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- सरदार भगत सिंह का केस...
अशोक कुमार पाण्डेय
भगत सिंह को 8 अप्रैल, 1929 को जिस असेम्बली बम काण्ड में गिरफ़्तार किया गया था उसमें यह बहुत स्पष्ट था कि वह न तो भागना चाहते थे न ही किसी की हत्या करना चाहते थे।
6 जून को जब यह केस अदालत में गया तो भगत सिंह ने किसी वकील की सहायता लेने से इंकार कर दिया और एक क़ानूनी सलाहकार की मदद ले अपना मुक़दमा ख़ुद लड़ने का फ़ैसला किया।
इसी केस में उनके साथ गिरफ़्तार बटुकेश्वर दत्त का मुक़दमा कांग्रेस के प्रसिद्ध राष्ट्रवादी वकील आसफ़ अली ने लड़ा था। हफ़्ते भर के अन्दर ही इस मुक़दमे का फ़ैसला आ गया और 14 जून को दोनों क्रांतिकारियों को आजीवन कारावास की सज़ा देकर भगत सिंह को मियांवाली और दत्त को लाहौर की जेल में भेज दिया गया।
लाहौर में सांडर्स हत्याकांड का मुक़दमा
इसी बीच भगत सिंह के दो साथियों, हंसराज बोहरा और जयगोपाल ने सांडर्स हत्याकांड में उनके ख़िलाफ़ गवाही दे दी तथा भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त, शिव वर्मा, अजोय घोष, जतिन दास, प्रेम दत्त आदि क्रांतिकारियों पर मुक़दमा शुरू हुआ।
जेल के भीतर भगत सिंह और उनके साथियों ने राजनैतिक क़ैदी के दर्जे और बेहतर सुविधाओं के लिए गांधीवादी तरीक़े से लम्बी भूख हड़तालें कीं। मोतीलाल नेहरू ने इन युवकों का समर्थन करते हुए कहा – "भूख-हड़ताल उन्होंने खुद के लिए नहीं की है—उसकी एक आम वजह है।"
अंग्रेज़ों द्वारा इस अनशन पर ध्यान न दिए जाने पर जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के कुछ अन्य सदस्यों के साथ जेल में भगत सिंह से मिले और बयान जारी किया :
इन नायकों की हालत देखकर मैं बहुत व्यथित हूँ। संघर्ष में उन्होंने अपना जीवन दाँव पर लगा दिया है। वे चाहते हैं कि राजनैतिक क़ैदियों के साथ राजनैतिक क़ैदियों की तरह ही व्यवहार किया जाए। मुझे पूरी आशा है कि उनके त्याग को सफलता का मुकुट ज़रूर मिलेगा।[iii]
मोहम्मद अली जिन्ना ने सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली में भगत सिंह का मुद्दा उठाते हुए कहा :
उन्हें भोजन और जीवन के मामले में यूरोपियों के लिए निर्धारित स्तर और पैमाने से नस्ली भेदभाव के आधार पर कमतर सुविधाएँ दी जा रही हैं।
उस दौर तक जिन्ना की आँखों पर साम्प्रदायिकता की ज़हरीली पट्टी नहीं चढ़ी थी।
63 दिनों की हड़ताल के बाद जतिन दास शहीद हुए। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने बंगाल के इस महान सपूत को कलकत्ता लाने की व्यवस्था की जिसने अपनी अंतिम इच्छा में कहा था – रूढ़िवादी तरीक़े से मेरा अंतिम संस्कार न किया जाए। बंगाल की दीवारों पर पोस्टर लगे – मेरा बेटा जतिन दास जैसा हो। पूरा देश शोक संतप्त था।
पंजाब के कांग्रेसी नेताओं गोपीचंद भार्गव और मोहम्मद आलम ने पंजाब लेजिस्लेटिव काउंसिल से इस्तीफ़ा दे दिया तो मोतीलाल नेहरू ने सेन्ट्रल असेम्बली में पंजाब सरकार की निंदा का प्रस्ताव रखा जो बहुमत से पास हुआ। बाक़ी सभी साथियों ने अनशन वापस ले लिया था लेकिन भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त अब भी अड़े हुए थे।
एक नेता की तरह भगत सिंह साथियों के कंधे पर बन्दूक रखकर चलाने की जगह क्रान्ति यज्ञ में अपनी आहुति देने को सदा तैयार रहते थे। अंतत: उनके पिता और कांग्रेस के सक्रिय सदस्य सरदार किशन सिंह कांग्रेस द्वारा पारित उनसे अनशन समाप्त करने का निवेदन पत्र लेकर आये। गांधी और कांग्रेस का सम्मान करते हुए भगत और बटुकेश्वर ने 116 दिनों के अनशन के बाद 5 अक्टूबर 1929 को भूख हड़ताल ख़त्म की।
लाहौर केस में भगत सिंह और उनके साथियों की पैरवी गोपीचंद भार्गव (कांग्रेसी नेता जिन्होंने जतिन दास के अनशन के बाद इस्तीफा दिया था और जो आगे चलकर पंजाब के मुख्यमंत्री भी बने), दुनी चंद, बरक़त अली, अमीनचंद मेहता, बिशननाथ, अमोलक राय कपूर, डब्ल्यू चन्द्र दत्त और पूरनचंद मेहता ने की थी।
लेकिन सरकार हर हाल में भगत सिंह को सज़ा देने के लिए मुतमइन थी तो सभी संवैधानिक मूल्यों का मज़ाक उड़ाते हुए इकतरफ़ा मुक़दमा चलाया। क्रांतिकारियों को हरओर से जनता की तारीफ़ मिल रही थी और सुभाष चन्द्र बोस, मोतीलाल नेहरू, रफ़ी अहमद किदवई तथा राजा कालाकांकर जैसे लोग उनसे मिलने आये।
जल्दी फ़ैसले के लिए अंतत: मुक़दमा जस्टिस शादीलाल की अदालत से लेकर एक ट्रिब्यूनल को सौंप दिया गया जिसे असीमित अधिकार दिए गए थे और जिसके फ़ैसले को ऊपर चुनौती नहीं दी जा सकती थी।
भगत सिंह ने इस अदालत को एक ढकोसला कहा और ट्रिब्यूनल द्वारा सरकारी ख़र्च पर वकील नियुक्त करने की मांग ठुकरा दी। क्रन्तिकारी अदालत में इंक़लाब ज़िदाबाद और साम्राज्यवाद मुर्दाबाद का नारा लगाते थे और मुकदमे की कार्यवाही में बाधा डालते थे। ट्रिब्यूनल में लगभग सारा मुक़दमा भगत सिंह और उनके साथियों की अनुपस्थिति में चला।
7 अक्टूबर 1930 को इस ट्रिब्यूनल ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को सज़ा ए मौत तथा किशोरीलाल, महावीर सिंह, विजय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा, गया प्रसाद, जयदेव और कमलनाथ तिवारी को कालापानी, कुंदनलाल को सात साल तथा प्रेम दत्त को पाँच साल की सज़ा मुक़र्रर की।
सावरकर, गोलवलकर, हेडगेवार, मुंजे सहित संघ या आर एस एस के किसी नेता ने न तो पूरे मुक़दमे के दौरान भगत सिंह और उनके साथियों के पक्ष में कोई बयान दिया, न ही उनकी शहादत के बाद कोई श्रद्धांजलि दी।