उत्तर प्रदेश

खुले में शौच से मुक्त भारत में भारतीय प्रौद्यौगिकी संस्थान, कानपुर में 34 दलित परिवार बिना शौचालय के

सदीप देव
16 Jan 2025 12:18 PM IST
खुले में शौच से मुक्त भारत में भारतीय प्रौद्यौगिकी संस्थान, कानपुर में 34 दलित परिवार बिना शौचालय के
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खुले में शौच से मुक्त भारत में भारतीय प्रौद्यौगिकी संस्थान, कानपुर में 34 दलित परिवार बिना शौचालय के

संदीप पांडेय

1959 में भारतीय प्रौद्यौगिकी संस्थान, कानपुर को बनाने के लिए दो गांव उजाड़े गए। किसानों को सिर्फ खेतों में खड़ी फसल का मामूली सा मुआवजा दे दिया गया। इस राष्ट्रीय महत्व के संस्थान को बनाने के लिए जमीन का कोई मुआवजा नहीं दिया गया। उजाड़े गए हरेक परिवार को वायदा किया गया कि परिवार के एक सदस्य को संस्थान में नौकरी मिलेगी। बस यह नहीं बताया गया कि भारतीय प्रौद्यौगिकी संस्थान में नौकरी करने कि लिए विशेष कौशल वाले लोग चाहिए। हां, कुछ लोगों को निचले स्तर पर मेहनत-मजदूरी वाले कामों के लिए रख लिया गया। इसी समय कुछ घोबी परिवारों को भी बाहर से लाकर बसाया गया जो छात्रों, कर्मचारियों व प्रोफेसरों के कपड़े धो सकें। इनमें से एक व्यक्ति को जिसे रु. 35 प्रति माह पर संस्थान में नौकरी का मौका मिल रहा था, को समझा बुझा कर नौकरी छुड़वा कर धोबी का काम करने के लिए तैयार किया गया।


भारत सरकार व इंग्लैण्ड की सरकार द्वारा प्रायोजित भारतीय प्रौद्यौगिकी संस्थान, कानपुर की एक पहल है ’इन्वेण्ट’ जिसके तहत 10 लाख आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों की मदद की जानी है। जिन क्षेत्रों में मदद होनी है उसमें स्वच्छता एक है। स्वच्छ भारत अभियान के तहत बाकी सभी उच्च शिक्षण संस्थानों की तरह भा.प्रौ.सं., कानपुर को भी अपने इलाके में पांच गांव गोद लेने थे जिन्हें खुले में शौच से मुक्त कराना था। हाल ही में भा.प्रौ.सं. कानपुर व समावेशी विकास के लिए आई.सी.आई.सी.आई. नामक संस्था ने मिलकर स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक परियोजना शुरू की है। कहने की जरूरत नहीं हैं कि स्वास्थ्य एवं स्वच्छता में अंतरंग सम्बंध है। जिने देशों ने शौचालयों की उपलब्धता पर ध्यान दिया है वहां के स्वास्थ्य मानक अन्य देशों से बेहतर हैं। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने पांच वर्ष कार्यक्रम चलने के बाद 2 अक्टूबर, 2019 को ही भारत को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिया था। लेकिन किसने कल्पना की होगी कि भा.प्रौ.सं., कानपुर के परिसर में अनुसूचित जाति के 34 धोबी परिवार हैं जिन्हें पिछले 65 वर्षों से शौचालयों से वंचित रखा गया है और आज भी इनके पास शौचालय की व्यवस्था नहीं है? यह चिराग तले अंधेरे जैसी बात है। क्या भा.प्रौ.सं. को इस बात के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए कि उसने 34 दलित परिवारों को सम्मानजनक जिंदगी से वंचित रखा है? बल्कि, भा.प्रौ.सं., कानपुर के खिलाफ तो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989, के तहत जानबूझ कर दलितों के साथ भेदभाव करने के लिए मुकदमा दर्ज किया जाना चाहिए।

अब भा.प्रौ.सं., कानपुर इन 34 परिवारों को परिसर से निकालना चाहता है क्योंकि उसने छात्रावासों में कपड़ा धोने वाली मशानें लगवा दी हैं। महात्मा गांधी ने हिन्द स्वाराज में इसी मौलिक बात को उठाया है कि मशीनें लोगों के रोजगार के लिए खतरा बनेंगी। इस सम्भावना का अंदाजा होते हुए कि भा.प्रौ.सं. के इस कदम का कुछ लोग विरोध करेंगे उसने जाना माना हथकण्डा अपनाया जिसमें पीड़ित को ही दोषी ठहराने का प्रयास किया जाता है। धोबी लोगों पर इस बात का ओराप लगाया गया कि वे बाहर का भी काम लेने लगे हैं। क्या भा.प्रौ.सं. की यह नीति नहीं कि उसके प्रोफेसरों को बाहर की निजी कम्पनियों के साथ मिलकर प्रायोजित शोध करने के लिए प्रोत्साहित कया जाता है ताकि संस्थान के पास और पैसा आ सके? यदि छात्र या शोधकर्ता नई कम्पनियां शुरू करेंगे तो उनकी प्रशंसा की जाएगी। भा.प्रौ.सं. में उद्यमिता को एक अच्छा गुण माना जाता है। किंतु भा.प्रौ.सं., कानपुर अपने दलित परिवारों की आय को सीमित रखना चाहता है। धोबी परिवारों पर यह भी आरोप लगाया गया है कि वे नशीली दवाओं की आपूर्ति की आपराधिक गतिविधियों में भी लिप्त हैं। अब, भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों का एक सर्वेक्षण करा लिया जाए तो पता चल जाएगा कि परिसरों पर नशीली दवाओं के दुरुपयोग की समस्या परिसर पर स्थित धोबी परिवारों से स्वतंत्र है। यह शर्म की बात है कि भा.प्रौ.सं., कानपुर जिस समस्या का खुद समाधान नहीं ढूंढ़ पर रहा है उसके लिए धोबी परिवारों बलि का बकरा बनाना चाहता है।

जिन धोबी परिवारों को भा.प्रौ.सं., कानपुर के तत्कालीन निदेशक ने बुला कर परिसर पर बसाया गया था उनपर भा.प्रौ.सं. की भूमि पर अवैध रूप से कब्जा करने का भी आरोप लगाया जा रहा है। संस्थान के सम्पत्ति अधिकारी ने 2018 में एक गणित कर यह बताया कि धोबी परिवारों पर प्रति वर्ग मीटर कब्जा की गई जमीन पर रु. 150 की दर से जुर्माना लगाया जाएगा। अब, यदि वे किसान जिनकी कुल 1000 एकड़ से कुछ ज्यादा जमीनों को जबरदस्ती अधिग्रहण कर भा.प्रौ.सं, कानपुर बनाया गया के वारिस आकर संस्थान से मुआवजा मांगने लगें तो इसमें क्या अनुचित होगा? यह सवाल पूछा जा सकता है कि किसानों का एक राष्ट्रीय महत्व का संस्थान बनाने के लिए त्याग देश के आम नागरिकों के किस काम आया? इस देश का आम इंसान आज भी जरूरी बुनियादी सुविधाओं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, शौचालय से वंचित है।

गरीबी उन्मूलन 78 सालों की आजादी के बाद अभी भी एक मुश्किल काम दिखाई पड़ता है। 2022 में कानपुर के दो इलाकों बिठूर व जाजमऊ में छह मजदूरों की सेप्टिक टैंक साफ करते हुए अंदर ही घुटन से मौत हो गई। अभी तक सीवर व सेप्टिक टैंकों को साफ करने के लिए कोई सस्ती सहज प्रौद्योगिकी क्यों नहीं उपलब्ध है? भा.प्रौ.सं. से पढ़े छात्र अमरीका के विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा के लिए चले जाते हैं और फिर वहीं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए उच्च प्रौद्योगिकी क्षेत्र में काम करते हैं जिससे भारत के विनिर्माण क्षेत्र को कोई लाभ नहीं हुआ है। नरेन्द्र मोदी को ’भारत द्वारा बनाया गया’ से अपनी नीति ’भारत में निर्मित’ में बदलनी पड़ी जिसके तहत विदेशी कम्पनियों से अपेक्षा है कि वे भारत में पूंजी निवेश कर यहां सस्ते श्रम का इस्तेमाल कर चीजें बनाएं। फिल्हाल हम कम्प्यूटर, मोबाइल फोन व दवाइयों के लिए चीन पर बुरी तरह से आश्रित हैं। भा.प्रौ.सं. के छात्रों की प्रौद्योगिकी से ज्यादा रूचि वित्तीय प्रबंधन, साधारण प्रबंधन व प्रशासनिक सेवाओं में है। जब से भारत ने नवउदारवादी आर्थिक नीतियां अपनाईं हैं भा.प्रौ.सं. के प्रोफेसरों की तनख्वाह कम से कम बीस गुना बढ़ गई है जबकि इसी अवधि में दैनिक मजदूरों की मजदूरी मात्र 5 से 6 गुना बढ़ी है। इस तरह भा.प्रौ.सं. के छात्रों व प्रोफेसरों ने इस देश की आम जनता और खासकर के कानपुर के किसानों, जिनकी जमीन पर संस्थान बना है, को निराश किया है। भा.प्रौ.सं. जिस उद्देश्य से स्थापित हुए था वह पूरा नहीं हुआ है। अतः इसमें कोई अनुचित बात नहीं होगी यदि कानपुर के किसान, जिनकी जमीनों पर संस्थान बना है, भा.प्रौ.सं. से जुर्माना मांगें और यह मांग करें कि इस संस्थान को अमरीका विस्थापित किया जाए क्योंकि इसने भारत से ज्यादा अमरीका के लिए ही काम किया है। भारत पे्रमी तो दुनिया में कहीं भी रह कर भारत के लिए काम कर सकते हैं।



सदीप देव

सदीप देव

Sandeep Deo is a bestseller author of biographies of public figures like Swami Ramdev and Ashutosh Maharaj and have sold 1,00,000 copies of it in less than a year. His New book 'Kahani Communiston Ki' also published by Bloomsbury in 2017. He is First Hindi Author for Bloomsbury, Pub of Harry Potter Series of Books. He was an active journalist for over 15 years before switching his career as a full time author. He had worked with national dailies like Dainik Jagran, Nai Dunia, National Duniya to name a few. His first published book was ‘Nishane Par Narendra Modi: Saajish Ki Kahani-Tathyo ki Zubaani’ which has been critically acclaimed all over. He have written five books. He is currently Editor-in-Chief of www.indiaspeakdaily.com, which has over a million hits. He had earned his graduation (Sociology Hons.) from the prestigious Banaras Hindu University (BHU) and did his two year post graduate diploma in Human rights from Indian Institute of Human Rights.

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