गाजीपुर

गाजीपुर से इसलिए हार गये मनोज सिन्हा!

Special Coverage News
30 May 2019 10:04 AM GMT
गाजीपुर से इसलिए हार गये मनोज सिन्हा!
x

Ratnakar Tripathi : सोचा था कि मौन ही रहूँगा, पर अति हो गयी है तो लिखना ही पड़ रहा है… जिन्होंने मनोज सिन्हा के लिए एक वोट भी ना माँगा होगा, वे भी ऐसे आर्तनाद कर रहे हैं जैसे उनकी जीवन भर की पूंजी लूट गयी हो। गाज़ीपुर वालों को इतना श्राप दिया जा रहा है कि अगर इन श्रापियों में साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की शक्ति होती तो गाज़ीपुर में आज कलिंग का नज़ारा होता, चारों ओर शव बिखरे होते और लोगों के अपने-अपने अशोक, बुद्ध की शरण में जा चुके होते।

अगर वाकई में मनोज सिन्हा से इतनी मोहब्बत है तो गाज़ीपुर की जनता को मत गरियाइये, हार की गहराइयों में जाइये। मनोज जी को वहां की जनता ने पिछली बार की अपेक्षा 1 लाख 40 हज़ार वोटों से धनी बनाया है और यही वोट उनकी विकास की बानगी हैं।पिछली बार अलग-अलग लड़े सपा-बसपा प्रत्याशियों के कुल वोट लगभग 5 लाख 16 हज़ार थे, अफ़ज़ाल इसमें मात्र ५० हज़ार का बढ़ावा कर पाए हैं। तो फिर विकास की धारा बहाने वाले मनोज सिन्हा हारे क्यों? कुछ सत्य कटु होते हैं, पचते नहीं हैं, फिर भी होते तो सत्य ही हैं।

सांसद से मंत्री बन चुका नेता देश की धरोहर हो जाता है, ऐसे में वो अपनी राजमुद्रा देकर जिन लोगों को क्षेत्र की रखवाली सौंपता है, जनता उन्हें ही सांसद समझ बैठती है और उनके कर्मों की सज़ा राजा को दे बैठती है। पुल, सड़क, बिजली, रेल के अलावा भी छोटी-छोटी जरूरतों की एक बड़ी दुनिया होती है, और वोटर नेता को इन्हीं जरूरतों की कसौटी पर ज्यादा कसता है। ज़रा गहन मनन कीजिये कि क्या उनकी राजमुद्रा थामे लोग क्षेत्र की जनता की उम्मीदों पर खरे उतरे या फिर अपने विस्तार में मगन रहे। बस इतना समझिये कि अगर जिलाध्यक्ष और एमएलसी साहब के बूथों पर वोट नदारद हैं तो जनता के मन में चल क्या रहा था? जनता ने मनोज जी को नहीं, उनके इन नुमाइंदों को हराना चाहा, यह बात दीगर है कि इस कोशिश में विकास-वृक्ष धराशायी हो गया। ये लोग तो एक बानगी है, ना जाने किन-किन के कर्मों से विकास-वृक्ष कहाँ -कहाँ इसी तरह काटा गया होगा।

एक हुजूम उन शुभचिंतकों का था, जो गाज़ीपुर में विकास-पुरुष मनोज सिन्हा, घोसी में अपराध-पुरुष अतुल राय और बेगूसराय में देशतोड़क-पुरुष कन्हैया कुमार का साथ ही प्रचार कर रहा था; जातिवाद के इन इन दीमकों ने भी मनोज जी के खासे वोट खाये।

जब देश की जनता को राजनीति से इतर चस्का लगाया जाएगा, तो परिणाम भी कुछ वैसा ही आएगा। रविकिशन, अतुल राय और अफ़ज़ाल पूर्वांचल में सिनेमा, पैसा और अपराध के बढ़ते जलवे का परिणाम हैं; जब राजनीति की फसल छोड़ कर अपराध, उन्माद और नृत्य-भांड का चरस बोया जाएगा तो फसल विनाश-पुरुष की ही निकलेगी, विकास-पुरुष की नहीं।

अगर आप मनोज सिन्हा के सच्चे शुभचिंतक हैं, तो ये बातें उन्हें जरूर बताइये, क्योंकि ऐसा ना हो कि इस बार मंत्री बनने बाद फिर बदस्तूर ऐसा ही चलता रहे और अगला चुनाव भी खराब हो जाए; क्योंकि मनोज सिन्हा चुनाव के योद्धा हैं, राज्यसभा के नहीं, वे आगामी चुनाव जरूर लड़ेंगें, आपकी सलाह उनके काम आएगी।

Navneet Mishra : गाजीपुर में मनोज सिन्हा की अप्रत्याशित हार के कारण तलाशने के लिए कुछ क़रीबी लोगों से बात करने पर चौंकने वाला सच सामने आ रहा। पाँच में से तीन लोगों ने कहाकि कार्यों और साफ़-सुथरी छवि से सिन्हा के बढ़ते क़द और मज़बूत परसेप्शन के आगे यूपी के कुछ बीजेपी नेता ख़ुद को बौना साबित पा रहे थे।राजनीति की रेस में सिन्हा से बहुत पीछे छूट जाने की उनके अंदर असुरक्षा घर कर गई थी। जनता सिन्हा-सिन्हा कर रही थी और कीर्ति पताका ग़ाज़ीपुर से दिल्ली तक फहरा रही थी। बस क्या था कि मठाधीशों ने सिन्हा की ऊँची उड़ती पतंग की डोर मौक़ा मिलते ही काट दी। लहर कितनी भी मज़बूत हो, चुनाव उचित प्रबंधन से जीते जाते हैं। ऐसा न होता तो करिश्माई चेहरे वाले मोदी को अमित शाह जैसे इलेक्शन मैनेजर की जरूरत ही न पड़ती।

इस बार सिन्हा के 'इलेक्शन मैनेजमेंट' में लंबा गेम होने की ख़बर है।खेल में शामिल नेताओं के ही कैंप से हार का ठीकरा सिन्हा पर फोड़ने के लिए यह बातें प्लांट कराई जा रही कि सिन्हा साहब भूमिहारवाद के कारण हारे। कुछ बड़े ठेके राय/सिन्हा टाइप के लोगों को दिलवाए। ठेकों का सच मैं नहीं जानता मगर यह कॉमन सेंस की बात है कि ठेकों से सिर्फ़ चंद ठेकेदार का हित जुड़ता है, वही प्रभावित होते हैं, एक ठेके के ज़्यादा से ज़्यादा सौ दावेदार होते होंगे। एक को नहीं मिला तो ९९ नाराज़ होंगे तो क्या ये मुट्ठीभर ठेकेदार चुनाव हरवा सकते हैं? मेरे ख़्याल से ठेका किस जाति को मिल रहा है, जनता को इससे उतना मतलब नहीं होता जितना कि उस ठेके से हुए काम से मतलब होता है।

सुना है कि बीजेपी नेतृत्व सिन्हा की सीट पर हार के कारणों की अलग से समीक्षा करा रहा। क्योंकि मामला चौंकाने वाला है। ख़ुद मनोज सिन्हा अपनी हार में ज़िम्मेदार हाथ की तलाश में जुटे हैं। वैसे यह भी कहा जा रहा है कि अतीत में मुख्यमंत्री के लिए नाम उछलना भी इस चुनाव में भारी पड़ गया। चुनाव में मदद के लिए ज़ब अतीक अहमद को दूर से घर की जेल में शिफ़्ट करने की कोशिश की जा सकती है, तब मनोज सिन्हा को हराने के लिए अफजाल अंसारी की मदद क्यों नहीं हो सकती। यही तो राजनीति है।

पत्रकार द्वय रत्नाकर त्रिपाठी और नवनीत मिश्रा की एफबी वॉल से.

Tags
Special Coverage News

Special Coverage News

    Next Story