लखनऊ

तो क्या बनारस नहीं, लखनऊ देगा इस बार प्रधानमंत्री!

तो क्या बनारस नहीं, लखनऊ देगा इस बार प्रधानमंत्री!
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लखनऊ के सांसद के तौर पर गृह मंत्री राजनाथ सिंह वाकई अच्छा काम कर रहे हैं। इनके काम में सांसद के रूप में लखनऊ के लिए किए गए स्वर्गीय अटल विहारी वाजपेयी जैसे कामों की झलक भी मिलती है।

अगर दलगत राजनीति से ऊपर उठकर ईमानदारी से बात की जाए तो लखनऊ का स्वरूप बेहतरीन बनाने की शुरुआत करने में सबसे पहले अटल विहारी, फिर उसे आगे बढ़ाने में मायावती, फिर अखिलेश यादव और अब राजनाथ सिंह का नाम लिया जा सकता है। इन सभी ने अपने-अपने शासनकाल में अपने-अपने तरीके से लखनऊ की कायापलट करते हुए इसे एक बेहतरीन व दिल्ली-मुंबई की टक्कर में आ सकने वाले शहर में बदलने में पूरा योगदान दिया है।

राजनीतिक चश्मे से देखने वाले लोग भले ही लखनऊ के विकास में योगदान देने में अपने-अपने तर्क देकर इनमें से किसी को पूरी तरह से खारिज कर दें लेकिन गैर राजनीतिक तरीके से देखे जाने पर शायद ही कोई व्यक्ति इनमें से किसी एक नेता को भी लखनऊ के विकास क्रम में अहमियत दिए जाने की हकीकत को झुठला सके।

अगर बात पूरे उत्तर प्रदेश की करी जाए तो बतौर मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह इस लिस्ट में शामिल बाकी मुख्यमंत्री यानी मायावती और अखिलेश की तुलना में फिसड्डी साबित रहे ही हैं, अपने ही दल के कल्याण सिंह से तुलना करने पर भी वह उनसे काफी पीछे नजर आएंगे।

लेकिन चूंकि यहां बात मैं लखनऊ की कर रहा हूँ तो सांसद के तौर पर तो राजनाथ ने इस बार कमाल ही कर दिया है। शायद ग़ाज़ियाबाद से पलायन के बाद उन्हें यह एहसास हुआ हो कि हर चुनाव में सीट बदल कर जीतने की रणनीति उन्हें कभी प्रधानमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुंचा सकती।

...और कौन नहीं जानता कि राजनाथ सिंह हमेशा से ही प्रधानमंत्री बनने के लिए कितने आतुर रहे हैं। खुद मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने भी शायद उनकी इसी महत्वाकांक्षा को भांप कर गृह मंत्रालय जैसा अहम पद देने के बावजूद उन्हें नाममात्र का गृह मंत्री ही बनाये रखा। यहां तक कि उनके सुपुत्र पंकज सिंह के जरिये उन पर अप्रत्यक्ष निशाना साधकर उनके तेवरों की भी हवा निकाल दी।

बहरहाल, अब मोदी-अमित शाह की जोड़ी चला-चली की वेला में है। सांसद के तौर पर बेहतरीन काम करके राजनाथ एक बार फिर संसद में पहुंचने के लिए पूरी तरह से मुतमईन हैं। और इस बार तो प्रधानमंत्री बनने की उनकी दबी हुई महत्वाकांक्षा फिर से हिलोरें मारने लगी है...वजह साफ है। पिछली बार उम्मीद नहीं थी मगर स्पष्ट बहुमत आ गया और इस कारण राजनाथ बतौर भाजपा अध्यक्ष अपने ही खड़े किए हुए प्यादे को बादशाह बनता चुपचाप देखते रह गए...जबकि इस बार तीन अहम दुर्गों से भाजपा को खदेड़े जाने के बाद उन्हें भी बाकी लोगों की तरह यह यकीन हो ही गया होगा कि भाजपा बहुमत लायक सीट जुटा नहीं पाएगी।

सरकार बनाने के लिए भाजपा को सहयोगी व अन्य छोटे दलों का मुंह ताकना होगा। इसके अलावा, संघ भी इस सूरत में ताकतवर होकर उभरेगा। जाहिर है, मोदी ने अपने पांच बरस के।शासनकाल में सरकार, सहयोगी दलों, अन्य छोटे दलों या खुद संघ व पार्टी के वरिष्ठ दिग्गजों को नाराज तो किया ही होगा।

ऐसे में सर्वमान्य, सबके प्रिय, मृदुभाषी, सभी दलों में पैठ रखने वाले, उत्तर प्रदेश जैसे शक्तिशाली राज्य के अहम राजपूत नेता...जो कि संघ के भी हमेशा से ही बड़े दुलारे रहे हैं और राजपूत व उत्तर प्रदेश के समीकरण के चलते पार्टी में भी खासे मजबूत रहे हैं...ऐसे राजनाथ को भला फिर कौन सत्तारूढ़ होने से रोक पायेगा...

वह बस एक ही मामले में मोदी से मात खा गए थे और वह है जनाधार... मोदी का जनाधार पूरे भारत या भारत के बाहर फैले अप्रवासी भारतीयों तक में है...जबकि राजनाथ अपने लिए एक सीट तक के लिए तरसने वाले नेता रहे हैं। लेकिन भाजपा का इतिहास तो यही बताता है कि फिर चाहे वह राज्य हो या केंद्र...संघ और भाजपा के महारथी मिलकर ही वहां का मुखिया चुनते हैं। भले ही उस राज्य में ही नए मुख्यमंत्री का नाम बहुत ही कम लोगों ने सुन रखा हो...

लेखक अश्वनी कुमार श्रीवास्तव वरिष्ठ पत्रकार है

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