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बदलती तस्वीर : सरकारी स्कूलों में बढ़ते दाखिले का मतलब
कुशीनगर। उदारीकरण के बाद से सरकारी शिक्षा की गिरती स्थिति चिंता का सबब रही है। इस वजह से सरकारी तंत्र में वे ही माता-पाता अपने बच्चों को दाखिला कराते रहे हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति निजी स्कूलों के भारी-भरकम खर्च को उठा पाने लायक नहीं रही या फिर जिनके सामने दूसरा कोई विकल्प नहीं रहा। नतीजतन सरकारी स्कूलों में छात्रों का नामांकन लगातार घटता रहा है।
कोरोना की वजह से इस स्थिति में बदलाव नजर आ रहा है। गत वर्षों की तुलना में सरकारी स्कूलों की तरफ रुझान बढ़ गया हैं।सवाल यह है कि क्या सरकारी तंत्र में लोगों का भरोसा बढ़ रहा है या निजी स्कूलों की तुलना में सरकारी स्कूलों में बेहतर पढ़ाई होने लगी है?
समाजसेवियों, बुद्धिजीवियों की नजर में निश्चित तौर पर दोनों ही स्थितियां नहीं हैं। लोककल्याण का दावा करने वाली तमाम सरकारें निजी स्कूलों पर कोरोना काल में फीस न लेने, फीस न चुका पाने वाले बच्चों को स्कूल से नहीं निकालने का आदेश देती रहीं, लेकिन हकीकत में निजी स्कूलों ने अपनी मनमानी जारी रखी। पब्लिक स्कूल पिछले दो साल की कसर मौजूदा सत्र के आखिरी छह महीनों में ही पूरी करने में जुट गए,
लिहाजा माता-पिता भारी-भरकम रकम चुकाने असमर्थ हैं। कम से कम इस स्थिति से सरकारी स्कूल दूर हैं। उनके यहां कोई छिपी हुई रकम बतौर फीस नहीं वसूली जानी है। उन माता-पिता का सरकारी स्कूलों पर भरोसा बढ़ा है, जिनकी आमदनी कम हो गई है या फिर नौकरी छूट गई है। चूंकि सरकारी स्कूलों में नामांकन बढ़ा है, स्पष्ट है कि इसका असर निजी स्कूलों के नामांकन में गिरावट के तौर पर दिख रहा है।
सरकारी विद्यालयों में बच्चों के बढ़ते नामांकन ने उन पर गुणवत्ता युक्त शिक्षा देने का दबाव बढ़ा दिया है, वहीं चौथाई बच्चों तक स्मार्टफोन न होना व्यवस्था के लिए परेशानी का सबब हो सकता है। जाहिर है कि दोनों ही स्थितियों में व्यवस्था और तंत्र पर ही जिम्मेदारी बढ़ती है। भावी भारत के बेहतर भविष्य के लिए इनसे उसे कुशलतापूर्वक निपटना ही होगा।