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हर बरस पहले से भी ज़्यादा शिद्दत से क्यों याद आते हैं शहीद भगतसिंह?

Desk Editor
28 Sept 2021 3:33 PM IST
हर बरस पहले से भी ज़्यादा शिद्दत से क्यों याद आते हैं शहीद भगतसिंह?
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- सत्यम वर्मा

भगतसिं‍ह के चिन्तन के वे कौन से अहम पहलू हैं जो आज के समय में भी हमारे लिए प्रासंगिक हैं, कई मायनों में पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक? बेशक, हम यह नहीं कहते कि हूबहू भगतसिंह के सुझाये क्रान्ति के रास्‍ते पर ही हमें चलना होगा। तबसे अब तक देश के उत्पादन-सम्बन्धों, सामाजिक-आर्थिक संरचना, राज्यसत्ता के चरित्र और कार्यप्रणाली और साम्राज्यवाद के चरित्र और काम करने के तरीकों में भारी बदलाव आये हैं। लेकिन भगतसिंह के चिन्तन के अनेक पक्ष आज की क्रान्ति के युवा हरावलों के लिए भी बेहद प्रासंगिक हैं। अगर इन्‍हें सूत्रवत बताना हो तो इस रूप में गिनाया जा सकता है:

1) भगतसिंह और उनके साथियों की निरन्तर विकासमान भौतिकवादी जीवनदृष्टि और द्वन्द्वात्मक विश्लेषण पद्धति

2) साम्राज्यवाद के विरुद्ध जारी विश्व-ऐतिहासिक युद्ध के प्रति उनका नज़रिया

3) राष्ट्रीय मुक्ति-युद्ध को साम्राज्यवादी विश्‍व-व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष का अंग मानने तथा समाजवादी क्रान्ति की पूर्ववर्ती मंज़िल मानने का उनका नज़रिया

4) कांग्रेस और गाँधी के वर्ग-चरित्र का द्वन्द्वात्मक मूल्यांकन और कांग्रेसी नेतृत्व वाली राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्यधारा की तार्किक परिणति का प्रतिभाशाली पूर्वानुमान

5) क्रान्तिकारी आतंकवाद के विश्‍लेषण के बाद उससे आगे बढ़कर क्रान्तिकारी जन-दिशा पर बल देना, मज़दूरों-किसानों को क्रान्ति की मुख्य शक्ति मानते हुए उन्हें संगठित करने पर बल देना तथा सर्वहारा क्रान्ति को अपरिहार्य बताना

6) एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी की लेनिनवादी अवधारणा को स्वीकारना और उसके निर्माण को ज़रूरी बताना

7) धार्मिक-जातिगत-भाषाई कट्टरता और सांप्रदायिकता का पुरज़ोर विरोध करना।

इसीलिए, इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुनःस्मरण-मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर संगठित होकर साम्राज्यवाद और देशी पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष की दिशा और मार्ग का सन्धान करना है, जब एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करने का कार्यभार हमारे सामने है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से हमें बहुत कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।

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भगतसिंह और उनके साथियों ने अजीतसिंह, लाला हरदयाल और कर्तारसिंह सराभा की क्रान्तिकारी जनवादी परम्परा को आगे विस्तार दिया और उसे मार्क्‍सवाद की मंज़िल तक उसी तरह आगे बढ़ाया जिस तरह रूस में प्लेख़ानोव और वेरा ज़ासूलिच आदि की पीढ़ी नरोदवाद की क्रान्तिकारी जनवादी विरासत से आगे बढ़कर मार्क्‍सवाद तक पहुँची। अन्तर सिर्फ़ यह था कि भगतसिंह, भगवतीचरण वोहरा आदि को अपने मार्क्‍सवादी चिन्तन को सुव्यवस्थित ढंग से आगे बढ़ाने और उसे अमल में लाने का अवसर ही नहीं मिला।

भगतसिंह की मार्क्‍सवाद तक की यात्रा एम.एन. राय और अन्य विलायतपलट भारतीय कम्युनिस्ट नेताओं से भिन्न थी। उन्होंने मार्क्‍सवादी क्लासिक्स का अध्ययन किया और इस प्रक्रिया में विकसित होती हुई दृष्टि से भारतीय समाज और राजनीति का मौलिक विश्लेषण करने की कोशिश की। यह कोशिश चाहे जितनी भी छोटी और अनगढ़ रही हो, पर इसकी मौलिकता और इसके विकास की तीव्र गति सर्वाधिक उल्लेखनीय थी। भगतसिंह और उनके साथियों ने भारत के प्रारम्भिक कम्युनिस्ट नेतृत्व की तरह सोवियत संघ और ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टियों तथा कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल के दस्तावेज़ों में प्रस्तुत विश्लेषणों-निष्कर्षों को आधार बनाकर भारतीय परिस्थितियों को देखने और कार्यभार तय करने के बजाय स्वयं अपनी दृष्टि और अध्ययन के आधार पर ब्रिटिश उपनिवेशवाद, कांग्रेस, गाँधी आदि के बारे में मूल्यांकन बनाये। अप्रोच की यह मौलिकता विशेष रूप से हमारे देश में उल्लेखनीय है जहाँ बड़ी पार्टियों और अन्तरराष्ट्रीय नेतृत्व का अन्धानुकरण लगातार एक गम्भीर बीमारी के रूप में मौजूद रहा है। इस मायने में भगतसिंह, भगवतीचरण वोहरा आदि की विकास-प्रक्रिया माओ त्से-तुङ और हो ची मिन्ह के अधिक निकट जान पड़ती है जिन्होंने अन्तरराष्ट्रीय नेतृत्व से सीखते हुए भी, अपने-अपने देशों की ठोस परिस्थितियों का स्वयं अध्ययन किया और क्रान्ति की रणनीति, आम रणकौशल और मार्ग का निर्धारण किया।

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बेशक, ऐसा सोचने का वस्तुगत आधार है कि यदि भगतसिंह जीवित रहे होते और उन्हें अपनी सोच के आधार पर कम्युनिस्ट पार्टी बनाने या कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होकर उसे अपनी सोच के हिसाब से दिशा देने का अवसर मिला होता तो शायद इस देश के कम्युनिस्ट आन्दोलन का इतिहास, या शायद इस देश का ही इतिहास किसी और ढंग से लिखा जाता।

मगर, आज ऐसा सोचने की एकमात्र प्रासंगिकता यही हो सकती है कि क्रान्तिकारी विचार और कर्म की उस अधूरी यात्रा को एक बार फिर आगे बढ़ाने और अंजाम तक पहुँचाने की बेचैनी से हर प्रगतिकामी भारतीय युवा के दिल को लबरेज़ कर दिया जाये। भगतसिंह के दिये पैग़ाम पर अमल करते हुए जन-जन तक इस सन्देश को पहुँचाया जाये कि यही साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष का वह ऐतिहासिक काल है जिसकी भविष्यवाणी भगतसिंह ने की थी। कांग्रेसी नेतृत्व ने राष्ट्रीय आन्दोलन को 74 बरस पहले एक ऐसे मुकाम तक पहुँचाया, जब पूँजीवादी शासन के रूप में हमें अधूरी, खण्डित और विकलांग आज़ादी मिली और तबसे लेकर आज तक का इतिहास एक अँधेरी सुरंग का दुखदायी सफ़रनामा बनकर रह गया। आज जो हिन्‍दुत्‍ववादी फ़ासिस्‍टी कीड़े पूरे देश में फैल गये हैं, वे कांग्रेसी राज के विषवृक्ष की ही पैदाइश हैं।

अब एक बार फिर, जैसाकि भगतसिंह ने कहा था, हमें ''क्रान्ति की तलवार विचारों की सान पर तेज़'' करनी होगी और साम्राज्यवाद-पूँजीवाद विरोधी नयी समाजवादी क्रान्ति का सन्देश कल-कारख़ानों-झोंपड़ियों तक, मेहनतकशों के अँधेरे संसार तक, हर जीवित हृदय तक लेकर जाना होगा। भगतसिंह का नाम आज इसी संकल्प का प्रतीक चिह्न है और उनका चिन्तन क्षितिज पर अनवरत जलती मशाल की तरह हमें प्रेरित कर रहा है और दिशा दिखला रहा है।

('भगतसिंह और उनके साथियों के समपूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़' की प्रस्तावना से कुछ अंश)

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