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अब यूपी में खेल सकते है मोदी ये बड़ा दांव,जिससे होगा सपा का सबसे बड़ा नुकसान
के. पी. मलिक
मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में राम मंदिर, धारा 370, ट्रिप्पल तलाक, सीएए आदि हिंदुत्व के मुद्दों पर बढ़त अवश्य बनाई थी परन्तु कोरोना महामारी, चीन के साथ तनातनी, तेजी से गिरती अर्थव्यवस्था और बढ़ती बेरोजगारी से युवाओं में बेचैनी के फ्रंट पर सरकार फेल होती नजर आ रही है। इसके चलते मोदी सरकार चारों ओर से बड़ी मुसीबतों से घिरती जा रही है। अब कृषि क्षेत्र में सुधारों के नाम पर लाए गए तीन नए बिलों का भी किसान पुरजोर विरोध कर रहे हैं। एनडीए के सबसे पुराने सहयोगी अकाली दल ने तो इस मुद्दे पर मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर मोदी के लिए एक बड़ी मुसीबत भी खड़ी कर दी है। शिवसेना पहले ही भाजपा का साथ छोड़कर जा चुकी है। अब विपक्ष को भी बैठे बिठाए किसानों को भड़काने का एक नया मुद्दा मिल गया है। मोदी सरकार के हालात भी तेजी से 2011 की मनमोहन सरकार की भांति होते जा रहे हैं, जब पूरे देश में सरकार के खिलाफ अन्ना आंदोलन खड़ा हो गया था। उधर मोदी के प्रमुख सिपहसालार अमित शाह की तबियत भी इस नाज़ुक वक्त में नासाज़ चल रही है। अरुण जेटली जैसे संकट मोचक अब मोदी के पास नहीं हैं। ऐसे में उत्तर प्रदेश की राजनीति भी एक नई करवट लेती दिखाई दे रही है।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी को प्रधानमंत्री मोदी की आपदाओं में अपने लिए एक अवसर नज़र आने लगा है और योगी की महत्वकांक्षाएं तेजी से बलवती होती नज़र जा रही हैं। बीते जून में योगी सरकार ने अंग्रेजी के कुछ प्रमुख अखबारों के मुखपृष्ठ पर अपने फुल पेज इश्तिहार दिए थे जिनमें एक बात बड़ी असामान्य दिखाई दी- इनमें योगी का मुस्कुराता हुआ चेहरा तो प्रमुखता से छपा था, परन्तु प्रधानमंत्री मोदी का चेहरा गायब था। सभी जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में अंग्रेजी के प्रमुख अखबारों के बहुत अधिक पाठक नहीं हैं फिर इन अखबारों में महंगे इश्तिहार देकर योगी ने पैसा क्यों बर्बाद किया? राजनैतिक मामलों के जानकारों के मुताबिक अंग्रेजी के ये प्रमुख अखबार पूरे देश में जाते हैं और पढ़ा लिखा चिंतक वर्ग इन्हें पढ़ता है, अतः योगी एक तो अपनी छवि को देशव्यापी बनाना चाहते हैं। दूसरे, वह अब मोदी से अलग अपने आप को एक राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित करने की ओर अग्रसर हैं। लगता है कि मुख्यमंत्री योगी अब गुजरात वाले मुख्यमंत्री मोदी से प्रेरित होकर उसी तर्ज पर दिल्ली की ओर कूच का सपना देख रहे हैं। यानि दोनों बातों को जोड़कर देखें तो योगी की नज़र 2022 के रण को जीतने के बाद केंद्रीय सत्ता पर दावा ठोकने पर भी लगी हुई है। स्पष्ट है कि वह अमित शाह को राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के रूप में नम्बर दो के स्थान से हटाने पर आमादा हैं। क्या यह मान लिया जाये कि मोदी के बाद योगी राज होगा? क्या योगी ने यह दावा ठोक दिया है? और यही एलान इन इश्तिहारों के ज़रिए भी किया गया है? हालांकि उनके करीबियों का तो यहां तक कहना है कि किस्मत ने साथ दिया तो योगी 2024 में ही दिल्ली की गद्दी पर अपना दावा पेश कर सकते हैं, जिस प्रकार मोदी ने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए 2014 में किया था। उसी तर्ज़ पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी आगे बढ़ते दिख रहे हैं।
हालांकि 2024 तक तो मोदी की गद्दी सुरक्षित है, परन्तु चारों ओर से मोदी की मुसीबतें यदि ऐसे ही बढ़ती रहीं और भाजपा को 2024 में बहुमत से कुछ कम सीटें मिलीं तो मोदी को गद्दी छोड़नी भी पड़ सकती है। एनडीए के दल मोदी के स्थान पर किसी और नेता के नाम पर अड़ सकते हैं। भाजपा में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है जो चाहेंगे कि मोदी जल्द से जल्द कमज़ोर पडे तो शायद उनका नम्बर लगे। इस रेस में योगी सबसे आगे नज़र आ रहे हैं। वो राजनीतिक रूप से देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री हैं, जहां से दिल्ली की गद्दी का रास्ता गुजरता है। लेकिन राजनीति के माहिर खिलाड़ी और चौकाने वाले निर्णय लेकर विरोधियों को बार-बार पस्त करने का माद्दा रखने वाले मोदी इतनी आसानी से बाज़ी हाथ से जाने देंगे? परन्तु अब योगी का इलाज करना है तो मोदी को कुछ हटकर सोचना होगा, जिसे अंग्रेजी में 'आउट ऑफ द बॉक्स' कहते हैं। लेकिन यह क्या हो सकता है? इसका एक हल है और उस पर गम्भीरता से चिंतन किया जाये तो यह योगी की महत्वकांक्षाओं का मुँहतोड़ जवाब साबित हो सकता है। यदि योगी इसी तरह बेकाबू रहे तो मेरी नज़र में मोदी जो दांव खेल सकते है वो है उत्तर प्रदेश का चार हिस्सों में बंटवारा। क्योंकि इससे सांप भी मर जायेगा और लाठी भी नहीं टूटेगी। इस एक निर्णय से योगी 80 सीटों वाले महत्वपूर्ण प्रदेश के प्रभावशाली मुख्यमंत्री से सिमटकर मात्र 25-26 सीटों वाले पूर्वांचल के मुख्यमंत्री बनकर जाएंगे और उनका राजनीतिक प्रभाव भी काफी हद तक कम हो जाएगा।
इसके साथ-साथ समाजवादी पार्टी का भी इलाज हो जाता है क्योंकि उत्तर प्रदेश के बंटवारे के खिलाफ सबसे ज्यादा मुखर सपा ही रही है। परन्तु विभाजन के विरोध के कारण सपा स्वयं ही सिमट जाएगी। पश्चिम उत्तर प्रदेश के अलग राज्य बनने से सपा का पहले दिन से ही यहाँ वजूद समाप्त हो जाता है। उत्तर प्रदेश में सपा का वोट बैंक भी चार हिस्सों में बंट जाएगा। और वह केवल इटावा के आस पास के चन्द जिलों की पार्टी बन कर रह जायेगी। क्योंकि पूर्वी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी बचे-कुचे और विभाजित यादवों पर इनका एकाधिकार समाप्त हो जायेगा। विभाजित प्रदेशों में स्थानीय यादव एक बाहरी प्रदेश के यादवों का नेतृत्व शायद ही स्वीकार करें। जिस प्रकार हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश के जाटों ने कभी एक दूसरे के नेतृत्व को स्वीकार नही किया। प्रदेश विभाजन के बाद क्षेत्रीय दल एक प्रदेश में ही सिमट जाते हैं जहाँ वे सबसे ज्यादा मजबूत होते हैं। उसके तमाम उदाहरण है जैसे आंध्र प्रदेश के बंटवारे में भी देखा गया है, जहाँ चंद्रबाबू नायडू की पार्टी तेलंगाना राज्य से समाप्त हो गई। यही हाल लालू और नीतीश की पार्टियों का बिहार के बंटवारे के बाद झारखंड में हुआ। उत्तराखंड बनने के बाद सपा बसपा की राजनीति भी वहाँ से समाप्त हो गई। देश में कोई भी ऐसा क्षेत्रीय दल नहीं है जिसकी दो प्रदेशों में सरकारें रही हों। अतः ये दोनों भी केवल एक-एक 20-25 लोकसभा वाले छोटे प्रदेश की पार्टियां बन कर सिमट जाएंगी।
स्थानीय पार्टियों के लिए छोटे प्रदेशों में नये राजनीतिक समीकरणों को साध पाना भी असंभव होगा। पश्चिम में सपा का एक बड़ा अल्पसंख्यक वोट बैंक उसे छोड़कर बसपा, काँग्रेस और रालोद के पाले में खिसक जाएगा। रालोद जो पहले से ही पश्चिम उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाने का मुद्दा उठाता रहा है। वह भी इस मुद्दे पर सपा के साथ खड़े होने का जोखिम नहीं उठाएगा, क्योंकि जनता का समर्थन पश्चिम उप्र में अलग राज्य बनाने के साथ है। 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले बसपा खुद प्रदेश बंटवारे का प्रस्ताव विधानसभा में पास करवा चुकी है लिहाजा बसपा सुप्रीमो मायावती भी अब इसका विरोध चाहकर भी नहीं कर पाएंगी। चंद रोज़ पहले बिजनौर से बसपा सांसद मलूक नागर ने प्रदेश बटवारे के विषय को संसद में उठाकर उत्तर प्रदेश की राजनीति को गरमा दिया है। राजनीतिक दलों में यह चर्चा है कि प्रदेश बटवारे के मुद्दे को निश्चित रूप से मायावती के इशारे पर हवा दी गई है। जिस दल में बिना मायावती की मर्जी के एक पत्ता भी नहीं हिलता उसके एक सांसद का संसद में इतना बड़ा बयान बिना आलाकमान की मर्जी के कैसे दिया गया होगा? कहने वाले तो यह भी कह रहे हैं कि यह तीर वास्तव में मोदी के इशारे पर चलवाया गया है।
प्रदेश के बंटवारे के लिए चाहे कोई बहुत बड़ा जन आंदोलन ना हुआ हो लेकिन प्रदेश की जनता और नेताओं की प्रदेश के सभी हिस्सों- पूर्वांचल, बुंदेलखंड, पश्चिम और अवध- इन सब क्षेत्रों में बंटवारे की माँग को लेकर पूर्ण समर्थन अवश्य है।
बहरहाल संविधान के जानकारों के अनुसार किसी भी प्रदेश का बटवारा या उसकी सीमायें बदलने का काम केन्द्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है। संविधान की धारा-3 के अनुसार केन्द्र सरकार किसी भी राज्य की सीमा में बदलाव या बटवारे के बिल को राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद संसद में सामान्य बहुमत से पास करवाकर बड़ी आसानी से कर सकती है। इस बिल को संबंधित प्रदेश सरकार को भी समर्थन और अनुमोदन के लिए भेजा जाता है लेकिन प्रदेश सरकार की राय या समर्थन कोई बाध्यकारी नहीं है। अतः मोदी सरकार यदि उत्तर प्रदेश को बांटने का निर्णय ले ले तो योगी चाहकर भी प्रदेश बटवारे को रोक नहीं सकते। मोदी के लिए इसमें ना तो कोई संवैधानिक कठिनाई है और न ही यह बहुत अधिक समय लेने वाली प्रक्रिया है। क्योंकि इसमें संवैधानिक संशोधन करने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती। प्रदेश के बटवारे का निणर्य इतना बड़ा राजनैतिक घटनाक्रम होगा जिसके पीछे मोदी सरकार की अन्य तमाम विफलताएं भी छुप सकती हैं। मोदी का यह दांव विपक्षी पार्टियों में हड़कंप मचा सकता है जिसके परिणामस्वरूप योगी भी 2024 के उभरते दावेदार से सिमटकर केवल पूर्वांचल के मुख्यमंत्री मात्र रह जाएंगे। इस बंटवारे का राजनैतिक लाभ भी भाजपा और मोदी को ही मिलेगा। बहरहाल मोदी के पास आज के राजनैतिक हालात को भेदने और 2024 के तमाम दावेदारों को चित्त करने के लिए उत्तर प्रदेश का विभाजन एक ऐसा ब्रह्मास्त्र है जिससे कई निशाने एक साथ साधे जा सकते हैं। समय की धारा बड़ी तेज़ होती है। यदि मोदी समय की इस धारा का रुख भांपने में नाकामयाब हुए तो 2024 में मोदी की हालत भी अपने राजनैतिक गुरु लालकृष्ण आडवाणी की भांति हो सकती है।
(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक है)