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- सोच कबीलाई, सपना विश्व...
हाथरस में दलित लड़की से हुए गैंगरेप में की गई नृशंसता ने देशभर में उन लोगों को झकझोर कर रख दिया है, जिनमें जाति अभी तक इंसानियत के ऊपर हावी नहीं हुई है। जातीय विषपान करके इंसानियत को बहुत पहले ही दफन कर चुके लोगों के लिए जरूर यह कोई ऐसी घटना नहीं है, जिसको लेकर पूरे देश में हाय तौबा मचाई जाए...क्योंकि जिस लड़की के साथ यह वीभत्सता हुई है, उसके पहले दलित शब्द जो उन्हें नजर आ गया है।
हत्या, बलात्कार या किसी भी अन्य तरह की दरिंदगी, अन्याय, अपराध को एक नजर से देखना केवल उन्हीं के लिए संभव होता है, जो जन्म भले ही किसी प्रान्त, धर्म, सम्प्रदाय या जाति में लें लेकिन उनके लिए इंसानियत ही सबसे पहले आती है। जिनकी आंखों पर प्रान्तीयता, धर्म, सम्प्रदाय, जाति, संस्कृति आदि का चश्मा चढ़ा होता है, उन्हें फिर हत्या, बलात्कार, दरिंदगी, अपराध, अन्याय आदि को भी उसी चश्मे से देखने की आदत हो जाती है।
लिहाजा दलित लड़की से गैंगरेप जैसा शब्द सुनते ही वे इसे इग्नोर कर देते हैं। शायद इसीलिए दलित के साथ कुछ भी घटित हो जाने पर भी उनमें वह संवेदना नहीं पैदा हो पाती, जो निर्भया आदि कांडों में देशभर में देखने को मिल चुकी है।
इस गैंगरेप के चारों आरोपी किस जाति के हैं, यह मुझे नहीं पता। मैं जानना चाहता भी नहीं। मीडिया उन्हें दबंग और लड़की को दलित लिख रहा है तो इससे यही लग रहा है कि वे कम से कम दलित तो नहीं ही हैं। अगर कानून की नजर से देखा जाए तो वे आरोपी जो भी हैं, उनकी जाति अहमियत नहीं रखती... ठीक उसी तरह, जिस तरह गैंगरेप की शिकार युवती की जाति कोई अहमियत नहीं रखती।
लेकिन जिस देश में महज जाति के आधार पर लोग अन्याय, अपराध, शोषण, अत्याचार, दरिंदगी, भेदभाव या बुरा बर्ताव करते आये हैं, उस देश में दोनों पक्षों की जाति जानना बेहद जरूरी हो जाता है।
जाति जानकर ही हम यह जान सकते हैं कि आखिर किस हद तक गिरकर हम अपने समाज में जातीय जहर घोल चुके हैं। इस जहर से अगर दलितों, पीड़ितों, शोषितों, कमजोरों आदि को नहीं बचाया गया तो हमारा देश अपने अतीत की तरह न जाने कितने झंझावातों को झेलता रहेगा। एक खुशहाल, संपन्न, समान अवसरों से भरा विकसित व आधुनिक देश और समाज बनाने का सपना अगर हम देख रहे हैं तो हमें हर कीमत पर अपने देश/समाज से जाति के इस जहर को साफ करना होगा। इसके लिए हमें सबसे पहले इंसान तो बनना ही होगा...