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नज़र झुका के चलो, जाग्रत हिंदू से बच-बचा के चलो!
(व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा)
हिंदुस्तान वालो, अब तो मान लो। बेचारे आडवाणी जी तो कब से कह रहे थे कि असली सेकुलर तो उनके संघ परिवार वाले ही हैं। बाकी सब तो नकली पंथनिरपेक्ष यानी स्यूडो सेकुलर हैं। बाबरी मस्जिद को, जो बाबर की तो छोड़ो, मस्जिद तक नहीं थी, बल्कि ढांचा भर थी और वह भी विवादित, जब मंदिर वहीं बनाएंगे का रामलला से, संघ-बंधुओं का जो गैर-चुनावी प्रामिस था, उसे पूरा करने के लिए टुकड़ा-टुकड़ा कर के हटाया गया था, उसके बाद तो अडवाणी जी ने हजारों बार यह बात कही थी। और तो और पाकिस्तान में जिन्ना की मजार पर फूल चढ़ाकर उन्हें भी अपना जैसा असली सेकुलर बताने के बाद भी, बार-बार अडवाणी जी ने यही बात कही थी। हाय! आडवाणी जी भगवाइयों के ''मुख'' से ''आशीर्वाद-मंडल'' हो गए, पर तुमने उनकी बात मानकर नहीं दी तो नहीं ही दी। पर अब तो जाग्रत हिंदुओं के भगवान नंबर तीन, भागवत जी ने भी कह दी है कि मुसलमान भी चाहें तो हिंदुस्तान में रह सकते हैं। बस जरा सी नजर नीची रखें, फिर तो चाहे घर वापसी किए बिना, मुसलमान बनकर भी हिंदुस्तान में रह सकते हैं! अब उनके असली सेकुलर होने का तुम्हें और क्या सबूत चाहिए, हिंदुस्तान वालो? बेचारे भगवाइयों की और कितनी परीक्षा लोगे! जाग्रत हिंदुओं धीरज की यूं परीक्षा पर परीक्षा और कब तक; अब तो अडवाणी युग खत्म होकर, अडानी युग भी आ गया!
पर पट्ठे छद्म सेकुलर वाले अब भी जाग्रत हिंदुओं के असली सेकुलर होने पर सवाल उठाने से बाज कहां आ रहे हैं? मुसलमानों को हिंदुस्तान में रहने देने के लिए भागवत जी का थैंक यू करना तो दूर, उल्टे उन्हीं से पूछ रहे हैं कि आप होते कौन हैं, हिंदुस्तान में कौन रह सकता है, कौन नहीं रह सकता है, इसका फैसला करने वाले! ये हिंदुस्तान तो कम न ज्यादा, बराबर का यहां रहने वाले सभी का है, वगैरह, वगैरह। अब बताइए, भागवत जी ने हिंदुस्तान में कौन नहीं रह सकता है, इसकी बात कही है क्या? माना कि कभी-कभी भागवत जी के परिवार के गर्म मिजाज सदस्य, कभी किसी लेखक को, तो कभी किसी कलाकार को, कभी किसी पढ़े-लिखे को तो कभी राजनीतिक नेता-कार्यकर्ता को, पाकिस्तान और अब अफगानिस्तान भी जाने का रास्ता दिखा देते हैं, मगर सिर्फ निजी हैसियत से। वर्ना न कभी भागवत जी ने और न मोदी जी ने, आफीशियली किसी से भारत से जाने के लिए नहीं कहा है। फिर नहीं रहने का सवाल क्यों उठाया जा रहा है? हां! कैसे, किन शर्तों पर रह सकते हैं, यह दूसरी बात है!
फिर भागवत जी ने हिंदुस्तान में रहने के लिए ऐसी कोई शर्त भी कहां लगायी है। उन बेचारे ने सिर्फ इत्ती सी ही तो मांग की है: जरा नजर नीची रखो! इसमें इन छद्म सेकुलरों को प्रॉब्लम क्या है? नजर नीची रखना तो भारतीय संस्कृति की पहचान है। बड़ों के सामने, छोटों का नजर नीची रखना ही तो भारतीय सभ्यता की शान है। झूठी बराबरी के पश्चिमी चश्मे से हर चीज को देखने वाले, कभी इस बात को समझ ही नहीं सकते हैं कि यह किसी नाबराबरी वगैरह का नहीं, अपने से बड़े को आदर देने का मामला है। बच्चा, बड़े को; औरत, मर्द को; नीची जाति वाला, ऊपर वाली जाति वाले को; चेला, गुरु को; मजदूर, मालिक को; कर्जदार, महाजन को; छोटा बाबू, बड़े बाबू को; सिपाही, दरोगा को; प्रजा, राजा को; बिना मांगे आंखें झुकाकर आदर देता है। यही हमारी संस्कृति का आधार है, उसे जोड़े रखने वाला सीमेंट है। तभी तो, हमारे कुटुंब में दुनिया में सबसे ज्यादा जान है। इसीलिए तो, हमारा कुटुंब महान है और सबसे बड़ा भी। अपनी इसी सभ्यता के बल पर तो हम सारी दुनिया को कुटुंब मान पाते हैं। अब छोटे, बड़ों का सम्मान भी नहीं करेंगे, तब तो मियां-बीबी-बच्चों वाला कुटुंब तक चलना मुश्किल है, फिर वसुधैव कुटुम्बकम की तो बात ही क्या करना!
पर यहीं तो खुद को सेकुलर बताने वालों का छद्म एकदम साफ हो जाता है। ये इल्जाम तो भागवत जी वाले जाग्रत हिंदुओं पर लगाते हैं कि वे मुसलमानों, ईसाइयों, दलितों, आदिवासियों, औरतों वगैरह को राष्ट्रीय कुटुंब का हिस्सा नहीं मानते हैं, उनके साथ परायों जैसा बरताव करते हैं, पर खुद ही उन्हें राष्ट्र कुटुंब के लिए पराया बना रहे हैं। अब जब ये खुद ही कुटुंब की संस्कृति से बाहर रहेंगे, तो कुटुंब का हिस्सा कैसे बन पाएंगे। अब यह तो ये खुद को सेकुलर बताने वाले भी कहते हैं कि मुसलमानों वगैरह की तादाद छोटी है। तादाद ही क्यों, ये तो इसका भी ढोल पीटते हैं कि हिंदुस्तान में मुसलमानों की हालत तो, दलितों से भी बुरी है। मनमोहन सिंह ने तो एक बार इतना तक कह दिया था कि जिनकी हालत इतनी कमजोर है, राष्ट्र के संसाधनों पर सबसे पहले दावा उनका ही बनता है। दूसरे शब्दों में ये सब छोटे हैं, गिनती से ही नहीं, औकात से भी। अब छोटे हैं, तो छोटे की तरह रहना भी तो चाहिए--नजरें झुकाकर! वर्ना राष्ट्र कुटुम्ब का हिस्सा कैसे माने जाएंगे!
सच्ची बात यह है कि भागवत जी और उनके जाग्रत हिंदू ही हैं, जो मुसलमानों वगैरह को, राष्ट्र कुटुंब का हिस्सा बनाने की कोशिशों में लगे हैं। उन्हें राष्ट्र कुटुंब का पक्का और वफादार हिस्सा बनाना चाहते हैं। पर खुद को असली बताने वाले ये छद्म सेकुलर ही नाहक राष्ट्र-धर्म के इस यज्ञ में विघ्र कर रहे हैं। ये मुसलमानों वगैरह को यह कहकर गुमराह कर रहे हैं कि उन्हें किसी के सामने आंखें नीची करने की जरूरत नहीं है, खुद को किसी से छोटा-वोटा मानने की जरूरत नहीं है। तिलक के नारे को बिगाड़ कर प्रचारित कर रहे हैं कि बराबरी, हरेक भारतवासी का जन्मसिद्ध अधिकार है। यह डा. अम्बेडकर के संविधान की गारंटी है, वगैरह। लेकिन, ये मुसलमान वगैरह के हितैषियों के वेश में, उनके दुश्मन हैं। उन्हें राष्ट्र कुटुम्ब का हिस्सा बनाने की जगह, ये तो उनके राष्ट्रीय कुटुम्ब का हिस्सा बनने के रास्ते में दीवार खड़ी कर रहे हैं -- बराबरी की एकदम फालतू जिद की दीवार। दुहाई भारत जोड़ने की और काम कुटुंब तोडऩे के लिए दीवार खड़ी करने का! यह अलगाववादी प्रवृत्ति है। इसी अलगाववादी प्रवृत्ति से भागवत जी के संघ परिवार ब्रांड का जाग्रह हिंदू लड़ रहा है। और आज से नहीं, पूरे हजार साल से लड़ रहा है। और जरूरत हुई तो अगले हजार साल तक लड़ेगा। और कानून हो या तलवार या बुलडोजर या कुछ और, जो हथियार मिल गया, उसी से लड़ेगा। और चूंकि ये युद्ध है, युद्ध में तो सब कुछ जायज होता ही है। भागवत जी ने फाइनल ऑफर दे दिया है। याद रहे, यह ऑफर सावरकर-गोलवलकर के ऑफर से बहुत उदार है। अब यह ऑफर भी नामंजूर कर दिया तो फिर, हमले-वमले की शिकायत कोई मत करना। अब जाग्रत हिंदू तो राष्ट्र कुटुम्ब की रक्षा करने के लिए हर कीमत पर लड़ेगा। और युद्ध में उग्रता तो आती ही है। युद्ध में हिंसा भी होती ही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और 'लोकलहर' के संपादक हैं।)