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जब सुषमा स्वराज को महिला विरोधी घोषित किया गया था, क्या वाकई सुषमा महिला विरोधी थी? पढ़िए
जिस वक्त सुषमा स्वराज अपने पति स्वराज कौशल के साथ टेलीविजन के पर्दे पर यह बयान दे रही थीं कि उनका राष्ट्रीय स्वाभिमान यह गवारा नहीं करता कि वह एक विदेशी को माननीय प्रधानमंत्री कहें, उस समय राजनीति में छाया पुरुष वर्चस्व ठहाके लगा रहा था। संसद एक पर्णकुटी बना दी गई थी, जिसकी लक्ष्मणरेखा एक ऐसी स्त्री ने खींची थी जो अपने शासनकाल के दौरान प्रायः किन्हीं विवादों में नहीं देखी गई। आमतौर पर गरिमामय दिखी।
महिला आरक्षण बिल पर एक तर्क बार-बार सामने आया था कि सभी स्त्री सांसद अपनी-अपनी पार्टियों के निहित स्वार्थों से अलग हटकर एकसाथ मिलकर कार्य करें तो इसे पास किया जा सकता है। सुषमा स्वराज और सोनिया गांधी दोनों ने ही हमेशा स्त्री आरक्षण विधेयक का समर्थन किया है, लेकिन हुआ क्या? एक स्त्री जब सर्वोच्च पद पर आसीन होने हुई तो दूसरी स्त्री उसके विरोध में जा खड़ी हुई। स्त्रियों के सर्वोच्च पदों पर बैठने से 'स्त्रियों' का भाग्य बदल सकता है, इस तर्क को भी झुठला दिया गया। बात तू-तू, मैं-मैं जैसी होने लगी। पूरे देश के सामने सुषमा स्वराज की छवि एक ऐसे रूठे हुए बच्चे की हो गई जो इच्छा पूरी न होने पर तोड़-फोड़ मचा देता है। सबको भला-बुरा कहता है और अंत में फर्श पर लेटकर पैर पटकने लगता है। राजपाट न मिलने पर कैकेयी की तरह कोपभवन में चले जाना कहां तक ठीक है?
सुषमा यह भूल गईं कि एक स्त्री के खिलाफ अभियान चलाकर और उसे भला-बुरा कहकर न केवल वह अपना अपमान कर रही हैं, बल्कि पूरे स्त्री विमर्श को एक झटका दे रही हैं। जब बात यह है कि सारी दुनिया की स्त्रियों का दुःख और तकलीफ एक जैसी हैं, अनुपात का फर्क हो सकता है, तो क्या विदेशी और क्या स्वदेशी ? फिर एक विधवा स्त्री को मतदाताओं ने चुनकर भेजा है, वह उस देश की सबसे पुरानी पार्टी की नेता है, उस पर संदेह का अधिकार सुषमा जी और उनकी पार्टी को कैसे मिल गया?
मजेदारी देखिए कि संसद में जिन लोगों ने स्त्री आरक्षण विधेयक का घोर विरोध किया था, उन्होंने इस पुराने मुहावरे को दोहराने में जरा भी वक्त नहीं लगाया कि 'मोहे न नारि नारि के रूपा।' यदि दो औरतें लड़ रही हों तो उनकी लड़ाई को हवा देने में क्या बुराई है ? और कहा तो यही जाएगा कि देखो, सोनिया गांधी का विरोध पुरुषों ने उतना नहीं किया जितना कि एक स्त्री ने। आज जब पूरे विश्व में स्त्रियां इस बात को गलत साबित कर रही हैं कि एक स्त्री दूसरी स्त्री को देख नहीं सकती या पति जब पत्नी को पीटता है तो दूसरी स्त्री (सास) ही उसके हाथ में झाडू पकड़ाती है, तब सुषमा जैसी वरिष्ठ नेता का यह आचरण तो उन्हें कतई शोभा नहीं देता।
बहुत से लोग कह रहे हैं और कई अखबार भी लिख रहे हैं कि दरअसल यह कदम सुषमा स्वराज ने भाजपा में अपनी उपेक्षा से परेशान होकर उठाया है। चूंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पहले दिन से ही सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने का विरोध किया है, तो सुषमा स्वराज को लगा कि इस बहाने वह आरएसएस के विचार का नेतृत्व कर सकती है। बताया यह भी गया कि सुषमा स्वराज इस बात से काफी नाराज थीं कि भाजपा में उनके मुकाबले दूरदर्शन की बिंदी-सिंदूर मार्का बहू स्मृति मल्होत्रा ईरानी को अधिक महत्त्व दिया गया।
यदि वास्तविक रूप में स्वाभिमान और अपने मत पर दृढ़ रहने की बात हो तो रामाराव की विधवा लक्ष्मी पार्वती से सीखिए, जिन्होंने आठ साल तक रामाराव की अस्थियों को इसलिए प्रवाहित नहीं किया कि जिन नायडू ने उन्हें सरेआम अपमानित किया था, उन्हें द्रौपदी की तरह बाल पकड़कर खींचा गया था, जब तक वही नायडू चुनाव हारकर सत्ता से बाहर नहीं हो जाते तब तक वह अस्थियां नहीं बहाएंगी। वही नायडू भाजपा के बड़े दुलारे थे। उनसे कभी यह सवाल नहीं पूछा गया कि भाई, एक स्त्री को इस तरह बेइज्जत करने का अधिकार उन्हें किसने दिया?
और मजेदार बात यह है कि जब मौका आता है, तब स्त्रियों को आगे कर दिया जाता है। चाहे वह उमा भारती हों या सुषमा स्वराज। और अफसोस यह कि वे आसानी से तैयार भी हो जाती हैं। यही उमा भारती हैं जो सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर काला दिवस मनाने से लेकर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने तक की बात कर रही हैं, उन्हें इसी भाजपा में गोविंदाचार्य प्रकरण में कितनी बेइज्जती सहनी पड़ी थी। और तब पुरुषों के बनाए पवित्रता की नरक में गिरने और खुद को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने सिर मुंडवा लिया था। हिन्दुओं के ये प्रवक्ता क्या यह नहीं जानते कि सिर कब मुंडवाया जाता है? या तो परिजनों की मृत्यु पर या जब किसी विधवा को सम्पत्ति छीनकर घर से बाहर निकालना हो।
वृंदावन की हजारों विधवाएं इसका जीता-जागता प्रमाण हैं। उनकी दुर्दशा पर किसी को राष्ट्रीय स्वाभिमान और हिन्दुओं में स्त्री को देवी मानने वाली परंपरा याद नहीं आती। हां, यदि उनकी दुर्दशा पर कोई फिल्म बनाने लगे तो हिन्दू धर्म के सारे ठेकेदार लट्ठ से सबक सिखाने निकल पड़ते हैं। उमा भारती को चाहिए कि एक विधवा को प्रधानमंत्री बनने पर भला-बुरा कहने के मुकाबले, वृंदावन की विधवाओं के उद्धार के लिए कुछ करें। और सुषमा जी क्या सचमुच नहीं समझ सकीं कि पुराने जमाने में जब कोई सेना हार जाती थी तो शत्रु से बचने के लिए स्त्रियों और बच्चों को आगे कर दिया जाता था। उनकी स्थिति भी लगभग यही बना दी गई है। वे जानें या न जानें, इतिवृत्ति कुछ ऐसा ही कहता प्रतीत होता है।
1998 में जब भाजपा को दिल्ली में अपनी सत्ता जाती लगी थी, तब आनन-फानन में सुषमा स्वराज को एक महीने के लिए मुख्यमंत्री बना दिया गया था। तब भी एक स्त्री शीला दीक्षित के खिलाफ एक स्त्री सुषमा स्वराज को खड़ा कर दिया गया। और जब पार्टी सत्ता से बाहर हो गई तो किसी को अपने पांच साल के 'कर्म' याद नहीं रहे। बेशक सुषमा स्वराज ने दिल्ली का मुख्यमंत्री बन यह बयान दिया था कि वह रात भर जागेंगी, जिससे कि दिल्ली वाले चैन से सो सकें। लेकिन जब पार्टी चुनाव हार गई तो सारा ठीकरा उन्हीं के सिर फोड़ दिया गया। यही बात 1999 के लोकसभा चुनाव में हुई। इस चुनाव में भी यही बात साबित हुई। 'बहू बनाम बेटी' के चुनाव में वह चुनाव हार गईं। टीकाकारों ने इस लड़ाई को दो महिलाओं की लड़ाई कहा। और जब अब भाजपा के बड़े-बड़े सिपहसालार औंधेमुंह पड़े अपने हार के कारणों की तलाश कर रहे हैं, तब भी सुषमा स्वराज और उनकी सहोदरा उमा भारती को आगे कर दिया गया है। औरतों की कीमत पर बड़े नेता अपना चेहरा चमकाएंगे और जब बात नहीं बनेगी तो यही कहा जाएगा कि यह तो हमेशा से होता आया है कि एक औरत, दूसरी औरत को देख नहीं सकती। यह भाजपावादी स्त्री विमर्श की अपनी सीमा है।
जिस तरह की बयानबाजी हो रही है, उसमें कुल मिलाकर भाजपा की छवि 'खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे' वाली पार्टी की बन रही है। आखिर हार के बाद रोना कैसा? अटल जी ने कहा भी है कि हार-जीत जिंदगी में चलती रहती है।
बजाए उसके कि हार के कारणों पर गंभीरता से विचार किया जाए। कभी 'विदेशी मूल' और कभी 'राष्ट्रीय स्वाभिमान' का मुद्दा उठाया जा रहा है। यह तर्क भी बचकाना ही मालूम पड़ता है कि कांग्रेस ने पूरे चुनाव अभियान के दौरान 'सोनिया गांधी' को प्रधानमंत्री की हैसियत से पेश नहीं किया। पहली बात तो यह है कि अगर वे ऐसा करते तो आप क्या कर लेते?
दूसरी बात यह कि बेशक कांग्रेस ने ऐसा न किया हो, आप तो यह माने ही बैठे थे कि अगर कांग्रेस जीती तो अगली प्रधानमंत्री सोनिया गांधी ही होंगी। इसलिए भाजपा ने पूरे अभियान में विदेशी मूल के मुद्दे पर हमला बोलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। फिर भी यदि मतदाता ने आपकी नहीं सुनी तो फिर यह जोर-जबरदस्ती की राजनीति क्यों? यह रूठना-भटकना कैसा? फिर अकेली आप ही क्यों शहीद होना चाहती हैं? वक्त की जरूरत तो यह है कि अन्य स्त्रियों के साथ मिलकर स्त्री आरक्षण बिल की दो समर्थक सोनिया गांधी और सुषमा स्वराज को विधेयक को पास कराना चाहिए, न कि अपने पुरुष साथियों के हाथों में खेलना चाहिए। मार्क्स ने कहा है-'इतिहास अपने को दोहराता है, एक बार ट्रेजेडी के रूप में, दूसरी बार कॉमेडी के रूप में'। सुषमा स्वराज को ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए लोग उन पर हंसें। स्त्रियां उन पर यह आरोप लगाएं कि उन्होंने एक स्त्री को प्रधानमंत्री बनने पर रोड़े अटकाए और पुरुषों को मौका दिया कि वे 'औरत' होने और 'एक औरत दूसरी सिपहसालार औंधेमुंह पड़े अपने हार के कारणों की तलाश कर रहे हैं, तब भी सुषमा स्वराज और उनकी सहोदरा उमा भारती को आगे कर दिया गया है। औरतों की कीमत पर बड़े नेता अपना चेहरा चमकाएंगे और जब बात नहीं बनेगी तो यही कहा जाएगा कि यह तो हमेशा से होता आया है कि एक औरत, दूसरी औरत को देख नहीं सकती। यह भाजपावादी स्त्री विमर्श की अपनी सीमा है। जिस तरह की बयानबाजी हो रही है, उसमें कुल मिलाकर भाजपा की छवि 'खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे' वाली पार्टी की बन रही है। आखिर हार के बाद रोना कैसा? अटल जी ने कहा भी है कि हार-जीत जिंदगी में चलती रहती है। बजाए उसके कि हार के कारणों पर गंभीरता से विचार किया जाए। कभी 'विदेशी मूल' और कभी 'राष्ट्रीय स्वाभिमान' का मुद्दा उठाया जा रहा है।
अंत में इतना ही कहा जा सकता है कि कोई भी ईर्ष्या और बदले की भावना से बड़ा नहीं बनता। खेल भावना जनतंत्र का आधार है, उधर सोनिया को देखिए, राजीव गांधी की हत्या में शामिल नलिनी को फांसी न देने और माफ करने की अपील खुद सोनिया गांधी ने की थी। क्योंकि उसकी छह वर्षीय बच्ची की देखभाल करने वाला कोई नहीं था। और याद है, आतंकवादियों द्वारा मारे गए ललित माकन और उनकी पत्नी गीतांजलि माकन के शव, उन्हें चूमती छोटी बच्ची अवंतिका। वही अवंतिका अब बड़ी हो गई है। वह अपने पिता के हत्यारे से मिलने जेल में गई और उसे माफ कर दिया। बजरंग दल की भेंट चढ़े ग्राहम स्टेंस और उनके बेटों के हत्यारों को भी उनकी पत्नी ने माफ कर दिया था।
स्रोत - सोनिया गांधी : राजनीति की पवित्र गंगा
लेखक - क्षमा शर्मा ( वरिष्ठ पत्रकार)
(साभार : हिन्दुस्तान)