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जब सुषमा ने कहा था, 'मुझे पता है कि आपको ये तस्वीरें सिर्फ मुझे अपमानित करने के लिए जेटली के कार्यालय से ही मिली हैं।'
भाजपा अपनी रणनीति की घोषणा करने जा रही थी। इसने पार्टी के भीतर गुटबाज़ी को भी हवा दी। सुषमा स्वराज सहित कुछ लोगों का एक छोटा समूह आडवाणी का साथ देने के लिए तैयार नज़र आ रहा था। गोवा बैठक में सुषमा ने सुझाव दिया कि आडवाणी जी की अनुपस्थिति के कारण मोदी को प्रचार अभियान समिति का अध्यक्ष बनाने संबंधी घोषणा को टाल दिया जाये। उनके इस सुझाव को अस्वीकार कर दिया गया। सुषमा स्वराज हमेशा ही मोदी को एक अधिकारवादी व्यक्ति के रूप में देखती थीं जबकि आडवाणी के साथ उनका विशेष लगाव था। वह यह भी जानती थीं कि उनके चिर-परिचित प्रतिद्वंदी जेटली मोदी के नज़दीकी हैं और वह इस बात से चिंतित रहती थीं कि ये दोनों उन्हें किनारे लगाने की योजना बनाते हैं। वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह ने, जो पहले ही पार्टी में अलग थलग हो गए थे, भी कार्यकारिणी से दूर रहने का फैसला किया था। लेकिन कुछ वरिष्ठ नेताओं के अलावा पार्टी का बहुमत पूरी तरह मोदी के साथ था।
नागपुर स्थित एक नेता इस दौरान आडवाणी और राजनाथ सिंह के निवास के बीच चक्कर लगाते रहे। बाद में उन्होंने मज़ाक में कहा, 'इस प्रक्रिया के दौरान मेरा कुछ किलो वजन तो कम ही हो गया था। मोदी ने भी आडवाणी से संपर्क किया और कहा कि वह हमेशा ही उनके 'मार्गदर्शक' रहे हैं। जेटली ने आडवाणी से दो घंटे की मुलाकात की और उनसे कहा कि वह आधुनिक भाजपा के निर्माता रहे हैं लेकिन अब एक असंतुष्ट नेता के रूप में उनकी छवि को नुकसान पहुंच रहा है। अड़तालीस घंटे के पारिवारिक कार्यक्रम जैसे इस राजनीतिक ड्रामे के बाद आडवाणी के पास अपना इस्तीफा वापस लेने के अलावा अधिक विकल्प नहीं बचे थे।
अतः सवाल उठता है कि 85 वर्षीय आडवाणी आखिर मोदी के रास्ते में बाधा क्यों डालना चाहते थे? आलोचकों की राय थी कि पार्टी का यह वयोवृद्ध नेता अपनी निजी महत्वाकांक्षा से प्रभावित था और विशेषकर उनका परिवार चाहता था कि वह प्रधानमंत्री पद के दावेदार बने रहें।
भाजपा के एक टीकाकार के अनुसार, 'आडवाणी अभी तक 2009 की निराशा से उबर नहीं पाए थे और वह यह स्वीकार करने के लिए तैयार स्वराज की तस्वीरें समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई थी। इस संबंध में सुषमा ने हमसे कहा, 'मुझे पता है कि आपको ये तस्वीरें सिर्फ मुझे अपमानित करने के लिए जेटली के कार्यालय से ही मिली हैं।'
सुषमा- -जेटली के बीच चल रहे शीत युद्ध को साझा स्थान में सहोदर की प्रतिद्वंद्विता' कहना अधिक उचित होगा। स्वराज ने तो एक बार मुझसे कहा भी कि, 'अरे तुम तो अरुण के दोस्त हो, तुम उनके साथ टहलने जाते हो, तुम तो सिर्फे उन्हें ही आगे दिखाओगे।'
हां, जेटली लोदी गार्डन जाने से पहले दिल्ली के सीरी फोर्ट पार्क में हमारे 'मध्यवय' वाकिंग क्लब का हिस्सा थे, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं, कि उन्हें टहलने जितना ही बातें करना भी पसंद हैं। बातूनी और मिलनसार जेटली के पास राजनीति से लेकर क्रिकेट और सामान्य सी गपशप तक की मजेदार कहानियों का भंडार है और वह आपको एक
दिन में एक से अधिक नाना प्रकार की कहानियां बता सकते हैं। प्रतिभासंपन्न वकील की तरह ही शानदार मेज़बान भी हैं और अच्छा खाने के शौकीन है। उनकी पार्टियां बड़े दिल वाले पंजाबी आतिथ्य का उदाहरण हैं। हो सकता है कि बहुत अधिक कोलेस्ट्राल होने के कारण मोती महल का बर्रा कबाब उनके फिजीशियन को भाए नहीं। मुझे नहीं लगता कि मैं किसी दूसरे ऐसे राजनीतिक से मिला जिसके राजनीति मित्रों से इतर भी दोस्तों का इतना बड़ा दायरा हो, हालांकि सत्ता के गलियारे में जितने लोग उनके प्रशंसक हैं उतने ही उनसे डरते भी हैं। डरते इसलिए हैं क्योंकि कूटनीति में वह अपनी महत्वाकांक्षा कभी छुपाते नहीं हैं और साथ ही उनकी व्यवहार कुशलता और बहस में हिस्सा लेने के कौशल के कायल भी हैं। यही नहीं, वह पूरी तरह मीडिया के मित्र भी हैं। यदि समाचार पत्रों और चैनलों के बीट संवाददाताओं को अपने पसंदीदा राजनेता का चुनाव करना हो तो जेटली संभवतः सबसे आसानी से जीत जायेंगे।
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथसिंह भी हैं जो खुद को सभी दलों में अपने मित्रों में आमसहमति बनाने वाले व्यक्ति के रूप में देखते हैं। हिंदी पट्टी के ठाकुर के रूप में उन पर अक्सर अपनी जाति के वफादारों का पक्ष लेने और अपने प्रतिदवंदवियों को किनारे लगाने का आरोप लगता रहा है। उनके निजी ज्योतिशी ने संभवतः उनसे कहा था कि 2014 उनके लिए बहुत ही महत्वपूर्ण साल होगा।
लेकिन सारी ताकत के बावजूद दिल्ली स्थित नेतृत्व की तिकड़ी के पास न तो वास्तविक जनसमर्थन था और न ही वह चुनावों में विजय 'मोदी-मोदी' के नारे लगा रहे थे। एक राजनीतिक आयोजन ने शक्ति प्रदर्शन का स्थान ले लिया था। उसी दिन सुषमा स्वराज ने भी परिषद को संबोधित किया था। सुषमा का भाषण भी काफी प्रभावी था लेकिन उसमें एक महिला राजनीतिक की तरह हीसंप्रग सरकार को सत्ताच्युत करने की ज़रूरत पर जोर दिया गया था। उनके भाषण की भरपूर सराहना की गयी। लाल कृष्ण आडवाणी ने तो उनकी वाकपटुता और भाषण देने के कौशल को वाजपेयी सरीखा भी बताया। लेकिन समाचार चैनलों ने विज्ञापनों के लिए होने वाले ब्रेक के बगैर (जो बाद में अगले बारह महीने एक सिलसिला बन गया था) ही मोदी के भाषण का सीधा प्रसारण किया जबकि सुषमा स्वराज का भाषण सिर्फ बीच में दिखाया गया।
टेलीविज़न चैनलों के लिए टीआरपी के संघर्ष में मोदी विजेता थे। मोदी ने उसी दिन एक और जंग जीती थी। वह थी, पार्टी के चेहरे के रूप में भाजपा की अगली पीढ़ी में वाजपेयी-आडवाणी का उत्तराधिकारी कौन होगा। 2004 के चुनाव में वाजपेयी की पराजय के बाद से भाजपा के नेतृत्व का मुद्दा हल नहीं हुआ था। होता भी कैसे, आखिरकार, वाजपेयी और आडवाणी चार दशक तक भाजपा की राजनीति पर हावी रहे थे, ये दोनों एक दूसरे का भरपूर सम्मानकरते थे और उनमें प्रतिस्पर्धा भी रहती थी। इन नेताओं के उत्तराधिकारी को लेकरचल रहा सत्ता संघर्ष मे भाजपा 'हिंदू डिवाइडेड फेमिली' जैसी नज़र आने लगी थी।
लोक सभा में पार्टी की नेता सुषमा स्वराज दावेदारों में थीं। मांग में चमकता लाल सिंदूर और माथे पर बड़ी बिंदी लगाए स्वराज को देखकर ऐसा लगता था कि माना वह सास बहू के सेट से सीधे चली आई हैं। शानदार प्रचारक और प्रभावशाली वक्ता सुषमा को आडवाणी का समर्थन प्राप्त था जिन्होंने उन्हें तैयार किया था। इसके अलावा, विधिवेत्ता और रणनीतिकार जेटली थे, जो राज्य सभा में पार्टी के नेता थे। उनके मोदी के साथ बहुत अच्छे समीकरण थे क्योंकि उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री को न्यायपालिका में चल रही लड़ाई में उन्हें बेहद अच्छी कानूनी सलाह दी थीं। वह गुजरात से ही राज्य सभा के सदस्य बने थे।
स्वराज और जेटली एक दूसरे को पसंद नहीं करते थे और उनके 'कैंप' अक्सर एक दूसरे के खिलाफ़ बाहर आने वाली खबरों के लिए परस्पर आरोप प्रत्यारोप लगाते थे।
स्रोत - 2014 : चुनाव जिसने भारत को बदल दिया
लेखक - राजदीप सरदेसाई ( प्रसिद्ध वरिष्ठ पत्रकार )