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- यूपी : दलित लड़कियों की...
2017 की विधानसभा चुनाव रैलियों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो सवाल उठाया था, वह एक कदम और आगे बढ़कर आ खड़ा हुआ है-"यूपी में महिलाएं सुरक्षित क्यों नहीं हैं?" अपनी चिरपरिचित तालियां पीट-पीट कर तब मोदी जी पूछा करते थे। आज लोग जानना चाहते हैं कि यूपी में दलित लड़कियां सुरक्षित क्यों नहीं हैं? लोग ये भी जानना चाहते हैं कि यूपी में दलित लड़कियों के साथ होने वाली दरिंदगी के वक़्त पुलिस-प्रशासन दरिंदों के साथ क्यों खड़ा हो जाता है? लोग यह भी जानना तो जानना ही चाहेंगे कि दरिंदों को बचाने वाली पुलिस की हिमायत में क्यों हर बार योगी शासन अपनी समूची शक्ति-सामर्थ्य झोंक देता है?
हाथरस की दलित लड़की के साथ हुआ गैंग रेप और क्रूर हत्या की घटना से पूरा देश वाक़िफ़ है। इसके फ़ौरन बाद भदोई ज़िले में 14 साल की दलित लड़की के साथ गैंग रेप और आज़मगढ़ ज़िले में 8 साल की दलित लड़की के साथ रेप की घटना प्रकाश में आई थी। कुछ ही दिन बाद बलरामपुर ज़िले में 22 वर्षीय दलित छात्रा के साथ हुए गैंग रेप और गंभीर रूप से ज़ख़्मी करके हत्या कर दिए जाने का वाक़्या फिर सुर्ख़ियों में आया था।
उन्नाव में हुई हाल की घटना में 13 और 16 साल की 2 किशोरियां खेतों में मृत पाई गईं जबकि 17 साल की एक अन्य किशोरी अस्पताल में जीवन-मृत्यु के बीच झूल रही है। तीनों के पेट में ज़हर मिला है। यह ज़हर किसने दिया है इसकी तहक़ीक़ात करने की जगह पुलिस द्वारा मृत बेटियों के परिजनों को उठाकर ले जाना और हिरासत में रखना यह दर्शाता है कि हाथरस की तरह यहाँ भी पुलिस नहीं चाहती है कि अपनी बहन-बेटियों की जुदाई का नासूर लेकर भटकते अभिवावकगण मीडिया और विपक्षी राजनीतिक दल के नेताओं से टकरा जाएँ। भारतीय लोकतंत्र में लोकतान्त्रिक और मानवाधिकारों की मांगों का दमन कर देना तो बीते सालों में लोकप्रिय चलन का हिस्सा बन ही चुका था, बेटियों के लिए 'इंसाफ़ मांगने के गुनाह' को कुचलने का भी एक नया अमानवीय फैशन इन दिनों चालू हो गया है। यूपी और एमपी में इस फैशन को लेकर अव्वल आने की होड़ मची है।
यद्यपि पुलिस ने लड़कियों की मृत्यु के कारणों पर कोई अधिकृत बयान जारी नहीं किया है लेकिन मीडिया के एक हिस्से में हाथरस की तरह यहाँ भी 'ऑनर किलिंग' या 'आत्महत्या' की थ्योरी को प्रचारित-प्रसारित करवाया जा रहा है। हाल के सालों में मध्य यूपी लड़कियों के लिए काल का गाल बन चुका है। उन्नाव इस हिंसक पट्टी की 'राजधानी' है। बलात्कार और हत्या जैसे मामलों में होने वाली घटनाओं से समूचा अंचल थर्राया हुआ है। सवाल ये है कि बलात्कार या हत्या के लिए क्यों यूपी में दलित लड़कियों को चुन चुन कर निशाना बनाया जा रहा है? इसके लिए प्रदेश की बीते चार दशकों की दलित राजनीति के उभार और इससे विकसित हुए सामाजिक समीकरण को समझना आवश्यक है।
आपातकाल में लोकतान्त्रिक अधिकारों के हनन के साथ-साथ अनुसूचित जातियों के अधिकारों के लोक लुभावन कार्यक्रमों की उद्घोषणा भी श्रीमती गाँधी के मस्तिष्क की उपज थी। इन उद्घोषणाओं से दलितों का और कोई भला हुआ हो या नहीं, उनकी सामाजिक चेतना का ग्राफ बढ़ा था और उनके भीतर अपने सामाजिक दमन के विरुद्ध प्रतिरोध की भावना का जन्म हुआ था। आपातकाल की समाप्ति और जनता शासन काल तथा बाद के सालों में बेलछी (बिहार) से लेकर देहली और साढ़ूपुर (उप्र) में हुए हिंसक दलित नरसंहार प्रतिरोध के विरुद्ध होने वाली सवर्णों की जवाबी कार्रवाई थी। प्रकृति और समाज, दोनों का नियम है कि वहाँ इतिहास चक्र कभी उल्टा नहीं लौटता। प्रतिरोध को कुचले जाने से दलित चेतना का ह्रास नहीं हुआ बल्कि वह और भी उभार पर आयी।
यूपी इसलिए महत्वपूर्ण है कि यहीं 80 के दशक में दलित नेता कांसीराम ने अपनी गतिविधियों को विस्तार दिया। यही कारण है कि 80 का दशक उप्र में सांगठित दलित चेतना, 'डीएस 4' और 'बामसेफ' जैसे सामाजिक संगठनों के उभार का दशक था। कांसीराम ने अपनी सामाजिक राजनीति का काँटा कुछ इस तरह से फेंका कि उसके लपेटे में हिन्दू, मुस्लिम और क्रिश्चियन, तीनों के बीच व्याप्त दलितों का बड़ा हिस्सा उनके पक्ष में आ गया। 90 का दशक 'बहुजन समाज पार्टी' के विकास और पिछड़ों के साथ गठबंधन की उनकी रणनीतिक सफलता का दशक था जिसने उसे एक तरफ पिछड़े मुलायमसिंह यादव से यारी करके सरकार में शामिल होने की राह सुझाई तो दूसरी तरफ ठेठ सवर्ण भाजपा की गोद में बैठ कर सत्ता का चप्पू चलाने का अवसर भी प्रदान किया।
तमाम प्रकार के सवर्ण दमन के जुए के बीच दबे होने के बावजूद आज उत्तर भारत के दलितों में जैसी सामाजिक चेतना देखने को मिलती है, वैसी अन्य राज्यों में नहीं है। यही कारण सवर्णों के बीच उनके दमन और उत्पीड़न का सबब बनता है। बलात्कार और लड़कियों की हत्या इस सामाजिक प्रतिशोध का सबसे आसान औज़ार है।
योगी निजाम में 'ठाकुरशाही ज़िंदाबाद' की जैसी अनुगूंज हुई, वैसी इससे पहले कभी भी देखने में नहीं आयी। राजनीति में सामंतवादी मूल्यों के इस प्रकार होने वाले विकास के जैसे दुष्परिणाम समाज में परिलक्षित होने थे, हाथरस से लेकर उन्नाव तक उसी के बीज दिखाई पड़ते हैं।