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देश के हर जिले में उच्च शिक्षा तो पहुँच चुकी है लेकिन परिणाम आशा से परे - डा रक्षपाल सिंह चौहान
अलीगढ़। 4 जुलाई, आज अमर उजाला में प्रकाशित समाचार " हर जिले के नज़दीक ही मिलेगी उच्च शिक्षा " के अनुसार नई शिक्षा नीति -2020 के तहत विद्यार्थियों को अपने जिलों में ही उन्हें उच्च शिक्षा प्रदान करने की महत्वपूर्ण पहल की जायेगी जिससे उन्हें घर से बाहर न जाना पड़े और वर्ष 2030 तक सकल नामांकन दर बढ़कर 50 फीसद तक हो सके।
समाचार पढ़ कर बहुत आश्चर्य तो हुआ ही,अफसोस भी हुआ कि नई शिक्षा नीति 20 के अन्ध समर्थकों को यह तक पता नहीं है कि नई शिक्षा नीति 1986/ 92 के लागू होने के बाद से अब तक पूर्व की अपेक्षा देश के अधिकांश क्षेत्रों में या यों कहें कि हर जिले में कई गुना उच्च शिक्षण संस्थान खुल चुके हैं। इनकी संख्या हजारों में है। इसके अतिरिक्त एक आधअपवाद को छोड भी दें तो देश के सभी जिलों में स्ववित्त पोषित अथवा सरकारी विद्यालयों -महाविद्यालयों की कमी कहीं नज़र नहींआती। वह उन जिलों के विद्यार्थियों की शिक्षा की मांग को पूरी कर सकते हैं। इसमें दो राय नहीं है।
हिन्दी प्रदेशों में देखा जाये तो अधिकांशतः लगभग सभी जिलों के ब्लाक स्तर पर भी ऐसे उच्च शिक्षण संस्थानों की कोई कमी नहीं हैं। लेकिन इसके साथ - साथ यह भी कटु सत्य ज़रूर है कि अधिकांशतः ऐसे शिक्षण संस्थानों में प्रवेश तो होते हैं और वार्षिक परीक्षाओं की रस्म अदायगी भी होती है। यह जगजाहिर है। और यह भी कटु सत्य है कि ऐसे शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों का भारी अभाव होने के कारण बच्चों की उपस्थिति भी नहीं होती । फिर विभिन्न विषयों के प्रयोगात्मक कार्यों के होने के बारे में उन शिक्षण संस्थानों में तो सोचा ही नहीं जा सकता। हां इतना ज़रूर होता है कि उन संस्थानों के संचालक उन्हें प्रथम अथवा द्वितीय श्रेणी की अंकतालिकायें दिलवाने का जुगाड़ जरूर करा ही देते हैं ,जिनका देश की सकल नामांकन दर 26 प्रतिशत करने में बहुत योगदान रहा है। यह विलक्षण एवं आश्चर्यजनक सत्य है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता।
असलियत यह है कि यदि देश के ऐसे अधिकांश शिक्षण संस्थान परीक्षाओं में जुगाड़ करने में सफल न होते तो यह दर 10 फीसदी से 15 फीसदी ही रही होती। इससे अधिक किसी भी कीमत में नहीं।
कैसी विडम्बना है कि कभी समूचे विश्व में शिक्षा का केंद्र कहा जाने वाला भारतवर्ष आज सकल नामांकन दर के लिए जुगाड़ का मोहताज है और सच्चाई यह भी है कि शिक्षा की बदहाली का प्रमुख कारण भी यही रहा है। दुख इस बात का है कि देश की बदहाल शिक्षा व्यवस्था से चिंतित शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा अपनी- अपनी पीड़ा बार-बार केन्द्र में मानव संसाधन विकास मंत्रालय , प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों, शिक्षामंत्रियों को भेजने के वाबजूद उसे पूरे तौर पर अनसुना कर दिया गया। क्योंकि NEP-20 में शिक्षण संस्थानों में विद्यार्थियोंं की उपस्थिति, नियमित पठन पाठन, परीक्षाओं की पवित्रता, मूल्यांकन की गोपनीयता, प्रयोगात्मक कार्यों को कराये जाने के प्रति गंभीरता, विभिन्न विषयों के समुचित संख्या में क्वालीफायड शिक्षकों की नियुक्तियां एवं उनको वेतन आदि दिये जाने के बारे में स्पष्ट रूप से न कहा जाना हैरान तो करता ही है, नीति नियंताओं के सोच के दिवालिएपन को भी दर्शाता है।
उल्लेखनीय यह भी है कि शिक्षा व्यवस्था की विगत लगभग 27 वर्ष में हुई बदहाली के लिए केन्द्र की सत्ता में रहीं कांग्रेस एवं भाजपा दोनों ही दलों की सरकारें जिम्मेदार हैं। लेकिन अफसोस कि शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त मनमानी,भ्रष्टाचार,घोर अनियमितताओं पर लगाम लगाने की कोशिशें कभी भी नहीं की गईं। दुख तो यह भी है कि नई शिक्षा नीति-2020 में उक्त गम्भीर खामियों का एवं उनको दूर करने का ज़िक्र तक नहीं किया गया है। इससे ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार उक्त खामियों को शिक्षा व्यवस्था के लिए खतरा नहीं मानती,जबकि इन गम्भीर खामियों की वज़ह से NEP-2020 का भी वही हाल होगा जो NEP-1986/1992 का हुआ है । हां इतना अवश्य है कि ऐसे हालात में सन 2035 तक सकल नामांकन दर (GER) 50 प्रतिशत ही नहीं अपितु 80 प्रतिशत भी हो सकती है जिससे सरकार अपनी कामयाबी के झंडे गाड़ सकती है। वह बात दीगर है कि चाहे देश की शिक्षा व्यवस्था और अधिक बदहाल क्यों न हो जाए।
(लेखक डा रक्षपालसिंह चौहान प्रख्यात शिक्षाविद एवं डा बी आर अम्बेडकर विवि शिक्षक संघ आगरा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)