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- केशव तलेगांवकर यानि...
केशव तलेगांवकर से मेरी पहली मुलाक़ात सन 77 की है। हम लोग गिरिराज किशोर का नाटक 'घास और घोड़ा' तैयार कर रहे थे। ये आपातकाल के दिन थे। नाटक श्रीमती गाँधी के आतंक से गूंगे हो चुकी न्यायपालिका को लेकर एक ज़बरदस्त व्यंग्य स्वरुप था। निर्देशक के रूप में मैं एक ऐसे अनुभवी संगीतकार की तलाश में था जो नाटक के 'व्याकरण' का जानने वाला हो। आगरा के कई बुज़ुर्ग और अनुभवी सगीतकारों से मैं मिला लेकिन उन्हें अपनी अभिव्यक्ति से सहमत न कर पाया। तब मैंने ऐसे 'नए-नकोरे' को ढूंढना शुरू किया जो बेशक़ पहली बार नाटक का संगीत क्यों न कर रहा हो लेकिन 'थिएट्रिकल ग्रामर' की जिसे थोड़ी-बहुत समझ हो। मुझे विश्वास था कि मैं उसे अपने हिसाब से 'मोल्ड' कर सकूंगा।
एक दिन हमारी संस्था के सचिव जेपी सक्सेना केशव को लेकर आए। केशव भी हम लोगों की ही तरह 20 वर्ष से नीचे थे और मेरे जितने ही दुबले-पतले, बल्कि मुझसे भी ज़्यादा। नाटक में संगीत संयोजन का उनके लिए यह पहला मौक़ा था और वह इस विचार से ख़ासे उत्तेजित भी थे। वह अपने बालपन से ही आगरा 'इप्टा' के नाटकों को देखते आये थे, कुछ में अभिनय भी किया था। उन्होंने आगरा में हुईं ओम शिवपुरी के 'आधे अधूरे' और बंसी कॉल के 'संस्कार ध्वज' नाटक की प्रस्तुतियां देख रखी थीं। वह उन प्रस्तुतियों से आह्लादित भी थे। उन्हें यह जानकर संतोष था कि मुझ सहित हमारे ग्रुप में ज़्यादादातर रंगकर्मी बंसी कॉल के शागिर्द हैं।
वह इस बात से बड़े हैरान थे और पहली बार ऐसा सुन पा रहे थे कि नाटक में संगीत समानान्तर नहीं बजेगा (जैसा कि उन दिनों आमफ़हम फैशन था) मैंने उनके समक्ष साफ़ कर दिया था कि सवा दो घंटे के नाटक में सितार का उपयोग मैं सिर्फ़ एक जगह चाहता हूँ- वह भी डेड़ से 2 मिनट के लिए, जो नाटक में बैठे विद्रूप को सितार के जादू में तब्दील कर सके। यह नाटक का क्लाइमेक्स था। सुन कर वह मुस्कराए। मैंने उनसे दो दिन पूरी-पूरी रिहर्सल देखने को कहा। वह 2दिन लगातार रिहर्सल देखते रहे। नाटक पर प्रारंभिक चर्चा के बाद मैंने केशव को पढ़ने के लिए नाटक की स्क्रिप्ट दी।
केशव जिस तरह से मेरी बातचीत में शामिल हो रहे थे, मुझे यक़ीन होता दिख रहा था की यह लड़का 'चल निकलेगा'। मैं उनके पिता रघुनाथ तलेगांवकर जी के नाम और काम से परिचित था। तलेगांवकर जी और गुणे जी- दो ही प्रतिभाएं उस समय थीं जो आगरा में संगीत की प्रारंभिक शिक्षा के लिए बच्चों को प्रशिक्षित करने का ज़बरदस्त काम कर रही थीं।
नाटक कुल मिलाकर अच्छा बन पड़ा था। मेरी योजना सितार के 2मिनट के टुकड़े की थी लेकिन अपने संगीत के 'कंटेंट' और अपनी अँगुलियों के जादू के डिमोंस्ट्रेशन से केशव ने मुझे इसे 4 मिनट तक ले जाने को 'मजबूर' कर दिया। 'उप्र संगीत नाटक अकादमी' के समारोह में भी इस नाटक को ख़ासी प्रशंसा मिली। तनाव की राह पर चलता नाटक 'घास और घोड़ा' जब अपने 'क्लाइमेक्स' पर पहुंचता और केशव के सितार का 4मिनट का टुकड़े का 'झाला' जब अपनी समाप्ति पर जाकर ठहरSता, दर्शकों को लगता जैसे समय ठहर गया है।
लेकिन 12 अक्टूबर 2020 को, बिना क्लाइमेक्स पर पहुंचे और बिना सितार का 'झाला' बजे कैसे समय, हमेशा-हमेशा के लिए ठहर गया?
-अनिल शुक्ल
'हिंदुस्तान' (15/अक्टूबर /20) से साभार