लखनऊ

शिया और कायस्थ मतदाता हुए एकजुट तो 28 साल बाद भाजपा न सिर्फ यह सीट गंवा देगी, बल्कि भारी मतों से हार जायेगी

शिया और कायस्थ मतदाता हुए एकजुट तो 28 साल बाद भाजपा न सिर्फ यह सीट गंवा देगी, बल्कि भारी मतों से हार जायेगी
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फिलहाल गेंद अब अखिलेश यादव के पाले में है, जिन्हें किसी भी तरह से नाराज शिया धर्म गुरु को मनाना होगा तो पूनम सिन्हा को भी कड़ी मेहनत करके कायस्थ और सिंधी मतदाताओं को ज्यादा से ज्यादा संख्या में अपने खेमे में जोड़ना होगा




लखनऊ में बैठकर यहां की चुनावी फिजां बताना बहुत मुश्किल काम नहीं है बशर्ते विभिन्न तबके के लोगों से मेलमिलाप होता रहे। यहां इस वक्त एक चीज तो बहुत क्लियर है, वह यह कि भाजपा को वोट देने वाला तबका सबसे ज्यादा चिंतित और किसी से चिढ़ा हुआ है तो वह हैं सपा बसपा गठबंधन की उम्मीदवार पूनम सिन्हा। कांग्रेस उम्मीदवार प्रमोद कृष्णन को तो यहां के शिया समुदाय के अलावा कोई अन्य मतदाता वर्ग गंभीरता से ले ही नहीं रहा।


जमीन पर नजारा यह है कि पूनम सिन्हा ने नामांकन के बाद जबरदस्त रोड शो करने के बाद से ही बेहद तेज गति से जनसंपर्क, जनसभा, छोटे बड़े कार्यक्रमों में शिरकत आदि से राजनाथ समर्थकों की नींद उड़ा रखी है। पूनम का निशाना भाजपा का कोर वोट बैंक कायस्थ और सिंधी हैं। कायस्थ जहां लखनऊ में चार लाख से ज्यादा तादाद में है तो सिंधी भी ड़ेढ लाख से ऊपर हैं। इसलिए वह कायस्थ संगठनों और नेताओं से बराबर मिल जुल रही हैं और कायस्थ व सिंधी बाहुल्य क्षेत्रों में घर घर जाकर जनसंपर्क भी कर रही हैं। कई मजबूत स्थानीय कायस्थ नेता और संगठन पार्टी लाइन से हटकर उन्हें अपना समर्थन दे भी चुके हैं। पूनम जानती हैं कि इसी तरह आक्रामक तरीके से प्रचार अभियान छेड़ कर कायस्थ और सिंधी वोट बैंक में सेंध लगाने से वह 2014 की मोदी लहर में 5 लाख 88 हजार वोट पाए राजनाथ के वोट से बड़ी तादाद में वोट काट सकती हैं।

पूनम का अगला निशाना शहर का मुस्लिम वोट बैंक है। यहां पूनम को थोड़ी दिक्कत इसलिए है क्योंकि सपा में आजम खान और शिया धर्म गुरु मौलाना कल्बे जव्वाद के बीच के आपसी द्वंद के चलते शिया मतदाता आमतौर पर सपा से दूर ही रहते हैं। शिया मतदाताओं की नाराजगी अखिलेश यादव की भूमिका को लेकर भी है, जो इस विवाद में आजम खान के पलड़े में ही झुकते नजर आये हैं। अगर यह पेंच न फंसता तो लखनऊ का 4-5 लाख मुस्लिम मतदाता एकजुट होकर सपा- बसपा गठबंधन को वोट करता और सपा बसपा के दलित और पिछड़ा के चार से पांच लाख के सम्मिलित वोट बैंक के साथ मिलकर राजनाथ के लिए बड़ी चुनौती बन जाता । और पूनम सिन्हा द्वारा कायस्थ और सिंधी वोटों में की जाने वाली सेंधमारी से पूनम की जीत और राजनाथ की हार तय हो जाती।

अब चूंकि ऐसा नहीं है और बिना अखिलेश के शिया धर्मगुरु के मनाए, शिया मतदाताओं को गठबंधन में लाना आसान नहीं है, इसलिए फिलहाल तो यही मान लेते हैं कि 4-5 लाख मुस्लिम मतदाताओं में से 50-54 फीसदी वोट यानी दो से ढाई लाख वोट अगर पड़े तो पूनम सिन्हा के खाते में सुन्नी और कांग्रेस के खाते में शिया वोट जाएंगे। लेकिन कांग्रेस के खाते में गए शिया वोट लगभग एक से डेढ़ लाख तक होने के बावजूद बेकार ही हो जाएंगे क्योंकि कांग्रेस उम्मीदवार को इन मतों के अलावा स्थानीय स्तर पर पकड़ न होने का नुकसान होगा। न ही उन्हें किसी जाति विशेष का मत मिलने की सँभावना है।

जबकि पूनम सिन्हा के पास लाख पचास हजार मुस्लिम वोट, चार से पांच लाख दलित पिछड़ा में से 50-55 फीसदी वोट पड़े तो दो से ढाई लाख का सपा बसपा का सम्मिलित वोट और साढ़े छह लाख कायस्थ व सिंधी वोट में से 50-55 फीसदी वोट पड़े तो उसमें से भी डेढ़ दो लाख वोट झटक लेने की पूरी सम्भावना है। हालांकि कायस्थ और सिंधी मतदाता अभी पूरी तरह से अपने पत्ते नहीं खोल रहा और भाजपा से उसे पूरी तरह से विमुख कर पाना आसान नहीं है। लेकिन कुल पड़ने वाले वोट यानी तीन से साढ़े तीन लाख वोटों में से 25 से 50 प्रतिशत वोट तो इस बार पूनम सिन्हा को ही जाने हैं, इतना तो माहौल अब दिखने ही लगा है।

यानी जमीनी हकीकत यह बताती है कि अगर पिछली बार की ही तरह लखनऊ में 50 से 55 फीसदी वोटिंग हुई तो राजनाथ सिंह खासे नुकसान में रहेंगे। मोदी लहर न होने के चलते उन्हें पिछली बार के अपने 5 लाख 88 हजार में से पिछड़ा दलित मतदाताओं में से काफी मत सपा बसपा गठबंधन उम्मीदवार पूनम सिन्हा को देने ही पड़ेंगे, जो कि मेरी समझ से अगर सपा और बसपा के मतों के पिछले आंकड़ों में जोड़े जाएं तो पूनम की स्थिति को बहुत मजबूत कर देंगे। राजनाथ जहां इस वोट शिफ्ट से एक डेढ़ लाख मत खो कर 4 से साढ़े चार लाख मत पा सकते हैं, वहीं पूनम के पास सपा बसपा गठबंधन के संयुक्त मत यानी दो ढाई लाख, मुस्लिम मत 50 हजार से एक लाख और कायस्थ व सिंधी मत की डेढ़ दो लाख की सेंधमारी से पूनम भी राजनाथ के मतों के बराबर ही बहुत आराम से पहुंच रही हैं। जबकि कांग्रेस उम्मीदवार केवल शिया मतदाता ही अपने खाते में लेकर डेढ़ से दो लाख मत पा सकेंगे।

अब यहां जीत हार का सारा दारोमदार शिया मतदाताओं और कायस्थ मतदाताओं पर ही है। अगर कायस्थ मतदाता चुपचाप बड़ी तादाद में पूनम के पास आये तो पूनम की जीत बिना शिया मतदाताओं के ही हो जाएगी। और यदि कहीं ऐसा हो गया कि शिया मतदाताओं ने आजम खान से अपने धर्म गुरु के मतभेद के बावजूद अपने ही धर्म गुरु की अपील पर पूनम सिन्हा को दे दिया और कायस्थ मतदाता अगर 20-25 प्रतिशत भी आ गए तो भी जीत पूनम सिन्हा की ही होनी है।

और कहीं ऐसा हो गया कि शिया और कायस्थ मतदाता , दोनों ही पूनम सिन्हा के खेमे में आ गए तो 28 साल बाद भाजपा न सिर्फ यह सीट गंवा देगी बल्कि बहुत ही शर्मनाक अंतर की करारी हार के साथ।

फिलहाल गेंद अब अखिलेश यादव के पाले में है, जिन्हें किसी भी तरह से नाराज शिया धर्म गुरु को मनाना होगा तो पूनम सिन्हा को भी कड़ी मेहनत करके कायस्थ और सिंधी मतदाताओं को ज्यादा से ज्यादा संख्या में अपने खेमे में जोड़ना होगा। कृपा इन्हीं तीनों मतदाता वर्गों में ही रुकी हुई है .....

लेखक वरिष्ठ पत्रकार है

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अश्वनी कुमार श्रीवास्त�

अश्वनी कुमार श्रीवास्त�

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