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CAA NPR व संभावित NRC पर ख़ामोश रहने वाले भी जागे, सपाइयों और योगी सरकार के बीच देखीं गई एक बार फिर नूरा कुश्ती
लखनऊ से तौसीफ़ क़ुरैशी
राज्य मुख्यालय लखनऊ।किसानों के लिए बनाए गए तीनों क़ानूनों का पिछले कई महीनों से किसान विरोध कर रहा है और सरकार इसको दबाने की कोशिश कर रही हैं जैसा वह पहले भी करती आई हैं CAA NPR संभावित NRC को लेकर भी देशभर में विरोध हुआ था लेकिन उसमें सरकार के लिए यह बेहतर था उसका किसी भी गैर स्वयंभू साम्प्रदायिक दलों ने समर्थन नहीं किया था क्योंकि उसका विरोध मुसलमान कर रहा था स्वयंभू धर्मनिरपेक्ष दलों ने सड़क पर उनके साथ उतरना तो दूर मौखिक भी समर्थन नहीं किया था सिर्फ़ कांग्रेस थी जो मौखिक रूप से उस आन्दोलन में उसके साथ खड़ी थी बाक़ी मुसलमानों के स्वयंभू सियासी ठेकेदार ख़ामोशी की चादर ओढ़े सो रहे थे कोई उठने को तैयार नहीं था सोते हुए को उठाना आसान होता जागते हुए को उठाना मुश्किल होता है वह भी ग़लत क़ानून बनाने का विरोध था और यह भी ग़लत क़ानून बनाने का विरोध हैं इसमें साथ और उस आन्दोलन से दूरी यह भी समझने की ज़रूरत है बिना किसी के सहयोग के सीएए ,एनपीआर व संभावित एनआरसी के विरोध में चला आन्दोलन अपने आप में एक ऐतिहासिक था जिसको लीड करने वाली महिलाएँ थीं जिनके बारे में यह दुष्प्रचार किया जाता है कि मुस्लिम महिलाओं को बेहद बांधकर रखा जाता है कैसे मोदी सरकार से फ़र्राटेदार अंग्रेज़ी में सवाल जवाब कर रही थी कि RSS व BJP देखती रह गई थी।
किसानों के आन्दोलन में साथ देने को ग़लत नहीं कहना चाहिए और ग़लत है भी नहीं ग़लत कार्यों का विरोध होना चाहिए लेकिन यह दोहराया पन नहीं होना चाहिए बस इतना सा कहना है।ख़ैर आन्दोलनरत किसानों ने आठ दिसंबर को भारत बंद का आह्वान किया था जिसको दर्जन भर से भी ज़्यादा सियासी दलों ने समर्थन कर किसानों की सहानुभूति हासिल करने के लिए दिखावा किया था दिन भर ऐसा ही दिखाई दिया है क्योंकि उत्तर प्रदेश में सपा कंपनी के मुलाजिमों (कार्यकर्ताओं) ने घरों में बैठकर यह दर्शाने की कोशिश की है कि पुलिस ने हमें नज़रबंद कर लिया है देखा जाए तो कर भी लिया था लेकिन जिस तरह से सपा कंपनी के मुलाजिमों (कार्यकर्ताओं) ने सोशल मीडिया पर पोस्टों का खेल खेला है उससे यह लग रहा है जैसे योगी सरकार और सपा कंपनी के सीईओ के बीच अंदरूनी समझौता हुआ है कि हम कुछ नहीं करेंगे आप हमारे घरों को छावनी में तब्दील कर देना जिसके बाद कुछ होगा भी नहीं और हम यह संदेश देने में भी कामयाब हो जाएँगे की हमें योगी सरकार की पुलिस ने नज़रबंद कर लिया था नहीं तो हम किसानों के हक़ में एक बड़ा आन्दोलन करने के लिए तैयार थे किसानों को भी लगेगा कि सपाइयों ने बहुत साथ देने की कोशिश की लेकिन बेचारे मजबूर थे।
ख़ैर मोदी सरकार के द्वारा बनाए गए तीनों विवादित क़ानूनों को लेकर किसानों का संघर्ष बहुत मज़बूती के साथ चल रहा है बारह दिनों से किसान दिल्ली की सीमाओं पर डटा हुआ है और मोदी सरकार पहले तो उन पर तरह-तरह के आरोप लगा मामले को दूसरा रूप देने की कोशिशों में लगी हुई थी कोई सफलता मिलती न देख मजबूरन बातचीत करने का नाटक करने पर मजबूर हुईं हैं।इसके क्या परिणाम निकल कर आएँगे यह तो कहना मुश्किल है लेकिन इतना कहा जा सकता है कि यह लड़ाई आर-पार की होती जा रही है कुछ भी हो सरकार को झुकना ही पड़ेगा क्योंकि मोदी सरकार को जिस काम में महारत हासिल है किसी भी काम का विरोध हो उसको हिन्दु मुसलमान करा देती हैं जिसके बाद साम्प्रदायिक वायरस के हामी ख़ामोश बैठ जाते हैं और सरकार की मनसा के मुताबिक़ ऐसा हो भी जाता लेकिन यह मामला किसानों से जुड़ा है इस लिए नहीं हो पा रहा है वैसे देखा जाए तो मोदी सरकार ने इसको भी खालिस्तान व आतंकवाद और ना जानें कैसे-कैसे आरोपों से जोड़ने की कोशिश की कांग्रेस से जोड़ने की कोशिश की परन्तु मोदी सरकार की हर कोशिश नाकाम रही हैं और यह आन्दोलन देशभर की सड़कों पर फैलता जा रहा है अब इसके परिणाम क्या निकल कर सामने आएँगे ये तो आगे चल कर पता चलेगा।किसानों के द्वारा किया जा रहा आन्दोलन पूरी तरह ग़ैर राजनीतिक है और यह आन्दोलन सरकार के गले की हड्डी बनता जा रहा है ज़मीन पर किसानों के मसीहा स्वं महेंद्र सिंह टिकैत के पुत्र भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत से यह पूछे जाने पर कि क्या यह आन्दोलन आपके पिताजी के टाईम वाला आन्दोलन बन पाएगा इस पर उनका कहना था कि हाँ ज़रूर बन पाएगा अगर मोदी सरकार को होश नहीं आया तो अब यह आन्दोलन उसी और जा रहा है किसान अपनी व आने वाली नस्लों की लड़ाई लड़ रहा है और वह इसको अधूरी नहीं छोड़ेगा।देखा जाए तो राकेश टिकैत की बात में दम नज़र आता है।
हालाँकि मोदी सरकार अपने द्वारा बनाए गए तीनों क़ानूनों के साथ अभी तक मज़बूती से खड़ी है कह रही है कि हम कुछ संशोधन करने के लिए तैयार है लेकिन क़ानूनों को वापिस नहीं लिया जाएगा और किसानों का कहना है कि हम वापसी से कम पर मानने को तैयार नहीं है अब सवाल उठता है कि दोनों के बीच किस फ़ार्मूले पर काम किया जाएगा जिससे सरकार का अहम भी ज़िन्दा रहे और किसानों की नाराज़गी भी दूर हो जाए।शायद मोदी सरकार ने जो तरीक़ा निकाला है जिसके तहत किसानों के संगठनों को तोड़ा जाए और इस आन्दोलन को कमज़ोर किया जाए अब देखने वाली बात यह है कि क्या किसानों के हितों की रक्षा करने के नाम पर बने संगठन एक-एक कर टूट गोदी मीडिया की तरह मोदी सरकार की गोद में बैठ जाएँगे यह आने वाले समय में साफ हो पाएगा।अगर ऐसा होता है तो किसान अपने नाम पर बनें संगठनों को माफ़ नहीं करेगा हालाँकि इसकी संभावना बहुत कम है लेकिन फिर भी सरकार तो सरकार होती हैं वह कुछ भी खेल खेल सकती हैं।