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- यूपी में कांग्रेस...
शकील अख्तर
कभी कभी ज्यादा तेज फैंकने वाला बालर बैट्समेन पर बीमर डाल देता है। सावधान बैट्समेन इसे नहीं खेलता। और हवा में तेज जाती हुई बाल विकेटकीपर से भी गेदर नहीं होती है और सिक्सर हो जाता है। ऐसा ही कुछ प्रियंका गांधी के सरकारी आवास खाली कराने के मामले में हुआ। कोशिश तो थी प्रियंका को चोट पहुंचाने की। मगर प्रियंका डक कर गईं। कोई रिएक्शन तक नहीं दिया। और अब यह दांव भाजपा को उल्टा पड़ता लग रहा है। खासतौर से उत्तर प्रदेश में।
वैसे तो प्रियंका गांधी जब से यूपी की इंचार्ज महासचिव बनीं थी तब से सक्रिय थीं। मगर दिल्ली में मकान छीने जाने के बाद उनका यूपी में ज्यादा समय बिताना तय हो गया। जो शायद ही यूपी सरकार को रास आए। एक तरह से यूपी सरकार को यह भी लग सकता है कि केन्द्र ने दिल्ली में प्रियंका को तंग करने के लिए जो कदम उठाया वह उसके लिए मुसीबत बन गया। यूपी कांग्रेस की तो जब से प्रियंका उनकी इंचार्ज बनी थीं यह इच्छा थी कि वे लखनऊ में परमानेंट डेरा डालें। मगर प्रियंका की तरफ से उन्हें इस बारे में कोई सकारात्मक संकेत नहीं मिल रहे थे। मगर अब उनके नजदीकी लोग बता रहे हैं कि बेघर प्रियंका दिल्ली के साथ लखनऊ दोनों जगह रहेंगी। परिवार के साथ दिल्ली में तो कार्यकर्ताओं के साथ यूपी में।
यूपी में तीन दशक बाद पहली बार कांग्रेस के लिए स्थितियां साजगार होती नजर आ रही हैं। राज्य में कांग्रेस की आखिरी सरकार 1989 तक थी। उसके बाद से सत्ता तो दूर वह मुख्य विपक्षी दल भी नहीं बन पाया। चौथे नंबर की पार्टी हो गई। जाने कितने अध्यक्ष बदले इन्चार्ज बदले मगर कांग्रेस के दिन नहीं बदले। लेकिन अब राज्य में ऐसा माहौल बदला कि कांग्रेस यूपी में
सबसे ज्यादा संघर्ष करता विपक्षी दल दिखने लगा है। यूपी में सबसे संभावनाशील नेता मानी जाने वाली मायावती विलुप्त हो गईं। अमेरिका में बराक ओबामा के पहले ब्लैक राष्ट्रपति के बाद देश में और बाहर भी यह चर्चा शुरू हो गई थी कि भारत में अगर कोई दलित प्रधानमंत्री बन सकता है तो वे मायावती होंगी। मगर अब उनके वापस मुख्यमंत्री बनने तक की कोई बात नहीं करता। प्रियंका गांधी ने उन्हें भाजपा का अघोषित प्रवक्ता करार दे दिया। मगर तब भी वे कुछ नहीं बोलीं। ऐसा लगा जैसे उन्होंने इसे सर्टिफिकेट की तरह लिया हो। यूपी में वह बहुजन समाज पार्टी ही थी जिसने कांग्रेस के
नीचे से उसकी जमीन खींच ली। कांग्रेस के तीनों आधार दलित, ब्राह्मण, मुस्लिम खिसके और दलित पूरा और बाकी के दो का बड़ा हिस्सा मायवती के पास चला गया। कांग्रेस को चौथे नंबर पर धकेल कर बाकी तीनो दल भाजपा, सपा और बसपा चेयर रेस की तरह कभी कोई, तो कभी कोई नंबर एक, दो और तीन पर आते रहे। बाकी कांग्रेस की नियती नंबर चार की ही रही। मगर इस बार भाजपा की केन्द्र और राज्य सरकार ने ऐसा शिकंजा कसा कि बसपा और सपा विपक्ष की भूमिका ही भूल गए। मायवती और अखिलेश यादव दोनों सत्ता के साथ सामांजस्य बिठाते ही दिखे। विपक्षी दलों की किसी औपचारिक बैठक में भी शामिल होने का खतरा नहीं उठाया। लाकडाउन में लाखों मजदूर अपने गृह राज्य उत्तर प्रदेश वापस आने के लिए सैंकड़ों किलोमीटर पैदल चला। प्रियंका ने एक हजार बसें लगवा दीं। कांग्रेस के राज्य अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू गिरफ्तार हो गए। मगर अखिलेश यादव और मायावती कहीं भी मजदूरों के, जिनमें लगभग सभी दलित और पिछड़े थे के साथ खड़े नहीं दिखे। ऐसे में स्वाभाविक रूप से कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल के तौर पर काम करती दिख रही है।
कानपुर एनकाउंटर में 8 पुलिस कर्मियों की निर्मम हत्या के बाद मंगलवार को कांग्रेस ही राज्यपाल को कानून व्यवस्था पर ज्ञापन देने निकली। और पुलिस ने फिर उसके प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू, विधायक दल की नेता आराधना मिश्रा मोना सहित तमाम नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया।
अब कांग्रेस देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में एक नया प्रयोग करने जा रही है। उसने ब्राह्मणों को फिर से आगे लाने फैसला किया है। कांग्रेस के नेता जितिन प्रसाद काफी समय से राज्य सरकार पर ब्राह्मणों के साथ सौतेले व्यवहार का आरोप लगा रहे थे। अब उन्होंने प्रदेश भर में बड़े पैमाने पर ब्राहम्ण सम्मेलन करने का ऐलान किया है। उनका आरोप है कि उत्तर प्रदेश में खराब कानून व्यवस्था का सबसे बड़ा शिकार ब्राह्मण बन रहे हैं।
उन्होंने एक नक्शा जारी करते हुए कहा कि राज्य में पिछले दिनों 28 ब्राह्मणों की हत्या हुई। इसे वे ब्रह्म हत्या कह रहे हैं। साफ कह रहे हैं कि एक ही समुदाय निशाना क्यों? कभी ब्राह्मण कांग्रेस का सबसे मुखर समर्थक हुआ करता था। पंडित नेहरू के अलावा किसी को नेता नहीं मानता था। मगर फिर समाजवादियों ने कांग्रेस में अपने कुछ ब्राह्मण नेताओं की घुसपैठ करवाकर नेहरू पर ही सवाल उठाना शुरू कर दिए। कांग्रेस के पतन की शुरूआत वहीं से हुई। जो आरोप भाजपा आज पंडित जवाहरलाल नेहरू पर लगा रही है। वही आरोप कांग्रेस के दफ्तर में बैठकर कांग्रेस के बड़े नेता नेहरू पर लगाते थे।
ब्राह्मण कांग्रेस से छिटककर भाजपा की तरफ गया। लेकिन फिर मुलायम सरकार के दौरान 2004 -05 में ब्राह्मणों ने खुद को अपमानित महसूस करना शुरू किया। अमर सिंह उन दिनों मुलायम के खास हुआ करते थे। वे खुद को क्षत्रियों को नेता घोषित करने में लगे हुए थे। कुंडा के राजा भैया भी मुलायम सरकार में प्रभावशाली हैसियत रखते थे। ऐसे में मायावती ने ब्राह्मण सम्मान का मुद्दा उठाया। राज्य भर में उन्होंने ब्राह्मण सम्मेलन किए। सतीश मिश्रा इसके सूत्रधार थे। सम्मान और सुरक्षा के नाम पर ब्राह्मणों ने मायावती के लिए गांव गांव में माहौल बनाया। नतीजा 2007 में पहली बार मायावती की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी।
दरअसल जातिवाद के बढ़ते प्रभाव के बावजूद गांवों में दलित ब्राह्मण को अपना सबसे बड़ा मददगार पाते हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि ब्राह्मणों के साथ दलित का आम तौर फौजदारी झगड़ा नहीं होता। जमीन का विवाद भी नहीं है। मायावती ने इसके राजनीतिक निहितार्थ को समझा। दलित तो पहले ही उनके साथ था। ब्राहम्णों के साथ आने पर उसे कोई दिक्कत नहीं थी। इससे दलित और मजबूत हुआ। मायावती को फायदा यह हुआ कि हर गांव में ब्राह्मण घर था।
सामाजिक सम्मान था। उनके प्रचार के लिए निकलने से उन पिछड़ी जातियों के लोग भी साथ आ जाते थे जो संख्या में कम होने के कारण दबे रहते हैं। दलित और ब्राह्म्ण गांव में एक स्वाभाविक काम्बिनेशन माना जाता है। संख्या में दलित ज्यादा, प्रभाव में पंडित। दोनों के साथ आने से अपने आप एक माहौल बनता चला गया। आज दलित मायावती से निराश है। जिस मायावती ने उसमें यह साहस भरा था कि वह बीच बाजार नारा लगाता था " चढ़ गुंडों की छाती पर मोहर लगाना हाथी पर " वही मायावती आज खुद डरी हुई लग रही हैं। अब अगर ब्राह्म्ण कांग्रेस की तरफ मुड़ता है तो दलित और मुसलमान भी उस तरफ झुकेगा। यह कांग्रेस का परंपरागत और स्वाभाविक जनाधार है। जो कुल मतदाताओं का पचास प्रतिशत से ज्यादा होता है। इनमें सबसे कम 8-9 प्रतिशत ब्राह्म्ण है। मगर इनका प्रभाव क्षेत्र अपनी संख्या से कई गुना ज्यादा है। दलित और आदिवासी 25 प्रतिशत से ज्यादा हैं। मुसलमान 18 से 20 प्रतिशत के आसपास है। सबसे खास बात यह है कि इन तीनों समुदायों के हित आपस में नहीं टकराते।
ऐसे में जितिन प्रसाद, जिनके पिता जितेन्द्र प्रसाद खुद को एक बड़े ब्राह्म्ण नेता के तौर पर स्थापित करने में सफल हुए थे के प्रयासों पर सबकी नजर रहेगी। इसमें यह देखना और दिलचस्प होगा कि कांग्रेस के बाकी बड़े ब्राह्मण नेता उनके कितना साथ आते हैं। और कांग्रेस नेतृत्व का रुख कितना सकारात्मक रहता है।
Shakeel Akhtar
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं। नवभारत टाइम्स के राजनीतिक संपादक और चीफ आफ ब्यूरो रहे हैं)