़ा और इसी सदी ने स्वाधीन भारत को जन्म दिया। इसी सदी में निर्वाचित करीब तीन सौ प्रतिनिधियों द्वारा विदेशों, मुख्यतः यूरो-अमेरिकी देशोंं से प्रभावित सामूहिक लेखन के जरिए संविधान रचा गया। नए बौद्धिक आयामों के प्रतिमानों से लकदक संसद, योजना आयोग, हरित क्रांति, श्वेत क्रांति, चुनाव, आणविक ऊर्जा, विदेश नीति, औद्योगीकरण वगैरह के जरिए भारत धीरे धीरे इक्कीसवीं सदी में वैश्वीकरण के युग में ला ही दिया गया है। विवेकानन्द, तिलक, गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष बोस, सरदार पटेल, जिन्ना, मौलाना आज़ाद, जयप्रकाश नारायण, इंदिरा गांधी, राजेन्द्र प्रसाद और डाॅ. राममनोहर लोहिया जैसे शीर्ष स्वतंत्रता संग्राम के नेता भारत के भविष्य का जन-चरित्र लिखने की कोशिशें करते रहे हैं। इनमें विवेकानन्द और लोहिया ने समकालीन दुनिया की सबसे बड़ी ताकत अमेरिका और गांधी ने भारत के सत्ताधीश रहे इंग्लैंड से सीधी मुठभेड़ करते न केवल अपने सवालों के उत्तर खुद ढूंढ़े, बल्कि पश्चिमी नस्ल की शैतानियत का मुखौटा नोचकर फेंक दिया। लोहिया ने भी यूरो-अमेरिकी कई प्रजातांत्रिक देशों से जो उम्मीदें बांध रखी होंगी, वे गहरी निराशा में तब्दील हुईं।

(2) लोहिया की शख्सियत कई नेताओं से जुदा और उनके समानान्तर बहुआयामी रही है। तिलक, गांधी, नेहरू और मौलाना आजाद जैसे शीर्ष नेता भी बहुमुखी प्रतिभा के हैं। तिलक में पुरातन संस्कारों और आदर्शो के महिमामंडन के साथ ही उनके पुनर्मूल्यांकन का लगातार आग्रह है। गांधी को तिलक के बनिस्बत अतीत के युग-मूल्यों की अप्रासंगिकता पर भी विचार करने से परहेज नहीं है। उन्होंने अपने विचारों में इस्लाम तथा ईसाइयत के भी कई मूल्य अपनाए। नेहरू मोटे तौर पर आधुनिक पश्चिमी सभ्यता के नज़रिए से भी सरोकार रखते अपनी नायाब अतीत दृष्टि से नया भारत-बोध तराशने के शिल्पकार थे। ‌उम्र के लिहाज से लोहिया इन सबके कनिष्ठ रहने के बावजूद उनके प्रभामंडल से बार बार छिटककर मौलिक अवधारणाएं और रास्ते गढ़ते रहे। वे ज्यादातर अपनी बनाई समानान्तर वैचारिक पगडंडी पर 'एकला चलो' कहते चलते रहे। उस जनपथ पर अवाम चल नहीं पाया अन्यथा लोकतांत्रिक मंज़िल तक जा सकता था। लोहिया पर इतिहास ने भी अपनी नज़र संतुलित और आनुपातिक आधार पर नहीं डाली है। कई बौद्धिकों का उत्तर-गांधी युग में असाधारण प्रभाव अनदेखा हो गया है। उनकी इंद्रधनुषी शख्सियत का वस्तुपरक, तटस्थ और उर्वर आलोचनात्मक मूल्यांकन होना अब भी अधूरा है। उनमें लोहिया को समझने की जुगत करना बीसवीं सदी में इतिहास और देशज परंपराओं सहित अधुनातन पश्चिमी विचार को खंगालने के संयुक्त साहसिक उपक्रम का एडवेंचर हो सकता है।

(3) राममनोहर लोहिया ने जनक्रांतिधर्मी जीवन जिया, लेकिन शायद डाॅक्टरी लापरवाही के कारण सत्तावनवें वर्ष में अकाल मौत पाई। उनका संक्षिप्त जीवन इतिहास का धधकता दस्तावेज हुआ। गांधी तथा मार्क्स के चिंतन से दीक्षित क्रांतिकारियों जैसा ओजमय साहस, संस्कृति के आयामों की खोजी लेकिन बौद्धिक मौलिकता सहेजे लोहिया आज़ादी के लिए जद्दोजहद करते देश के अवाम के लिए सिद्धांतों और कर्म के अग्निमय नायक हुए। वे शोषितों के प्रवक्ता, अन्यायी, विदेशी तथा भारतीय हुकूमतशाही के विरोधी और गांधी की तरह निहायत मामूली और गरीब आदमी के प्रतिनिधि-प्रतीक हो गए। ‌ मौलिक अवधारणाएं लिए मुक्त मानव के मसीहा लोहिया अंतरराष्ट्रीय समस्याओं की बारीकियों और सांख्यिकी की शोधपूर्ण जानकारियों से लैस होकर सामाजिक-राजनीतिक मंच पर जीवन्त रहे। उनकी गैरमौजू़दगी में राजनीतिक चिंतन समाजविमुख और समाजवादी आंदोलन स्पंदनहीन हो गया दीखता है। स्वतंत्र होने जा रहे भारत में साधारण नागरिक का उदासीन अजनबीपन खत्म कर उसकी आत्मा को देश के अस्तित्व के साथ तादात्म्य करने की जोरदार कोशिश ने लोहिया को राजनीति में सबसे ज्यादा नई राहें तोड़ने मजबूर किया। उनका जीवन गूढ़ और गोपनीय बना दिए जाते सियासी मसलों को भी अवाम की बहस मुबाहिसे के चौपाल में डाल देने की लगातार कोशिशों का सबूत है। लोहिया के लिए राजनीति का खुला आसमान था। फिर भी संस्कृति, साहित्य, धर्म, दर्शन, इतिहास, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान अर्थात मनुष्य का बहुविध अस्तित्व ही उनके दायरे में था। ‌ ‌ प्रख्यात अंग्रेज दार्शनिक, लेखक, विधिवेत्ता बेकन की तरह लोहिया घोषणा करते थे-All Knowledge is my province यह कि पूरा ज्ञान लोक मेरी चिन्तन परिधि में है। मौलिक चिंतक होने के साथ साथ लोहिया ताजिन्दगी अतुलनीय लगन के साथ अपने आश्वस्त आदर्शो को साकार करने की दिशा में लगातार परेशानदिमाग भी रहे। आज़ाद हिन्दुस्तान में उनसे बड़ा सेनापति लगता जनसैनिक ढूंढ़ने से भी नहीं मिलता। उनके जाते जाते देश ने संघर्षधर्मी जनचेतना के सबसे जानदार सिपहसालार के रूप में उन्हें स्वीकारा भी।(जारी )।

लेखक छत्तीसगढ़ के जाने माने अधिवक्ता है

Next Story