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- आज़मगढ़ बचा पाए ना...
उत्तर प्रदेश में दो लोकसभा सीटों आज़मगढ़ और रामपुर लोकसभा के उपचुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा ने बाज़ी मारी है और दोनों सीटें समाजवादी पार्टी से छीन ली। दोनों सीटों पर समाजवादी पार्टी के अति प्रमुख नेता अखिलेश यादव और आज़म खां सांसद हुआ करते थे जो बाद में विधायक बन गये और अपनी अपनी लोकसभा सदस्यता से इस्तीफा दे गये। बहरहाल चुनाव कैसा भी हो पार्टियों की साख पर असर तो पड़ता है इसलिए समाजवादी के हारने पर पार्टी और उसके नेताओं को सोचने पर मजबूर कर दिया लेकिन जीतने वाली भाजपा को भी बहुत संतुष्ट नहीं कहा जा सकता क्योंकि सत्ता के दबाव बावजूद भी वह बहुत ज्यादा वोट हासिल नहीं कर सकी।
पहले बात करते हैं आज़मगढ़ की, आज़मगढ़ समाजवादी पार्टी का किला माना जाता है। इसलिए बहुत उम्मीदें थी कि समाजवादी पार्टी इस सीट पर कब्जा बरकरार रखेगी। इसलिए यहां से पार्टी ने पूर्व सांसद और अखिलेश यादव परिवार भाई धर्मेंद्र यादव को मैदान में उतारा गया था। भाजपा ने भोजपुरी कलाकार निरहुआ को अपना उम्मीदवार बनाया जबकि बसपा ने चौकाते हुए पूर्व विधायक गुड्डू जमाली को उम्मीदवार बनाया था। बसपा उपचुनाव में हिस्सा नहीं लेती है लेकिन इस बार बसपा ने भी उपचुनाव में हिस्सा लिया था और एक मुसलमान कैंडिडेट देकर चुनौती देने की कोशिश की। वोटो की संख्या पर गौर किया जाए तो सपा बसपा लगभग बराबर की स्थिति में रहे और भाजपा थोड़ी बढ़त से चुनाव जीत गयी।
इसी प्रकार आज़म खां का गढ़ रामपुर भी हाथ से निकल गया। आज़म खां ने स्थिति को भांपते हुए वैसे ही बहुत मजबूत प्रत्याशी तो मैदान में नहीं उतारा था लेकिन आखिर तक चले मुकाबले में भाजपा ही हाथ मार गई। रामपुर में सपा की हार के पीछे के कई कारण रहे हैं। सबसे बड़ा कारण था उम्मीदवार के कमजोर होने के कारण सपा का परंपरागत मुसलमान वोटर कम संख्या में वोट डालनेआज निकला और कुछ प्रशासन द्वारा भी वोट डालने से रोके जाने की खबरें भी आई थी। इसके अलावा भी आज़म खां विरोधी लोग पूर्व विधायक काजिम अली खां ने सपा को हरवाने के लिए बहुत मेहनत की थी। इनके अलावा भाजपा के केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी बहुत मेहनत भाजपा को जिताने के लिए कर रहे थे। कुल मिलाकर रामपुर भी सपा के हाथ से निकल गई।
उपचुनाव की हार जीत को अगले चुनाव की हार जीत से जोड़ कर देखना ठीक नहीं लगता। उपचुनाव अक्सर सत्ताधारी दल को ही जीतता देखा गया है। बहुत कम मौकों पर विपक्षी बाजी मार जाते हैं। लेकिन इस चुनाव में भी अखिलेश के राजनीतिक तौर तरीकों पर सवालिया निशान खड़े हो रहे हैं कि आखिर ऐसा क्या है कि अखिलेश यादव हिम्मत करके चुनाव पर हावी नहीं हो पाते। क्या इच्छा शक्ति की कमी है या कोई भय जो अखिलेश को मुलायम सिंह की भांति एक मंझा हुआ और साहसी नेता बनने से रोक रहा है। अगर समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन ऐसे ही चलता रहा तब अखिलेश यादव और पार्टी सिर्फ एक इतिहास बन जाएगी। जैसे बसपा को लोगों ने छोड़ना शुरू कर दिया और मायावती पर सरकार के दबाव की बातें अक्सर सुनने को मिलती हैं। जिस प्रकार भाजपा के सामने क्षेत्रिय दल खत्म हो रहे हैं या किए जा रहे हैं वह लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। क्षेत्रीय दलों को आपस में मिल बैठकर इसका रास्ता निकालना होगा अन्यथा ऐसे ही अपना वजूद खत्म कर लेंगे।