लखनऊ

26 साल बाद साथ आई सपा बसपा लिख देगी यूपी में नई इबारत!

Special Coverage News
10 March 2019 5:26 PM GMT
26 साल बाद साथ आई सपा बसपा लिख देगी यूपी में नई इबारत!
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43.6 फीसदी वोट भाजपा गठबंधन को 2014 में
42.98 फीसदी सपा-बसपा, रालोद को मिलाकर
2014 में सपा-बसपा-रालोद से ज्यादा था भाजपा-अपना दल का वोट शेयर
2017 में सपा-बसपा-आरएलडी ने भाजपा गठबंधन से 4.5% ज्यादा वोट लिया

उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार की दूसरी वर्षगांठ की तैयारियों के बीच 2019 की चुनावी जंग का अखाड़ा सज गया है। 2014 के लोकसभा व 2017 के विधानसभा चुनाव में सफलता के झंडे गाड़ने वाली भाजपा को चुनौती देने के लिए सपा-बसपा ने गठबंधन किया। अब भाजपा के सामने मोदी मैजिक बरकरार रखने की चुनौती है तो सपा-बसपा गठबंधन उसका तिलिस्म तोड़ने के लिए ताकत झोंक रहा है। नए सियासी हालात में भाजपा की राह कंटीली है तो गठबंधन की पथरीली।


यूपी ने एनडीए को 73 सीटें देकर नरेंद्र मोदी के लिए प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ कर दिया था। वोट शेयर की अगर बात करें तो भाजपा को 42.63 प्रतिशत, सपा को 22.35 प्रतिशत, बसपा को 19.77 फीसद, कांग्रेस 7.53 और अन्य को 7.72 प्रतिशत वोट मिले। उत्तर प्रदेश की जनता ने मोदी में भरोसा दिया और उसे प्रचंड बहुमत दिया। यहां की जनता ने भाजपा को छोड़ किसी भी दल में भरोसा नहीं जताया। अब अगर इसमें सपा, बसपा और रालोद का वोट बेंक 43 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिला था। इससे भी लगता है कि अगर 2014 में भी यह मिलकर लड़ते तो यूपी में दूसरी तस्वीर होती


वोट शेयर की करें तो बीजेपी को करीब 40 प्रतिशत वोटरों का साथ मिलता दिख रहा है। एसपी और बीएसपी को 22-22 प्रतिशत और कांग्रेस को करीब 6 प्रतिशत वोट मिलते दिख रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में बीएसपी की जो दुर्गति हुई थी, वैसी ही दुर्गति कुछ इस बार भी हुई। बीएसपी का 2014 लोकसभा चुनाव में जहां खाता तक नहीं खुला वहीं विधानसभा चुनाव में भी उसकी हालत खराब रही। सपा बसपा और रालोद का वोट मिलाकर 45 प्रतिशत होता है

केंद्र में पांच और राज्य में दो साल से सरकार चला रही भाजपा को रोकने के लिए सपा-बसपा 26 साल बाद साथ आए हैं। दोनों का मजबूत सामाजिक-जातीय आधार है। अखिलेश यादव व मायावती का नेतृत्व है तो भाजपा के पास सरकार की उपलब्धियां, मजबूत संगठन, मोदी-योगी और अमित शाह जैसी लीडरशिप है। गठबंधन से निसंदेह भाजपा की चुनौती बढ़ी है। ऐसे में अहम सवाल यह है कि क्या भाजपा यूपी में जीत का रिकॉर्ड कायम रख पाएगी ? क्या 1993 की राम लहर में भाजपा को सत्ता से रोकने वाले सपा-बसपा गठबंधन की धार अब भी उतनी ही है?

राजनीतिक पंडित 1993 से 2019 की तुलना को वाजिब नहीं मानते। तब चतुष्कोणीय मुकाबले के हालात थे। अब ज्यादातर सीटों पर सीधे और कुछ जगह तिकोने मुकाबले के आसार हैं। 1993 विधानसभा चुनाव में भाजपा को 33.3 प्रतिशत, सपा-बसपा गठबंधन को 29.06, कांग्रेस को 15.08 और जनता दल को 12.3 फीसदी वोट मिले थे। अब भाजपा का वोट बैंक बढ़ा है, कांग्रेस कमजोर हुई है।

सपा-बसपा गठबंधन का जातीय आधार ओबीसी, अजा और मुस्लिम हैं। इनमें नौ-दस प्रतिशत यादव, 12 फीसदी जाटव व 18 फीसदी मुस्लिमों को गठबंधन का कोर वोटर माना जाता हैं। गठबंधन की चुनौती इस पर है कि उसे पिछड़े वर्ग की गैर यादव और अनुसूचित जाति की गैर जाटव जातियों में कितना समर्थन मिलता है। भाजपा के परंपरागत वोट बैंक में सेंधमारी कर पाती है या नहीं।

उपचुनाव के नतीजों से उत्साहित सपा-बसपा पिछड़ों-दलितों की गोलबंदी की सोशल इंजीनियरिंग से लोकसभा तक पहुंचने में लगी है। वहीं, भाजपा सवर्णों के साथ गैर यादव पिछड़े और गैर जाटव अनुसूचित जातियों को साथ बनाए रखने के जतन कर रही है। इसी समीकरण से 2014 व 2017 में भाजपा ने बड़ी जीत हासिल की थी।

अब बीजेपी को गठबंधन से लड़ने के लिए लम्बी लड़ाई लडनी पड़ेगी। क्योंकि न तो पिछले लोकसभा चुनाव जैसी लहर है और न ही पिछले चुनाव जैसे मुद्दे जबकि विपक्ष के पास मौका ही मौका है। अगर कांग्रेस भी इस गठबंधन में शामिल होती तो इसके सभी उम्मीदवार जीतते और बीजेपी के आंकड़ा दहाई के भीतर होता।

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