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हिंदू और मुसलमानों के बीच लिखी थी प्रेम की एक सुनहरी इबारत, हज़रत हुसैन की मदद करने गए थे हिंदुस्तानी वीर सपूत
फतेहपुर । इस्लामी कैलेंडर के अनुसार नए वर्ष के प्रथम माह मोहर्रम का चांद निकलते ही उन शहीदों की याद में आंखें भर आती हैं जिन्हें अरब देश के कर्बला नामक स्थान पर कई रोज़ का भूखा प्यासा बंधक बनाकर बड़ी बेरहमी से शहीद किया गया था। चौदह सौ वर्ष पूर्व ज़ालिम एंव आतंक का जन्म दाता बादशाह यज़ीद अपनी सत्ता के नशे में चूर इंसानियत का चेहरा बिगाड़ देना चाहता था लेकिन उसे यह पता था कि जब तक मोहम्मद साहब के नाती हुसैन इब्ने अली जीवित है तब तक वह अपनी मर्ज़ी की नहीं कर सकता था उसने हज़रत हुसैन के सामने एक पेशकश रखी कि जो मैं करता हूं उसको स्वीकार करो तथा हमारी बैअत करो अर्थात मेरी हां में हां कहो।
आतंक के विरोधी एवं इंसानियत को बचाने वाले हज़रत हुसैन ने यजीद की इस पेशकश को ठुकरा दिया इसी डर से उसने हज़रत हुसैन व उनके इकहत्तर साथियों को जिसमें 6 माह का बच्चा एवं 4 वर्षीय पुत्री शामिल थी को नहरे फुरात के क़रीब घेरकर पानी बंद कर दिया। हज़रत हुसैन ने मदद के लिए अपने बचपन के दोस्त हबीब को एक पत्र लिखा तथा दूसरा पत्र अली इब्ने हुसैन ने भारत के हिंदू राजा समुद्रगुप्त के नाम लिखकर मदद की गुहार लगाई। इंसानियत को बचाने के लिए हज़रत हुसैन की मदद के लिए अपने घरों से जो हक़परस्त निकले वह मोहम्मद साहब का कलमा पढ़ने वालों के साथ साथ कांधे पर जनेऊ एवं माथे पर टीका लगाए हिंदुस्तानी वीर सपूत भी थे जो हिंदू और मुसलमानों के बीच प्रेम की एक सुनहरी इबारत लिखने कर्बला जा रहे थे।
ईरान देश में पारसी मज़हब का एक राजा था उसके दो पुत्रियां थी मेहरबानो एवं शहर बानो। मेहरबानो का विवाह भारत के राजा चंद्रगुप्त से हुआ जिनका नाम मेहरबानो से चंद्रलेखा रखा गया तथा चंद्रलेखा की छोटी बहन शहरबानों का विवाह हज़रत हुसैन इब्ने अली के साथ हुआ। पढ़ने में अटपटा लगने वाले इस रिश्ते का इतिहास गवाह है चंद्रलेखा और चंद्रगुप्त के बेटे समुद्रगुप्त उस समय राजा थे जब उन्हें अपने मौसेरे भाई अली इब्ने हुसैन का पत्र मिला। पत्र मिलते ही राजा समुद्रगुप्त ने जल्दी ही एक वीर सैनिकों की टुकड़ी तैयार करके उसे कर्बला की तरफ रवाना किया। उस वीर सैनिकों की टुकड़ी के सरदार का नाम रेहब दत्त था जो ब्राह्मण थे लेकिन अफसोस की यह वीर सपूतों की टोली जब कर्बला पहुंची तो हजरत हुसैन को शहीद किया जा चुका था।
उपरोक्त जानकारी देते हुए प्रोफेसर सैय्यद अतहर हुसैन रिज़वी उर्फ नवाब राजू फतेहपुरी ने बताया कि यह देख कर इन वीर सपूतों ने अपनी तलवार अपनी गर्दन पर रख लीं और कहा कि अब जी कर ही क्या करेंगे। अरब के वीर योद्धा हज़रत मुख्तार के मना करने पर इन लोगों ने अपने गलों से तलवार हटाई और जनाब मुख्तार के साथ मिलकर एक यादगार युद्ध किया और उनको हिंदुस्तानी तलवार के जौहर दिखाए जहां पर इन वीर सपूतों ने युद्ध किया था आज भी उस स्थान को हिन्दिया के नाम से जाना जाता है कुछ वीरगति को प्राप्त हो गए और कुछ वहीं रुक गए तथा कुछ भारत देश लौट आए।