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उत्तराखंड त्रासदी: कुदरती आपदा या राजनैतिक अथवा शासकीय लापरवाही?
चमोली, उत्तराखंड में घटित दुखद घटना में लोगों द्वारा जीवन गवाने पर हम अपना दुख और पीड़ा व्यक्त करते हैं। सुनने में आया है कि सैकड़ों लोग लापता हैं और कई लोग मारे गए हैं। हम इस बात से भी अवगत हैं कि बड़े पैमाने पर आई इस बाढ़ के पीछे के कारण के बारे में सरकार या किसी अन्य राज्य एजेंसी द्वारा कोई स्पष्ट बयान नहीं आया है। हालांकि, घटना के स्थान और संदर्भ को देखते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह हिमस्खलन या लैंड स्लाइड और/या किसी प्रकार के ग्लेशियर की झील के फटने की वजह से हो सकता है। प्राचीन काल से ही हिमालय कठिन और संवेदनशील कठोर भूगोल के लिए जाने जाते है। लेकिन हाल के दशकों में जलवायु संकट ने इस ख्सेत्रों को पारिस्थितिक और भौगोलिक रूप से और नाजुक और संवेदनशील किया है.
पहले तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि जलवायु परिवर्तन, चाहे अनियमित बारिश हो या बढती गर्मी के कारण बड़े बड़े ग्लेशियर का तेज़ी से पिघलना, ये कोई 'प्राकृतिक घटना' नहीं. ये संकट मानवनिर्मित है, समय के साथ बढ़ता जा रहा है और इसका सबसे बड़ा कारण भूमि, जल और जंगलों का तेजी से दोहन और वायुमंडल में कार्बन का उत्सर्जन, जिसे दुनिया भर में 'विकास' के नाम से जाना जाता है।। यह संकट दुनिया भर में और हमारे देश में सबसे गरीब समुदायों को प्रभावित कर रहा है, जो पहाड़ों और तटों जैसे सीमावर्ती क्षेत्रों में रह रहे हैं। पानी की कमी, बदलते कृषि स्वरुप और बाढ़ जैसी आपदाओं का सीधा बोझ किसानों, वन आश्रितों और शहरी गरीबों पर आता है।
आम लोगों को यह जानना ज़रूरी है कि वर्ष 2008 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्य योजना बनाई थी। इस योजना के तहत विभिन्न मिशनों पर 140 बिलियन डॉलर के करीब पिछले कुछ वर्षों में खर्च किए गए हैं। जलवायु परिवर्तन अनुसंधान से सम्बंधित हिमालयी राज्य की जलवायु कोशिकाओं को स्थापित करने के लिए हजारों करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं। इसके अलावा हिमालय क्षेत्र की कमजोरियों, झील निर्माण और ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड्स के बढ़ते जोखिमों पर पिछले दो दशकों में कई स्वतंत्र अध्ययन प्रकाशित हुए हैं। यह शर्म और सरासर लापरवाही का विषय है कि इन अध्ययनों के निष्कर्षों को आज तक नीति में परिवर्तित नहीं किया गया है।
यही वजह है कि बांध निर्माण का एजेंडा पूर्व से पश्चिम हिमालय में बिना किसी रूकावट के जारी है, जिसमें सै118000 मेगावाट क्षमता की बड़ी, मध्यम और छोटी जल विद्युत परियोजनाओं स्थापित हो रही है। हिमाचल में, जहाँ 10000 मेगावाट की परियोजनाएँ पहले से ही निर्मित हैं, ने भू उपयोग को बदल दिया है - जंगलों और खेतों को निगल लिया है, भूस्खलन की स्थिति पैदा की है, मिटटी का कटाव, और नदी के पारिस्थितिकी तंत्र को भारी पैमाने पर प्रभावित किया। राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार, हिमाचल के अधिकांश जलविद्युत परियोजनाएं, सक्रीय या जहाँ निर्माण कार्य चल रहा है, ऐसी जगहों पर बनाये गये जहाँ भूस्खलन और बाढ़ जैसे विभिन्न खतरों का डर बना रहता हैं। शिमला उच्च न्यायालय में प्रस्तुत अवय शुक्ला कमिटी की रिपोर्ट ने इस कारण से राज्य में नई जलविद्युत परियोजनाओं पर रोक लगाने का सुझाव 2011 में दिया था। लेकिन राज्य सरकार ने रिपोर्ट को पूरी तरह से नकार दिया।
हिमाचल में अभी तक आने वाली अधिकांश योजनाएं जलवायु की दृष्टि से कमजोर और पारिस्थितिक रूप से नाजुक क्षेत्रों में हैं | उच्च सतलुज घाटी में स्थित किन्नौर और स्पीति के हिमालयी क्षेत्र और चंद्रभागा जो चेनाब के नाम से भी जाना जाता है में स्थित लाहौल, यहाँ के जन जातीय समुदाय इन परियोजनाओं का जम कर विरोध कर रहे हैं । ये भूगर्भीय रूप से अस्थिर इलाक़े हैं जो भूकंप और हिमस्खलन की चपेट में आते हैं। भारत, नेपाल और भूटान में हिमालय की 273 जलविद्युत परियोजनाओं का विश्लेषण करने वाले जर्मनी के पोट्सडैम विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि उनमें से लगभग 25% परियोजनाओं में भूकंप से जन्मे भूस्खलन से गंभीर क्षति होने की संभावना है।
2013 की उत्तराखंड त्रासदी के बाद रवि चोपड़ा कमेटी और वैज्ञानिक आकलन ने केदारनाथ फ्लैश फ्लड के प्रभाव को बढ़ावा देने में जलविद्युत और अंधाधुन्द निर्माण की भूमिका को स्पष्ट किया। लेकिन हमने इससे कुछ नहीं सीखा। इसे 'एजेंडा' के रूप में संदर्भित करने का कारण अब तक स्पष्ट होना चाहिए। यह एक एजेंडा है क्योंकि कितने भी तरह के सबूत जो पर्यावरण और वन मंत्रालय, राज्य विभागों को, सीडब्ल्यूसी को, अदालतों को प्रस्तुत किए गये, उसके बावजूद भी, भारत सरकार या उत्तराखंड, हिमाचल, अरुणाचल, सिक्किम राज्यों कि सरकारों द्वारा जलविद्युत और मेगा-परियोजनाओं की नीतियों पर पुनर्विचार नही किया गया। पूर्ण रूप से हुआ वैज्ञानिक नियोजन का अभाव और घटिया प्रभाव मूल्यांकन अध्ययन, विशेषज्ञ मूल्यांकन समितियों द्वारा स्वीकृत किये गये, उन सदस्यों द्वारा जो स्पष्ट रूप से परियोजनाओं के समर्थन में हैं। एशियन डेवलपमेंट बैंक, जिसके द्वारा धौलीगंगा नदी में एनटीपीसी परियोजनाओं के विस्तार के लिए फण्ड दिया गया, ने तपोवन विस्नी गड की एक EIA रिपोर्ट को मंजूरी दी है जिसमें बाढ़ या ग्लेशिअल झीलों, हिमस्खलन के खतरे का एक भी उल्लेख नहीं है। इस प्रकार, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियां भी इस तरह की लापरवाही का हिस्सा हैं।
मंजूरी मिलने के बाद पर्यावरणीय नियमों का पालन न होना और सामाजिक जवाबदेही से जुड़े कानूनों का लागू न होना आम है। किसी भी तरह की सुरक्षा से जुडी निगरानी नहीं की जाती है, जिससे लगातार, प्रभावित गांवों के श्रमिकों और लोगों के जीवन डाव पर रहते हैं। निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में लोकतांत्रिक रूप से लोगों कि भागीदारी के लिए कम होती जगह ने पिछले कुछ वर्षों में स्थिति को और खराब कर दिया है। EIA 2020 के साथ MoEF&CC और सरकार लोगों की भागीदारी को और खत्म करने की ओर बढ़ रही है। चिंता की बात यह है कि केंद्र सरकार ने बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं से जुड़े स्पष्ट खतरों के बावजूद, 2019 में, 25 मेगावाट से ऊपर की वर्गीकृत परियोजनाओं को 'नवीकरणीय' कहा है जिन्हें सब्सिडी का लाभ मिलेगा और इनसे उत्पादित बिजली अनिवार्य खरीद मानदंडों के अधीन होगी।
सरकार की कई स्तरों पर निष्क्रियता व बड़े बांधो पर नियमित जोर पर हम अपना सामूहिक क्रोध व्यक्त करते हैं| मुआवजा राशि जितनी भी दी जाए, ये प्रभावित लोगों द्वारा चुकाई गयी कीमत की भरपाई नहीं कर सकती | 'प्राकृतिक आपदा' और 'भगवान की करनी' जैसे शब्दों के पीछे छिपने से लोगों को धोखा नहीं दिया जा सकता है। सरकार की गैर-जवाबदेईऔर सभी संस्थानों, एजेंसियों और राजनीतिक प्रतिनिधियों की मंशा पूर्ण खुलासा सभी के समक्ष हो चुका है।
हर्ताक्षर्कर्ता:
जिला वन अधिकार समिति, किन्नौर, हिमालय निति अभियान; हिमालयन स्टूडेंट्स एन्सेम्बल, हिमालय बचाओ समिति, हिमलोक जाग्रति मंच, हिमधरा पर्यावरण समूह, नागरिक अधिकार मंच, काँगड़ा, हिमालय में सामाजिक आर्थिक समानता के लिए जन अभियान, सेव लाहौल स्पिति, स्पीती सिविल सोसायटी, सूत्र हिमाचल, सिरमौर वन अधिकार मंच, टावर लाइन शोषित जागरूकता मंच, हिमाचल प्रदेश