बागपत

नवाब कोकब हमीद का चले जाना, इससे बड़ा सदमा और क्या होगा

Majid Ali Khan
2 Nov 2018 9:19 AM GMT
नवाब कोकब हमीद का चले जाना, इससे बड़ा सदमा और क्या होगा
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माजिद अली खां (राजनीतिक संपादक)


जाते हुए कहते हैं क़यामत में मिलेंगे,

क्या खूब क़यामत का है गोया कोई दिन और


लाखों की दीवानावार भीड़, हर आदमी रंजीदा, ग़मगीन, हर आँख में आंसू. हर आदमी की ज़ुबान पर सिर्फ यही बात के "चल दिए तुम भी मुझे छोड़ के तनहा आखिर", जाना तो सभी को है लेकिन नवाब कोकब हमीद का चले जाना इलाक़े के हर आदमी के लिए वह चाहे हिन्दू हो मुस्लिम हो किस बिरादरी का हो एक बहुत बड़ा सदमा है. मरहूम नवाब कोकब हमीद को कल सपुर्दे खाक कर दिया गया. उनके जनाज़े में उमड़े जान सैलाब से ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं था की आखिर वह शख्स लोगो के दिलो पर राज करता था. बहुत से लोग भीड़ में ऐसे रहे होंगे जिनसे मरहूम नवाब साहब की मुलाक़ात कभी ही शायद हुई हो लेकिन वह भी मरहूम नवाब साहब से इतनी मुहब्बत करता था जैसे वह हर वक़्त उनके साथ रहे हों. उस अनजान आदमी की आँखों के आंसू भी बता रहे थे की नवाब साहब लोगो के लिए क्या थे. नवाब साहब की लोकप्रियता का अंदाज़ा ज़िन्दगी में भले ही किसी ने न लगाया हो लेकिन उनके जनाज़े में शामिल लाखो लोग इस बात की और बखूबी इशारा कर रहे हैं की वह कितने लोकप्रिय थे. अपने हरदिल अज़ीज़ नेता को खिराजे अक़ीदत देने सिर्फ आम आदमी ही नहीं बल्कि इलाक़े के खास लोग भी संख्या में पहुंचे. पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश राज्य के लोकप्रिय नेताओ का जब भी ज़िक्र किया जायेगा उसमे मरहूम नवाब कोकब हमीद का नाम सरे फेरिस्त लिया जायेगा. स्पेशल कवरेज न्यूज़ ग्रुप बहुत एहतराम और मुहब्बत के साथ मरहूम को मखीराजे अक़ीदत पेश करता है और दुआ करता है की अल्लाह उनके रुतबे बुलंद फरमाए.




मरहूम नवाब कोकब हमीद की राजनीति की बात करें तो मरहूम ने पश्चिम यूपी की राजनीति में पिछले करीब 35 साल से सक्रिय होकर रालोद की राजनीति की । नवाब साहब सेक्युलर राजनीति के अलम्बरदार रहे हैं. बिना किसी धर्म व् बिरादरी के भेदभाव के राजनीति करते रहे. वह पांच बार विधायक और तीन बार मंत्री रहे। हालाँकि सबसे पहले मरहूम 1985 में बागपत सीट से कांग्रेस के टिकट पर विधायक चुने गए थे। तब उन्हें ऊर्जा राज्यमंत्री बनाया। साल 2002 में वह यूपी के पर्यटन मंत्री और इसके बाद विधानसभा में रालोद के नेता भी रहे। सियासत रही हो या नवाब साहब की असल जिंदगी, उनकी बेगम ही सब कुछ तय करती थीं। बेगम की मौत के बाद वह अकेले पड़ गये। उधर पत्नी की बीमारी में व्यस्तता के कारण वर्ष 2012 का चुनाव भी हार गए। इस बीच सेहत ने भी उनका साथ छोड़ा तो वह लकवा का शिकार हो गए। कई महीने दिल्ली के बड़े अस्पताल में भर्ती रहे लंबे उपचार के बाद वह घर तो लौटे, लेकिन कभी पूरी तरह ठीक नहीं रह सके। कभी ह्रदय रोग, तो कभी श्वांस लेने की दिक्कत उन्हें परेशान किए रही। चार साल तक वह लगातार अस्पताल से घर के चक्कर लगाते रहे। इस बीच में बेटे अहमद हमीद ने राजनीति में एंट्री की। दरअसल बीमारी के कारण अब नवाब साहब राजनीति से पूरी तरह बाहर हो गए थे। इसलिए वह अहमद हमीद के राजनैतिक करियर को अपने सामने संवारना चाहते थे। बीमारी से जूझते हुए नवाब साहब ने बेटे की सियासत को सही ट्रैक पर ले जाने का पूरा प्रयास किया। वह बीमार थे, चलने के लिए उन्हें सहारे की जरूरत थी, फिर भी वह मंचों पर गए। बेटे के लिए मंच से वोट भी मांगे। बसपा से वर्ष 2017 का विधानसभा चुनाव बेटे को अपने नेतृत्व में लड़ाया। मामूली वोटों से बेटा हार गया, तो नवाब साहब को तगड़ा धक्का लगा।

नवाबसाहब के पूर्वज हरियाणा से आकर बसे थे। यह हवेली अंग्रेजों के जमाने की बनी हुई है। तब अंग्रेज यहां पर यमुना के खादर में शिकार खेलने आया करते थे। उन दिनों नवाब साहब कोकब हमीद के दादा करम अली अंग्रेजी सरकार में सरकारी अफसर थे। गाजियाबाद तहसील की कर वसूली का कार्य इनके पास था। उस वक्त मेरठ से लेकर बागपत और गाजियाबाद एक ही थे। बागपत के आसपास की जागीर इनके पास थी। इन्हें अंग्रेजों ने नवाब बागपत घोषित किया हुआ था। दादा करम अली ने ब्रिटिश पीरियड में बागपत में आकर अपनी हवेली बनवाई।इतिहासकारो का कहना है की जिम कार्बेट भी यहां पर आकर रुके थे, और शिकार किया था। हवेली को बनवाने में ईरानी शैली का प्रयोग किया गया है, इसे बनाने के लिए तब ईरान से कारीगर आए थे। हवेली में बनी लाइब्रेरी दादा करम अली ने बनवाई थी। उसमें तब के कई ऐतिहासिक दस्तावेज सुरक्षित हैं। नवाब साहब को पढऩे का बहुत शौक था, वह आए दिन इस लाइब्रेरी में किताबें पढ़ा करते थे। नवाब साहब की ससुराल अलीगढ़ में है, इनके ससुर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के वीसी रहे हैं। अलीगढ़ मुरसान में उनकी नवाबियत रही है।


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