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जब हम पागल हो गए थे

सुजीत गुप्ता
31 Oct 2021 11:34 AM GMT
जब हम पागल हो गए थे
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(अजय शुक्ल)

31 अक्टूबर और 6 दिसंबर। दो ऐसी तारीखें हैं जब मेरे भीतर कुछ दरक-सा गया था। 1947 की हिंसा देखी नहीं थी। एक दशक बाद पैदा हुआ था। हां, किताबों में पढ़ी थी। मगर वह मेरे हृदय को बेधती नहीं थी। मन में ऐसा भी कुछ था कि गांधी की शहादत ने देश को निर्मल कर दिया है।

मगर 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद मैंने अपने शहर कानपुर में जो पगलाई हिंसा देखी, उसके बाद मन में बसे अनेकानेक गर्व चूर-चूर हो गए। शहर इस कदर पागल था कि मेरा एक दोस्त, जो बड़ा कवि भी था, सिक्खों को सबक सिखाना आवश्यक मान रहा था। शायद सब पागल हो गए थे। एक दारूबाज ने नशे की झोंक में एक दूसरे नशेबाज को सन 84 के अपने एडवेंचर्स जब सुनाए थे तो वहां मैं भी मौजूद था। सुनकर ऐसा लगा कि मानो मंटो का कोई पात्र खुद अपने कुकृत्य बता रहा हो। मुझे कहानी याद रह गई क्योंकि मेरे गिलास में कोल्ड्रिंक था।

लेकिन, यह वृतांत कभी नहीं लिखूंगा। फिलहाल सन 84 का ही एक दूसरा किस्सा सुनिए जिसे पुराने साथी पढ़ भी चुके हैं। इसे मैंने पिछले साल फेसबुक पर पोस्ट किया था। यह घटना भी सच्ची है। मैंने बस कथा का रूप दे दिया है।

तो, चलें 1984? तारीख 31 अक्टूबर। दिन मंगलवार। स्थान–मॉल रोड, कानपुर। समय–शाम साढ़े तीन बजे।

नून शो छूटने पर अप्सरा, सुंदर, रॉक्सी, रीगल और हीर पैलेस से फ़िल्म देखकर निकले दर्शकों के हुजूम में किसी को भी न पता था कि कानपुर नरसंहार की तैयारी में जुटा हुआ है। प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी को उनके सुरक्षा गार्ड मार चुके थे। मौत की सरकारी घोषणा अभी नहीं हुई थी लेकिन खबर सबके पास पहुंच चुकी थी। सतवंत और बेअंत के नाम तो अभी न खुले थे पर यह बात फैल चुकी थी कि क़त्ल 'सरदारों' ने किया है–इन्दिरा के बॉडीगार्डों ने।

शहर के बाजार दोपहर से ही बन्द होने शुरू हो गए थे। अच्छे बच्चे घर पहुंच चुके थे। बुरे बच्चे लाठी, हॉकी और सब्बल आदि लेकर सिक्खों को तलाश रहे थे। बुरे बच्चों के ये हुजूम मॉल रोड में भी घूम रहे थे। अचानक पांच-पांच सिनेमा हॉल छूटे तो इन लिंचरों के भाग्य जाग गए। विडम्बना यह कि इनके भावी शिकारों को भान तक नहीं कि उन्हें खोजा जा रहा था। भीड़ में कितने सिक्ख थे? यह चिंता आप न करें। यह भी न सोचें कि उनके साथ क्या हुआ।

यह एक आदमी की कहानी है, जिसका नाम...चलिए अमरीक रख लेते हैं।

छह फीट को छूता गोरी रंगत और भूरी आंखों वाला यह सिक्ख युवक जैसे ही हीर पैलेस से बाहर निकला तो सड़क पार रियो रेस्टोरेंट के बाहर लाठी-डंडों से लैस एक भीड़ नारेबाज़ी कर रही थी। उसने कान लगाए। नारा था: खून का बदला खून से लेंगे। "की होइया", अमरीक ने बराबर से चल रहे एक अन्य सिक्ख युवक से पूछा। "मैनू की पता" युवक इतना कहकर आगे बढ़ने लगा। तभी सामने से आ रही आवाज़ों ने उसे रोक दिया...अबे देख दो-दो सरदार। अमरीक के पांव भी ठिठक गए। उसने अपने और अन्य सिक्खों के लिए हमेशा सरदार जी का सम्बोधन सुना था। उसे अपमान महसूस हुआ। "क्या बात है भाई...क्या हुआ है?" उसने सड़क के उस पार खड़े हुजूम से तेज़ आवाज़ में पूछा। उसकी आवाज़ में डर कहीं न था। डरता तो तब जब उसे खबर पता होती। फिर वह अपने घर में था। कानपुर की पैदाइश थी। वहीं मॉल रोड स्थित एलपी इंटर कालेज से उसने 12वीं तक की पढ़ाई की थी। चप्पे-चप्पे से वाकिफ़ था।

तभी एक अद्धा ईंट उसके पैरों पर आकर लगी। वह पैर सहलाने लगा कि उसे "मार सरदार को" का हांका सुनाई दिया अमरीक ने आंख उठाकर देखा– भीड़ उसी की तरफ बढ़ रही थी। सहसा उसे महसूस हुआ कि वह अकेला है। उसने नज़र दौड़ाई। दर्शक तितर-बितर हो चुके थे। पास में दूसरा सिक्ख युवक ज़रूर खड़ा था। कांपता हुआ। अमरीक के अंदर शिकारी के सामने होने पर शिकार के अंदर उपजने वाला आदिम भय जग चुका था। ''भाग सरदारे भाग" वह चीखा और दौड़ पड़ा। वह नरोना एक्सचेंज के बगल से एलपी इंटर कॉलेज की तरफ भागा और दूसरा सिक्ख युवक घसियारी मंडी की तरफ। पर वह कैनाल रोड पहुंचने के पहले ही सड़क पर गिर गया। अमरीक ने भागते-भागते देखा: भीड़ युवक को लाठियों से पीट रही है।

उसका क्या होगा? अमरीक के पास यह चिंता करने का वक़्त नहीं था क्योंकि भीड़ का दूसरा टुकड़ा उसी की तरफ भागता आ रहा था। वह पूरी ताकत से दौड़ा लेकिन शिकारियों का फेंका गुल्ली-डंडे वाला डेढ़-दो फीट का डंडा उसके पांवों में इस तरह आ फंसा कि वह मुंहभरा गिरा।

अमरीक के पास अब ज़्यादा विकल्प नहीं थे। उस पर लाठी बजनी शुरू हो गई थी। उसने अपना आयतन कम कर लिया और खुद को गर्भस्थ शिशु की मुद्रा में सिकोड़ लिया। लातें रिबकेज के नीचे मारी जा रही थीं और लाठी सर पर। सर पर पगड़ी थी। "पहले इसकी पगड़ी नोच तभी तो सर फटेगा सरदार का" अमरीक ने सुना और अपनी 'पाग' ज़ोर से पकड़ ली। पर कोई फायदा नहीं। लिंचरों ने उसे कॉलर पकड़ कर खड़ा किया। कोई भारी चीज़ माथे पर दे मारी और कई हाथों ने मिलकर पगड़ी नोच दी। "अब दे लाठी इसके खोपड़े पर" अमरीक ने सुना। उसने आंखे बंद कर रखीं थीं। वह लड़ नहीं रह था। वह सिर्फ एक काम कर रहा था। वह वाहे गुरु का जाप कर रहा था। तभी उसके सर पर लाठी पड़ी। उसे लगा कि वह बेहोश हो जाएगा। लेकिन उसी क्षण उसके कानों ने जो सुना तो दिमाग़ को बेहोशी का कार्यक्रम पोस्टपोन करना पड़ा।

"ये लो, मैं चापड़ ले आया..अब लाठी रखो...बस एकइ झटका मा उद्धार.."

अमरीक ने आंखें खोल दीं। एक लिंचर ने चापड़ थाम रखा था। उसने अमरीक के बाल पकड़ लिए और एक अन्य आदमी ने पूरा जोर लगाकर गर्दन झुक दी। अमरीक के शरीर में मानो हाथी जितना बल आ गया और जैसे ही चापड़ चला उसने झटका देकर खुद को बचा लिया। चापड़ गर्दन की जगह केश पर पड़ा। अमरीक फिर भाग पड़ा।

एलपी इंटर कालेज में पढ़े अमरीक को वहां के सारे रास्ते मालूम थे। वह कॉलेज गेट से दाहिनी ओर मुड़कर रीगल के पिछवाड़े से होते हुए गल्ला गोदाम के पास रेल की पटरी को जा सकता था। या, फिर वह एबी विद्यालय की तरफ जा कर कैनाल रोड निकल सकता था।

न..न…न...! दिमाग़ ने रोका। एड्रेनलिन रश के कारण दिमाग़ शकुंतला देवी की तरह कैलकुलेट कर रहा था और टांगों में मिल्खा सिंह की तरह भाग रही थीं। हत्यारों की सांसें वह अपनी गर्दन पर महसूस कर रहा था।

न..न…न...! कॉलेज गेट 200 मीटर दूर है...,दिमाग़ ने कहा बाएं मुड़ और अमरीक मानो टेक-ऑफ कर गया। वह एबी विद्यालय से कैनाल रोड की ओर भागा। भागते भागते उसके जब वह सड़क से 50 मीटर दूर रह गया तो उसे एकदम रुक जाना पड़ा: सामने हत्यारों का दूसरा जत्था टहल रहा था!! दिमाग़ इमरजेंसी मोड में आ गया। आंखों ने चौथाई सेकेंड में दाएं-बाएं का नज़ारा लिया और पलक झपकते ही अमरीक वहां रखे कूड़े के डिब्बे में कूद गया। हत्यारे कूड़े के डिब्बे के बगल से भागते हुए कैनाल रोड पहुंच गए, जहां नए जत्थे से मिलकर वे नए शिकार तलाशने में जुट गए। अमरीक उनके दिमाग़ से हट चुका था।

अमरीक की जान बच गई थी। एड्रिनल ग्लैंड सुस्त हो चुकी थी। धड़कन और सांसें सामान्य हो रही थीं। उसने गर्दन का पसीना पोछा। पसीना गाढ़ा था। उसने हथेली देखी, उस पर खून लगा हुआ था। उसे अब दर्द का अहसास होने लगा था। वह शरीर की टूटफूट का मुआयना करने लगा। माथे पर घाव, पसलियों में इतना दर्द की चौथाई से ज़्यादा सांस खींचना मुश्किल। स्क्रोटम पर भी बहुत लातें पड़ी थीं। वहां का दर्द सिर्फ मर्द ही जानता है।

मौत के मुंह से निकलने के बाद अब उसे प्यास भी लग रही थी। पानी की तलब के साथ ही उसे अपने घर की याद आ गई...नन्ही बिटिया अमृतबानी, सुरजीत उसकी ज़नानी, माता-पिता और छोटा भाई...सब कितना परेशान होंगे। पर उसकी अपनी इतनी गम्भीर थी और मौत का भय इस क़दर तारी था परिवार पर कंसन्ट्रेट न कर सका। वह होश खोने लगा....।

आंख खुली तो अंधेरा हो चुका था। हवा में नवम्बर वाली खुनक थी। अमरीक को तरावट अच्छी लगी। वह हिम्मत कर कूड़े के डिब्बे से बाहर निकला और सशंकित कदमों से कैनाल रोड तक आ गया। सड़क सूनी थी। ट्रैफिक नदारद। कानपुर का सर्वव्यापी रिक्शा भी दूर-दूर तक नहीं। वह सोचने लगा...घंटाघर से चावला मार्केट के लिए टेम्पो तो मिल ही जाएगा! वह मॉल रोड की तरफ बढ़ चला। पर चाइनीज़ रेस्टोरेंट चुंग फ़ा से आगे रास्ता नहीं था। मॉल रोड पर लिंचरों का हुजूम मौजूद था।

अमरीक दो कदम पीछे की ओर चला और खड़ा हो गया। अब वह नहीं जानता था कि क्या करे। इधर-उधर देखने लगा। सहसा उसकी निगाह एक दरवाज़े पर पड़ी, जो शायद उसी के लिए खोल कर रखा गया था। दरवाज़े के बाहर नेमप्लेट लगी थी: चंदर मल्होत्रा। दरवाज़े के साथ ही सीढियां लगीं थीं, जो ऊपर की रिहाइश की तरफ जा रही थीं।

अमरीक बिना सोच-विचार के भीतर घुस गया। दरवाज़ा बन्द किया और सीढियां चढ़ने लगा। तभी भक्क से रोशनी हो गई। अमरीक ने देखा ऊपर एक युवती खड़ी है। "कौन हैं आप...वहीं रुक जाइए..." युवती ने कहा और हाथ के इशारे से रोकते हुए घर के भीतर मुंह कर के चिल्लाई, "चंदर, ज़रा आना तो देखो ये कौन हैं।"

वह रुक गया। युवती की आवाज़ मीठी थी। वह तू-तड़ाक की भाषा नहीं बोल रही थी। अमरीक का ढाढस बंधने लगा।

"क्या है..." यह कहते हुए 40-42 साल का एक आदमी सीढ़ियां उतर कर अमरीक के पास आ गया। उससे पूरी बात पूछी। वृतांत सुनकर वह बोला, "चलिए, ऊपर चलिए। फिर देखते हैं क्या करना है।" उसने अमरीक को अपनी बाहों का सहारा दे दिया।

"बैठिए" आदमी ने सोफे की ओर इशारा किया और पानी लाने चला गया। कमरे के दूसरे कोने पर वही युवती किसी से फ़ोन पर बात कर रही थी। अमरीक उसे एकटक देखने लगा। इस बीच वह आदमी पानी, चाय, बिस्किट ले आया। "लीजिए" उसने अमरीक से कहा। लेकिन वह युवती को ही देखता रहा। "नाश्ता कीजिए" आदमी ने इस बार तनिक रुखाई से कहा। अमरीक एक सांस में पानी पी गया और युवती से बोला, "मैं एक फ़ोन कर लूं। अपने घर। सब चिंता कर रहे होंगे!"

"बिलकुल" युवती फोन कर चुकी थी। उसने तार खींच कर रिसीवर दे दिया। अमरीक ने नम्बर डायल किया और बोलने लगा:

"हल्लो, अमरीक बोल रहा हूं। ठीक हूं। परेशान न होना। अभी घंटाघर से टेम्पो पकड़ के आता हूं... पर तू रुक क्यों जाती है...बोलती क्यों नहीं...''

"हमला करने आ रहे हैं..... तू बार बार तू रुक क्यों जाती है..क्या इंदिरा गांधी का क़त्ल हुआ है..?"

"बस पांच लोग हैं भीड़ में....ऐसा कर पहलवान को बुला ले जनार्दन पहलवान को, भगत है अपना.."

"क्या? मशाल लेकर सबसे आगे वही है–जनार्दन! तू, एक काम कर। तू दरवाजे पर बेड, सोफा, फ्रिज और जितनी भारी चीजें हैं–सब वहां लगा दे। मैं बेदी साहब को फोन लगाता हूं। और हां, तू और मा अपनी कृपाण हाथ में ले ले। अलमारी में दो लम्बी कृपाण हैं। एक छोटे को दे दे और एक पापा को।"

"कक्क्क्क क्या, रोशनदान से पेट्रोल और मिट्टी का तेल डालकर आग लगा दी..धुआं बहुत है...दरवाज़ा खोलकर बाहर निकलो और जब तक सांस है चलाओ कृपाण..."

अमरीक के हाथ से फ़ोन छूट गया। वह बेहोश हो चुका था। युवती ने रिसीवर कान में लगाया। कुछ देर तक वस्तुओं के आग में जलने की आवाज़ें आती रहीं। फिर फोन डिस्कनेक्ट हो गया।

सुजीत गुप्ता

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