गाजियाबाद

लॉकडाउन : भयभीत लोग घरों तक पहुंचने को हैं मजबूर, लोकडाउन से डरे हुए लोग लोकडाउन को तोड़ रहे हैं?

Arun Mishra
29 March 2020 9:40 AM GMT
लॉकडाउन : भयभीत लोग घरों तक पहुंचने को हैं मजबूर, लोकडाउन से डरे हुए लोग लोकडाउन को तोड़ रहे हैं?
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कोरोना के फैलने के खतरे को लेकर सरकार द्वारा किया गया लोक डाउन ही कोरोना के फैलने का बहुत बड़ा कारण बनने जा रहा है

माजिद अली खान (राजनीतिक संपादक)

गाजियाबाद : सुबह सात बजे का वक्त, गाजियाबाद में जीटी रोड और लखनऊ दिल्ली हाइवे का चौराहा लाल कुआँ भीड़ से खचाखच. यूपी, हरियाणा व राजस्थान रोडवेज की हज़ारों बसें लोगों से फुल. बसों की छतों पर बैठे कोरोना और दुर्घटना से टक्कर ले रहे लोग. अजीब विचलित करने वाला नज़ारा. अक्सर ऐसी भीड़ राजनीतिक दलों की रैलियों में दिखाई दे जाती है. जवान मर्द औरत औरत बच्चे व बूढ़े सब अपने घर जाने के लिए परेशान, यूपी के आखिरी ज़िले के ही नहीं बल्कि बिहार और मध्यप्रदेश तक पहुंचने की कोशिश करते लोग लोक डाउन से डरे हुए और लोक डाउन को तोड़ते नज़र आए. इंदिरापुरम जैसी आबादी में कोरोना का डर और पैदल परिवारों के साथ सैकड़ों हज़ारों किलोमीटर की यात्रा करने वालों में कितना अंतर दिखाई दिया.

कोरोना के फैलने के खतरे को लेकर सरकार द्वारा किया गया लोक डाउन ही कोरोना के फैलने का बहुत बड़ा कारण बनने जा रहा है. यदि विज्ञान और मैडिकल सलाह पर ध्यान दिया जाए तो लगता है कि यदि ऐसे हजूम में लोग जहाँ पहुंचेंगे तो कोरोना के मरीज़ करोड़ों में होंगे जैसा विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी चेताया है लेकिन यदि लोग बचे रहते हैं तो यही कहना पड़ेगा कि दुनिया को ईश्वर ही चला रहा है.

जैसे तैसे अपने घर पहुंचने की धुन मे पैदल चले जा रहे परिवार में जिसमें पति पत्नी और दो बच्चे भी थे बात करने पर पता चला कि यदि यह लोग रुके रहते और कोरोना से बच भी जाते तब भी इनकी आफतें कम होने का नाम न लेती. मज़दूरी से दो वक्त की रोटी जुटाने वाले करोड़ों लोग शहर में रहकर कर्ज़ में डूब जाते और ज़िन्दगी भर उस कर्ज़ को चुकाते चुकाते रोज़ाना मरते. ऐसे ही कई परिवारों से बात करने पर बहुत सारे कारण सामने आए जिसका जवाब सरकार के पास भी नहीं हो सकता. इन लोगों का पक्ष अपने आप में मजबूत दीखता है लेकिन एक गरीब देश की सरकार के पास जिसकी व्यवस्था पहले ही लचर हो तो लोक डाउन के अलावा विकल्प ही क्या था. लेकिन सरकार की लापरवाही को कम नहीं किया जा सकता.

सरकार को फरवरी से ही कदम उठाने चाहिए थे लेकिन सरकार अपने राजनीतिक एजेण्डा में लगी रही, सरकार गिराने बनाने का खेल, ट्रंप की मेहमाननवाजी के चक्कर में ऐसी उलझी रही कि आनन फानन में ऐसा फैसला लेना पड़ा कि करोड़ों लोगों की जान का खतरा पैदा हो चुका है. और ऐसा क्यों न हो जब दुनिया के आर्थिक माफिया ये बातें कहने लगे हैं कि दो अरब लोग दुनिया पर बोझ है और वो किसी न किसी सूरत कम होनी चाहिए. दुनिया के पूंजीवादी यही चाहते हैं कि एक बड़ी आबादी खत्म हो जाए. हो सकता है कि हमारी सरकार की भी यही मंशा हो कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.

दिन रात पैदल सफर पर निकलने वाले लोगों को कोरोना का इतना भय नहीं है जितना अपने भविष्य को लेकर और पेट भरने को लेकर है, सरकार भी किश्तों में घोषणा कर रही है. ऐसा लग रहा है जैसे केंद्र सरकार और राज्यों की सरकारों में तालमेल का अभाव है. नोटबंदी के हुए अचानक फैसले ने भी यही तबाही मचाई थी और सरकार ने तब भी घड़िलाली आंसू बहा दिए थे और आश्वासन दिया था कि जल्दी ही हालात ठीक हो जाएंगे लेकिन तब से अब तक अर्थव्यवस्था की तबाही रुकी नहीं है. लोगों को झेलने की आदत है झेलते रहेंगे और राजनीतिक लोग ऐसे ही मज़े लूटते रहेंगे मगर याद रखना चाहिए कि ऊपर वाले की लाठी बेआवाज़ नहीं है. सरकार में बैठे लोगों को समझना चाहिए कि सरकारें बदलती भी रहती हैं और ये भी बदल सकते हैं

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