लखनऊ

यूपी के पंचायत चुनाव क्या विधानसभा चुनाव का ट्रेलर हैं?

Shiv Kumar Mishra
12 July 2021 11:11 AM IST
यूपी के पंचायत चुनाव क्या विधानसभा चुनाव का ट्रेलर हैं?
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इसके साथ ही विपक्ष भी समझे कि अगर एकजुट नहीं हुआ तो अलग अलग सब पिटेंगे। देश के सबसे बड़े राज्य के चुनाव पर इस बार अन्तरराष्ट्रीय मीडिया की निगाहें ज्यादा रहेंगी। यह बात केन्द्र सरकार को समझने की है।

शकील अख्तर

पीछे से प्राम्टिंग (क्या बोलना है बताना) हो रही है और मीडिया अलापे जा रहा है कि उत्तर प्रदेश से विपक्ष समाप्त! दूसरी तरफ से संवाददाताओं की खबरें आ रही हैं कि बम और गोलियां चल रही हैं। एसपी को चांटा मारा, हम पीट रहे हैं। मगर स्टूडियो में बैठे संपादक और एंकर इन खबरों को नहीं सुन रहे। अगर कोई रिपोर्टर हिंसा की ज्यादा खबरें बता रहा है तो उससे कहा जा

रहा है कि जनसंख्या नीति पर बताओ। समान नागरिक संहिता पर स्टोरी कब करोगे? बस अब इन दोनों मुद्दों पर केन्द्रित करो। हिन्दु मुसलमान एंगल से स्टोरी करो। औवेसी का क्या प्रभाव है मुस्लिम मौहल्लों में यह देखो।

मीडिया अपनी स्वतंत्र हस्ती खो चुका है। इसके पास अब बाकयादा निर्देश पहुंचते हैं जिन्हें वह आदेश के तौर पर मानता है। मगर मामला मीडिया के पतन का नहीं उससे बहुत बड़ा है। देश के लोकतंत्र का।

राजीव गांधी ने लोकतंत्र को गांव, पंचायत तक पहुंचाने के लिए पंचायती राज कानून बनाया था। लेकिन यह कल्पना भी नहीं थी कि यही पंचायती राज पूरे लोकतंत्र के लिए संकट बन जाएगा।

गोदी मीडिया इसे मास्टर स्ट्रोक बता रहा है। राहुल गांधी ने व्यंग्य किया। है कि हिंसा 'मास्टर स्ट्रोक ' है। मीडिया कह रहा है कि विपक्ष को प्रत्याशी ही नहीं मिल रहे। और चार बार मुख्यमंत्री रहीं मायावती इसे हिंसा और सत्ता का दुरुपयोग तो कह रही हैं मगर निशाना सपा पर साध रही हैं।

इन परिस्थितयों में क्या होगा? अगले साल के शुरु में होने वाले विधानसभा चुनावों में भी क्या मिडिया यही कहेगा कि विपक्ष को नहीं मिल रहे प्रत्याशी? या जो अभी कहना शुरु कर दिया है वही राग रहेगा कि चुनाव घूम रहा है औवेसी के इर्द गिर्द! मीडिया और मुख्यमंत्री योगी ने अपनी तरफ से औवेसी को मुख्य प्रतिद्वंद्वी घोषित कर दिया है। औवेसी ने राज्य के दौरे शुरू कर दिए हैं। इसके बाद क्या बचता है? चुनाव किसी भी हालत में हिन्दु मुसलमान परिधि से बाहर न जाए इसकी सारे व्यवस्थाएं की जा रही हैं।

जनसंख्या नियंत्रण बिल तैयार होने की खबरें रोज प्रचारित करके माहौल में वही सवाल उठाए जा रहे हैं जिससे चर्चा का केन्द्र हिन्दु मुसलमान ही बने रहें। इतने विषय काफी हैं लेकिन अगर फिर भी कम लगें तो समान नागरिक संहिता भी हैं। जो एक और चुनावी मुद्दा बनेगा।

राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति, कोरोना की दूसरी लहर में स्वास्थ्य सेवाओं की कमियां, वैक्सीन के लिए मारामारी, गंगा में बहते शव, महंगाई, बेरजगारी, किसान आंदोलन, गिरती अर्थव्यवस्था यह सब मुद्दे हिन्दु मुसलमान डिबेट में दब जाएंगे। ऐसे में विपक्ष क्या करेगा? अभी पंचायत चुनावों को देखते हुए तो डर यह है कि क्या सपा, कांग्रेस, रालोद, लेफ्ट पार्टियों के उम्मीदवार नामांकन भी भर सकेंगे। विपक्ष के तौर पर अकेले औवेसी को खड़ा कर लिया जाएगा और चुनावों को पूरी तरह हिन्दु मुसलमान पिच पर ले जाया जाएगा।

इन सारी परिस्थितियों में सबसे मजेदार बात यह है कि पंचायत चुनावों में जो इतनी हिंसा हो रही हैं। इसमें मुसलमान कहीं नहीं है। सारी हिंसा हिन्दुओं के विरुद्ध ही हो रही है। लखीमपुर खीरी में जिस महिला प्रत्याशी की साड़ी खिंची गई से लेकर जिन अन्य प्रत्याशियों को नामांकन भरने से रोका गया सब हिन्दु समाज की हैं। मगर मीडिया में तो किसी को रोके जाने का, साड़ी खींचने का कोई जिक्र नहीं है। वहां तो हिन्दु मुसलमान डिबेट ही चल रही है। जहां कहीं यह कमजोर पड़ती नजर आती है वहां पाकिस्तान और कश्मीर ले आया जाता है।

माना जाता है कि राज्य में किसी को कोई तकलीफ हो हिन्दु मुसलमान मुद्दा उसका रामबाण इलाज है। दलित, ओबीसी, ब्राह्मण कोई अपने सवाल उठाता है उसे फौरन हिन्दु मुसलमान में उलझा दिया जाता है। दलित, ओबीसी आरक्षण लगातार कमजोर हो रहा है। इन दोनों समुदायों का आरोप है कि सामाजिक अत्याचार के बाद पुलिस अत्याचार के शिकार भी वही हो रहे हैं। पुलिस अत्याचार की शिकायत ब्राह्मण भी करते हैं। जितिन प्रसाद इस विषय को लेकर राज्य में कई ब्राह्मण सम्मेलन भी कर चुके थे। अब भाजपा में शामिल होने के बाद उन्हें ब्राह्मणों को समझाने की नई जिम्मेदारी दी गई है। वे अब ब्राह्मणों को समझा रहे हैं कि उन पर कोई अत्याचार नहीं हुआ है।

दरअसल परेशान सब हैं। क्योंकि रोजी रोटी और कानून व्यवस्था ऐसे मुद्दे हैं जिनका असर सब पर पड़ रहा है। सवर्णों पर भी और दलित, ओबीसी पर भी। लेकिन माहौल इस तरह बनाया गया है कि मुसलमान सबसे ज्यादा परेशान हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि आंदोलनों में भाग लेने पर मुसलमानों के खिलाफ ज्यादा कड़े कानूनों का इस्तेमाल किया गया। लिंचिंग को तो अब आरएसएस प्रमुख भागवत ने भी स्वीकार कर लिया है। लेकिन इन सबके बावजूद ऐसा नहीं है कि बाकी समुदायों के लिए कानून व्यवस्था अच्छी हो। पंचायत चुनाव इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं कि यहां सपा, कांग्रेस और रालोद के हिन्दुओं को ही जिला पंचायत अध्यक्ष और फिर ब्लाक प्रमुख बनने से रोका गया।

असली निशाना असहमत हिन्दु ही हैं। और उनमें खासतौर पर दलित और पिछड़े। जो सामाजिक न्याय की बात कर रहे हैं। भाजपा और संघ सामाजिक यथास्थितवाद के संगठन हैं। जो समानता और न्याय के बदले समरसता शब्द का उपयोग करते हैं। बहुत सारे सामाजिक परिवर्तन के लिए काम करने वाले नेता, राजनीतिक दल, लेखक, पत्रकार भी अनजाने में इस शब्द का उपयोग करते रहते हैं। यह उसी तरह गढ़ा गया है जैसे आडवानी ने मुस्लिम तुष्टिकरण, छद्म धर्म निरपेक्षता गढ़ा था। समरसता मतलब दलित, पिछड़े समरस हो जाएं। हमारे मुद्दों पर ही रहें। यह शब्द नया है। सामाजिक परिवर्तन, न्याय के खिलाफ ही बनाया गया है।

यथास्थितिवाद के समर्थन में। इसे दलित नेता और केन्द्रीय मंत्री रामदास अठावले ने सही से समझा था। प्रधानमंत्री मोदी को पत्र भी लिखकर इस शब्द का विरोध किया था। कहा था समानता शब्द का उपयोग किया जाए। मगर फिर उनकी सुविधाएं थोड़ी और बढ़ा दी गईं और कोरोना गो, कोरोना गो गाने पर लगा दिया गया। आठवाले भी एक उदाहरण है कि रामविलास पासवान, मायावती की तरह दलित नेताओं को किस तरह उनके मुख्य मुद्दे दलित सशक्तिकरण से भटकाया जाता है। इसके लिए ही मुसलमान का नाम सबसे ज्यादा उपयोग किया जाता है। जबकि मुख्य सिद्धांत सामाजिक यथास्थितिवाद या मनुवाद को बनाए रखने के लिए

निशाने पर आज से नहीं सदियों से दलित, अन्य पिछड़े और महिलाएं ही रहे हैं। तब भी जब मुसलमान थे ही नहीं। यह लड़ाई प्रगतिवाद और प्रतिक्रयावाद की है। लेकिन इसमें मुसलमान को सामने रखने से दक्षिणपंथियों का फायदा यह होता है कि दलित, ओबीसी अपनी वास्तविक समस्याओं को भूलकर धार्मिक रंग में रंग जाते हैं। और इसमें अगर कोई कसर रहती है तो ओवेसी जैसे नेताओं को दक्षिण से बुलवा लिया जाता है। जो अपने हर वाक्य की शुरूआत या अंत में अल्लाह का नाम लेकर भाजपा को धार्मिक शब्दावली लाने के और मौके देते हैं।

एक बार वर्ल्ड फुटबाल से पहले कई टीमों के कोच और कप्तान पोप के पास पहुंचे और कहा कि उनके लिए वे गॉड से प्रार्थना करें। पोप असमंजस में सब ईसाई, पोप को और गॉड को मानने वाले। पोप ने थोड़ा सोचा और फिर कहा कि गॉड को फुटबाल में कोई दिलचस्पी नहीं है। काश ये हमारे नेता और राजनीतिक दल भी समझें कि राम या खुदा को राजनीति में कोई इंटरेस्ट नहीं है।

इसके साथ ही विपक्ष भी समझे कि अगर एकजुट नहीं हुआ तो अलग अलग सब पिटेंगे। देश के सबसे बड़े राज्य के चुनाव पर इस बार अन्तरराष्ट्रीय मीडिया की निगाहें ज्यादा रहेंगी। यह बात केन्द्र सरकार को समझने की है।

अगर पंचायतों के चुनाव की तरह हुआ तो विदेशों में भारत की छवि को बहुत बड़ा धक्का लगेगा। यूपी के चुनाव भारतीय लोकतंत्र के लिए एक बड़ा मोड़ साबित होने जा रहे हैं। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में भाजपा लगातार तीन चुनाव जीती, गुजरात में और ज्यादा। मध्य प्रदेश में चौथी बार भी सरकार बना ली। मगर कहीं भी भाजपा ने पुलिस और गुंडा तत्वों की मदद से इस तरह विपक्ष को चुनाव लड़ने से नहीं रोका। इसका असर बहुत व्यापक होगा। विदेशों के साथ देश के अन्य सीमावर्ती और संवेदनशील राज्यों में भी। अभी बंगाल देखा। कश्मीर पर सबकी निगाहें हैं। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव ही भारत को बांधे रखने की सबसे मजबूत रस्सी है। धार्मिक उन्माद, लोकतंत्र का चीरहरण उस रस्सी को कमजोर कर रहा है। देखना है कि सत्तारुढ़ पार्टी, केन्द्र सरकार और विपक्ष इस बड़े खतरे को किस तरह समझती है।

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