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- यह वर्ष हमें स्वीकार...
कुछ लोग नए साल पर यह गीत गाकर कि "यह वर्ष हमें स्वीकार नहीं" पाश्चात्य-अनुकरण के प्रति अपने गहरे रंजो-गम व भारतीय संस्कृति से अपने खुले लगाव को एक साथ हवा दे रहें हैं। अगर वह ऐसा नहीं करते तो फेसबुक और व्हाट्सएप विश्वविद्यालय से प्रशिक्षण ले रहा एक बड़ा वर्ग उनके इस गहरे प्रेम और उससे भी गहरे पाश्चात्य-विरोध से अनजान ही रह जाता।
हालांकि यह प्रेम उस टाइप का प्रेम नहीं है, जैसा कि स्थापित प्रेम की अवधारणा में माना जाता है। उसमें 'हम तुम्हारे लिए, तुम हमारे लिए' वाला गाना गाया जाता है। पर इसमें थोड़ा अंतर है, इसमें गा भले ही लो, पर महसूस करना उतना जरूरी नहीं। इसमें प्रेम की तड़पन उतनी आवश्यक नहीं है जितनी विरोधी के प्रति दुत्कारीकरण की। इसमें भारतीय नववर्ष से आंतरिक लगाव चाहे न भी हो, पर अंग्रेजी साल से बेपनाह दिक्कत होनी जरूरी है।
इस कथित नए साल के मौखिक विरोध से पते की एक बात यह पता चली कि "यह वर्ष हमें स्वीकार नहीं" कविता दिनकर ने लिखी थी। कहने का मतलब यह कविता लिखकर असल में दिनकर ने ही अंग्रेजी नए साल के विरोध को हवा दी थी। यह अलग बात है कि दिनकर जी जीते-जी इस अभूतपूर्व रचना को लिख नहीं पाए। जरूर गालिब की तरह मरने के बाद ही लिखी होगी। गालिब के तो कई दीवान उनके मरने के बाद ही वजूद में आए। अब अगर फ़िर भी ग़ालिब और दिनकर स्वर्ग से इन्हें अपनी रचना मानने से इंकार करें तो करें। आखिर भक्तों की भावनात्मक श्रद्धांजलि भी तो कोई चीज होती है। अब जैसे अमिताभ बच्चन लाख कहते रहे कि "कोशिश करने वालों की हार नहीं होती" नाम की रचना हमारे पिताजी की नहीं है, यह सोहन लाल द्विवेदी जी की है, पर उससे क्या ?? क्या श्रद्धालु इत्ते भर से मान जाएंगे?? वह श्रद्धा ही क्या जो एक इंकार से बहक जाय! मना करना उनका फ़र्ज़ है और न मानना श्रद्धालुओं का।
इस मौलिक विरोध से एक और जानकारी उभर कर आई वह यह कि, प्रेम के लिए विरोध शाश्वत है। अगर आप शाश्वत प्रेम करना चाहते हैं तो विरोध की धूनी को लगातार प्रज्वलित रखिये। आखिर वह प्रेम ही कैसा जो निर्विरोध हो जाए। कृष्ण की गोपियों को भी उस बांसुरी से विरोध था जो कृष्ण के दिन-रात मुहँ लगी रहती थी। "या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी"। बस कमी यह रही कि वह विरोध कभी खुलकर आंदोलन के रूप में सामने नहीं आ पाया, बस आपसी जलन तक ही सीमित होकर रह गया।
हाँ तो बात "यह वर्ष हमें स्वीकार नहीं" की। अंग्रेजी नव वर्ष मनाने की बाध्यता न होने और मनचाहा वर्ष मनाने पर रोक न होने के बावजूद, अंग्रेजी वर्ष के प्रति गहरा रोष अपने आप में विशिष्ट है। किसी ने नव वर्ष मनाने के लिये चिरौरी भी नहीं की और साहब हैं कि बेताब हैं न मनाने को लेकर। इस विरोध को हमारा भी खुला समर्थन है।
भई इस अंग्रेजी साल में आख़िर है क्या खूबी? माना कि जन्मतिथि संवत के हिसाब से न बताकर अंग्रेजी सन के हिसाब से बताते हैं, माना कि परीक्षाएँ अंग्रेजी महीनों के हिसाब से लेते और देते हैं, माना कि वेतन भी इन्हीं महीनों के हिसाब से लेते-देते हैं, माना कि लोकतांत्रिक पर्व चुनाव भी अंग्रेजी कलेंडर के हिसाब से होने पर हमें कोई गुरेज़ नहीं और तो और यह भी माना कि हमारे पुरखे 'अयम निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम, उदार चरितानां तू वसुधैव कुटुम्बकम' का नारा दे गए हैं, पर उससे क्या?? क्या हम मात्र इसी से विरोध करने के अपने स्वाभाविक लोकतांत्रिक अधिकार को खो देंगे। वसुधैव कुटुम्बकम की भावना में बहकर हम अपने सांस्कृतिक प्रेम को यूँ ही बह जाने दें। सांस्कृतिक-प्रेम-प्रदर्शन के साल में एक-आध बार आने वाले मौकों को यूँ ही हाथ से जाने देना, क्या कोई अच्छी बात है भला!!
कोट-पेंट, टाई-साई, दवा-दारू,ऑपरेशन-वापरेशन व खान-पान के कुछ अंग्रेजी तरीकों को अपना लेने भर से क्या हमारे वैचारिक विरोध करने का अधिकार खत्म हो जाता है? और बात भी सही है। इस नए साल में ऐसे कौन से लाल लगे हैं जो हम मनाते घूमै। हमारे विरोध को तो फैज साहब ने हवा दे दी, हमें लग रहा उनको भी कोई पैदाइशी दिक्कत रही होंगी इन अंग्रेजों से। उन्होंने कहा भी है-
"ऐ नये साल बता तुझ में नयापन क्या है ,
हर तरफ़ खल्क ने क्यों शोर मचा रखा है ।
तू नया है तो दिखा, सुबह नयी शाम नयी
वर्ना इन आँखों ने देखे हैं, नये साल कई"
फैज साहब की बात में तो दम है।
बस यहीं से हमने भी इस मुए साल का विरोध करने की ठान ली।