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लोकप्रिय मजदूर नेता और कवि मनोज भावुक के पिता रामदेव सिंह के निधन से मजदूरों में शोक
पटना। मजदूरों के लोकप्रिय नेता और देश के सुप्रसिद्ध कवि मनोज भावुक के पिता रामदेव सिंह नहीं रहे। 87 वर्ष की उम्र में उनका निधन पिछले दिनों हो गया। उनके निशान की खबर से मजदूरों में शोक की लहर दौड़ गई।रिहंद बांध के श्मशान घाट पर भारी भीड़ के बीच बड़े बेटे उमेश सिंह ने मुखाग्नि दी। इसके पूर्व तुर्रा, पिपरी स्थित उनके घर से शव यात्रा निकाली गई। 'मजदूरों का मसीहा' कहे जाने वाले रामदेव बाबू की याद में 28 अप्रैल 2022 को मूर्ति अनावरण, श्रद्धांजलि सभा व ब्रम्हभोज का आयोजन किया गया है।
रामदेव बाबू के मझले पुत्र व सुप्रसिद्ध कवि,फिल्म-समीक्षक व टीवी पत्रकार मनोज भावुक ने बहुत भावुक होकर बताया कि, ''मरना सबको है और जन्म के बाद मृत्यु तक का सफर भी तय करना हीं है, पर जीवन को एक उत्सव बना देना, चुनौती को अवसर बना देना, विपत्ति को सृजन में बदल देना और अपने पूरे तेवर के साथ जीवन जीना पुरुषार्थ है …..और भरे-पूरे परिवार में बेटा-बेटी, पोता-पोती सब कुछ देखकर, सारी जिम्मेवारियों का बख़ूबी निर्वाह करके, हंसते-खेलते, बोलते-बतियाते, सुबह-शाम टहलते, सोसाइटी के गार्ड से उसके घर-दुआर, खेत-खलिहान का हाल-समाचार पूछते और अपना सारा काम खुद करते 87 की उम्र पार करके रात के सवा आठ बजे बोल-बतिया के आंखे बंद कर के 15-20 मिनट में इस दुनिया को अलविदा कह देना भी सौभाग्य है। कमाल का महाप्रयाण है।
बाबूजी ऐसे ही जीये और ऐसे ही गये। हां, अंतिम समय में मेमोरी की कुछ गड़बड़ी जरूर हो गई थी। बाबूजी अक्सर मुझसे पूछते थे- राजनाथ सिंह से मिले? …आ गड़करी से? आ चंद्रशेखर जी के लइकवा …का नाम ह, नीरज शेखर से? सबको बोलना रेणुकूट, मिर्जापुर वाले रामदेव जी याद कर रहे थे। फिर राजनीतिक जीवन की बहुत सारी घटनाएं, बेतरतीब तरीके से… मतलब दाल में का भात में, भात में का दाल में टाइप। कहीं की कहानी कहीं जुड़ जाती।
रेनुकूट से सटे पिपरी पुलिस स्टेशन के पास हमारा जो निवास स्थान है, किसी जमाने में लोहिया, जेपी, राजनारायण, चौधरी चरण सिंह, लालू, विश्वनाथ प्रताप सिंह, जॉर्ज फर्नांडीस, चंद्रशेखर व राजनाथ सिंह आदि का आना-जाना व लिट्टी-मुर्गा पार्टी आम बात थी।
इतना कहकर भावुक फफक पड़े, 'मैं हमेशा व्यस्त रहा। बाबूजी को उतना समय नहीं दे पाया, पर संतोष है कि मेरी मां हमेशा उनके साथ रहीं और छोटे भाई धर्मेन्द्र और उसके परिवार ने श्रवण कुमार की तरह उनकी सेवा की। अब तो एक मुठ्ठी राख हो गए रामदेव बाबू। अब तो सिर्फ उनकी कहानी रह गई। वो स्मृतिशेष हो गए। जिस मिट्टी, जिस शहर में उन्होंने अपनी एक खूबसूरत दुनिया रची है, उसी शहर में वह पंचतत्व में विलीन हो गए।'
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री राम नरेश यादव के राजनैतिक गुरु रहे रामदेव बाबू अपनी ईमानदारी, खुद्दारी, बेबाकीपन, साहस और जुझारूपन के लिए जाने जाते थे। 8 अक्टूबर 1935 को सीवान (बिहार) के कौसड़ गांव में जन्मे रामदेव सिंह मात्र 23-24 साल की उम्र में एशिया की सबसे बड़ी एल्युमीनियम उत्पादक कंपनी हिंडाल्को के पॉटरूम, फर्निश में भर्ती हुए और वहां आग उगलती मशीनों के बीच मजदूरों की दयनीय स्थिति पर बिड़ला मैनेजमेंट पर उबल पड़े। धीरे-धीरे ट्रेड यूनियन बनाकर हिंडाल्को के प्रथम मजदूर नेता बनकर उभरे। इस प्रक्रिया में उनकी नौकरी चली गई। उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। जान से मारने की कोशिश हुई। रेनूकूट में मजदूर आंदोलन की लगी आग की लहक प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री तक पहुंची। लोहिया और जय प्रकाश नारायण जैसे नेता इनवॉल्व हुए। मतलब रामदेव बाबू के नेतृत्व में शुरू हुआ एक छोटा-सा आन्दोलन राष्ट्रीय मुद्दा बन गया और देश के बड़े-बड़े नेता इसमें रुचि लेने लगे। कई बार कंपनी की ओर से समझौते का प्रस्ताव आया, धमकियां भी मिलीं, पर रामदेव बाबू न झुके, न माने। मुफलिसी में जीये। 14 साल कंपनी से बाहर बेरोजगार रहे, लेकिन मजदूरों की उम्मीद और भरोसा बनकर लड़ते रहे। अंततः बिड़ला मैनेजमेंट को झुकना पड़ा और मजदूरों की सारी मांगें माननी पड़ीं।