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फ़तवेबाज़ों के मुंह पर तमाचा, रफ़त के अंगदान से मिला 4 लोगों को जीवनदान
ग़ाज़ियाबाद के इंदिरापुरम में रहने वाली रफ़त परवीन के परिवार वालों ने उसके ब्रेन डेड होने पर उसके अंग दान करके चार लोगों की ज़िंदगी बचा कर एक मिसाल क़ायम की है. उनके इस जज़्बे की जितनी तारीफ़ की जाए कम है. रफ़त की परिवार वालों के इस क़दम की ख़ूब तारीफ़ हो रही है. होना भी चाहिए. क्योंकि उनका क़दम साहसिक होने के साथ एतिहासिक भी है.
दरअसल रफ़त के परिवार वालों का का ये क़दम मुसलमानों में शरीयत के नाम पर कूट-कूट कर भर दी गई इस जहालत के ख़िलाफ़ बग़ावत है कि इस्लाम में अंगदान हराम है. पूर्व में अंगदान करने वाले कई लोगों के ख़िलाफ़ मुफ्ती, उलेमा और मुस्लिम संस्थाओं ने फ़तवा जारी करके उनके इस क़दम को हराम करार दिया. उनका सामाजिक बहिष्कार किया गया. उन्हें इस्लाम से ख़ारिज तक बता दिया गया. इन फतवों की वजह से ही मुस्लिम समाज में अंगदान को लेकर लोग आगे नहीं आते.
सिर्फ़ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में ऐसे ही हालात हैं. दुनिया भर में बड़ी संख्या में मुस्लिम सिर्फ़ इस लिए अपनी ज़िंदगी नहीं बचा पाते कियोंकि उन्हें उनकी ज़रूरत अंग नहीं मिल पाते. पांच साल पहले ब्रिटेन में कुछ मुस्लिम डॉक्टर्स ने रमज़ान करे महीने में मस्जिदो में जारकर लोगों से अंगदान को अंगदान के महत्व और इसकी अहमियत के बारे में समझाना शुरु किया. शुरु में काफ़ी दिक़्क़तें आईं. लोग इसे अपने मज़हब के ख़िलाफ़ बताकर इससे कतराते थे. लेकिन धीरे-धीरे लोग खुशी-खुशी आगे आने लगे.
ब्रिटेन में मुसलमानों की आबादी करीब 30 लाख है. इनमें से ज़्यादातर मुसलमान दक्षिण एशियाई मूल के हैं. भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश से जाकर लोग बर्मिंघम सहित कई प्रमुख शहरों और क़स्बों में बस गए हैं. यहां मुसलमानों की आबादी 21 फ़ीसदी से अधिक है. इन इलाकों में नई किडनी या लीवर के रूप में अंगदान पाने के लिए मुसलमानों को ग़ैर-मुसलमानों के मुक़ाबले साल-साल ज़्यादा इंतज़ार करना पड़ता है. मुस्लिम डॉक्टर्स के जागरूरता अभियान के बाद ये इंतेज़ार थोड़ा कम हुआ है. ब्रिटेन के एक पूर्व पुलिसकर्मी परवेज़ हुसैन को नई किडनी के लिए तीन साल तक इंतज़ार करना पड़ा. जहां उनका इलाज चला वहां 31 में कम से कम 25 मुस्लिम मरीज़ थे.
बर्मिंघम के क्वीन एलिज़ाबेथ अस्पताल में सलाहकार नेफ्रोलॉजिस्ट डॉ. अदनान शरीफ बताते हैं कि किडनी ट्रांसप्लांट नहीं होने के कारण अस्पताल में इंतज़ार कर रहे हमारे ज़्यादातर मुसलमान मरीज़ों की जान पर ख़तरा पैदा हो जाता है. मुसलमान अंगदाताओं की कमी की बड़ी वजह है. अंगदान करने के लिए सजातीय दाताओं का नहीं मिलना. ये कमी इसलिए है क्योंकि इस बात पर अभी भी भ्रम बना हुआ है कि इस्लाम के अनुसार अंगदान करना सही है या ग़लत. इस भ्रम के दो कारण हैं. पहला, क़ुरआन में कहीं भी इस बात का सीधे तौर पर ज़िक्र नहीं है. दूसरा इस बारे में मुसलमान धर्मगुरुओं की अलग-अलग राय है.
भारत में भी लगभग यही हालात हैं. कई बार लोग अपने सगे रिश्तेदारों तक को अपने अंग देने से मना कर देते हैं. हमारे देश के मुस्लिम समाज के बीच अंगदान जैसे मबत्वपूर्ण मुद्दे को लेकर संगठित रूप से कोई जागरूकता अभिचान भी नहीं चलाया जा रहा है. ऐसा शायद उलेमा और मुस्लिम धार्मिक संगठनों के फ़तवों के डर की वजह से नहीं हो पा रहा. पिछले कुछ साल में देस के अलग-अलग हिस्सों में ऐसे अंगदान को हराम क़रार देने वाले कई ऐसे फ़तवे आए है जिनकी वजह से अंगदान करने का मन बनाने वालों को अपने क़दम पीछे खींचने पड़े हैं.
तेलंगाना राज्य ने 2013 से 2016 के बीच 241 ब्रेनडेड लोगों से अंगदान से 1000 लोगों की ज़िंदगी बचाने का रिकॉर्ड बनाया. इनमें 39 मुसलमान थे जिन्हें किडनी या लिवर अंगदान के ज़रिए मिले. लेकिन एक भी डोनर मुसलमान नहीं था. लगभग ऐसी स्थिति दूसरे राज्यों में भी है. मुसलमान अंग लेने के प्रति तो उतसाहित दिखते हैं लेकिन अंगदान के प्रति एकदम उदासीन नज़र आते हैं. अंगदान के लिए कोई आगे जागरूक मुसलमान आने की कोशिश भी करता है तो फ़तवे की बेड़िया इसके पांव रोक देती हैं।
पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी सैयद किरमानी की इसकी मिसाल है. 2018 में उन्होंने चेन्नई में आंखें दान करने के लिए बने रोटरी राजन आई बैंक और रोटरी क्लब ऑफ मद्रास की तरफ से आयोजित एक कार्यक्रम में अपनी आंखें दान करने की का संकल्प लिया. तब उन्होंने कहा था, 'मैं अपनी आंखें दान कर रहा हूं, आप भी आंखें दान करें.' बाद में वो इस संकल्प से मुकर गए. उन्होंने कहा कि वो एक भावुक इंसान हैं और उस वक़्त राजन की पहल से इतना प्रभावित हुए कि अपनी आंखें दान देने की बात कह दी. हालांकि, कुछ धार्मिक मूल्यों के कारण अपनी प्रतिबद्धता का सम्मान करने में सक्षम नहीं हो सका. ज़ाहिर हैं कि वो अपने मन में बैठी इसी धारणा की वजह से पीछे हटे कि अंगदान करना इस्लाम में हराम है.
साल 2018 में उत्तर प्रदेश के कानपुर के रहने वाले अरशद मंसूरी ने मेडिकल के छात्रों को शोध के अपना शरीर दान करने की घोषणा की तो उनके ख़िलाफ़ फ़तवा जारी हो गया. पहले उन्होंने अपनी आंखें दान करने की बात कही थी. अरशद मंसूरी एक निजी मेडिकल कॉलेज में जनरल मैनेजर हैं. उनके ख़िलाफ़ फ़तवा जारी करने वाले इमाम मौलाना हनीफ़ बरकती ने कहा कि अंगदान करना उनके धर्म के ख़िलाफ़ है. फ़तवे में अरशद के सामाजिक बहिष्कार करने की अपील की गई. अरशद को फोन पर धमकिया मिलने लगीं. उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए पुलिस में शिकायत दर्ज करानी पड़ी.
अंगदान दो तरह से होता है. पहला ज़िंदा व्यक्ति का अंगदान करना और दूसरा व्यक्ति के मर जाने के बाद या ब्रेनडेड की स्थिति में. जीवित व्यक्ति ख़ुद अपने अंगदान की वसीयत करनी पड़ती है. जबकि मरने या ब्रेनडेड की स्थिति में उसके परिवाप वाले अंगदान का फैसला करते है. मुस्लिम धर्मगुरुओं की राय हर मामले की तरह इस पर भी बंटी हुई है. ज़्यादातर का मानना है कि इंसान अपने शरीर का मालिक नहीं हैं लिहाज़ा वो अंगदान करने का अधिकार नहीं रखता. सथा ही ये भी माना जाता है कि अंगदान एक तरह का अंगभंग हैं और इससे मरने वाले की आत्मा परेशान होती है.
वहीं कुछ उलेमा ऐसे लोग भी हैं जिनकी इस बात में गहरी आस्था है कि अंगदान इस्लाम की ओर से दिए गए सबसे ख़ूबसूरत तोहफ़ों में से एक है. वो मानते हैं कि किसी का जीवन बचाना उसे बेशकीमती उपहार देना . इस्लाम में जान बचाने के लिए हराम चीज़ें खाने तक की इजाज़त गई है.
ऐसे में अगर रफ़त के परिवार वालों ने ब्रेनडेड होने पर उसके अंगदान करके चार लोगों की ज़िंदगी बचाई है तो उनके अस क़दम को साहसिक माना ही जाना चाहिए. दरअसल उन्होंने वही किया है जो एक मुसलमान के लिए अल्लाह का हुक्म है. क़ुरआन की सूरह अल बक़रा की आयत नंबर 219 में कहा गया है, '.....और तुम से लोग पूछते हैं कि अल्लाह की राह में क्या ख़र्च करें? तुम उनसे कह दो कि जो तुम्हारी ज़रुरत से ज़्यादा हो। यूँ अल्लाह अपने एहकाम (आदेशों को) अपनी आयतों मैं साफ़ साफ़ बयान करता है।'
रफ़त के ब्रेनडेड होने के बाद उसके लिए दिल, जिगर और गुर्दे की की कोई ज़रूरत नहीं रह गई थी. अगर इसके परिवार वालों ने इन्हें दान करके चार लोगों की ज़िंदगी बचाई है तो इस्लामी विचारधारा के मुताबिक उन्होंने चारगुनी इंसानियत को बचाया है. क़ुरआन में ही कहा गया है कि जिसने एक इंसान का क़त्ल किया उसने पूरी इंसानियत का कत्ल किया. जिसने एक इंसान की जान बचाई उसने पूरी इंसानियत की जान बचाई. इसी लिए रफ़त के परिवार वालों का यह क़दम फ़तबाज़ मौलवियों और मुफ़्तियों के मुंह पर तमाचा है.